डोडा, जम्मू। भारत जैसी बड़ी संख्या वाले देश में दिव्यांगों की भी एक बड़ी तादाद है। अगर आंकड़ों की बात करें तो 2.21 प्रतिशत भारतीय आबादी किसी न किसी तरह की दिव्यांगता की शिकार है। इसका अर्थ है कि भारत में 2.68 करोड़ लोग दिव्यांग हैं। इनमें मानसिक रूप से अक्षमों की भी एक बड़ी संख्या है। परंतु उनके लिए सुविधाओं की बात करें तो वह शून्य में भी नहीं आती है। यदि कोई बच्चा दिव्यांग है, तो उसके माता-पिता यह सोच कर उसे पढ़ाना नहीं चाहते हैं कि पढ़ लिख कर क्या करेगा? कुछ काम तो नहीं कर सकता है।
यहां तक कि ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहां मानसिक रूप से तो दूर, शारीरिक रूप से कमज़ोर बच्चों को भी एडमिशन तक नहीं दी जाती है। यदि कोई स्कूल एडमिशन कर भी ले तो उस बच्चे के लिए पर्याप्त सुविधाएं जैसे कि उसके लिए व्हीलचेयर, उसके आने जाने के लिए सुगम रास्ता बनवाना अथवा एक हेल्पर तक की सुविधाएं नहीं होती हैं। उस बच्चे के साथ अलग बर्ताव किया जाता है। डिसेबल्ड बच्चा कह कर उसके हौसले को तोड़ दिया जाता है। जबकि यदि डिसेबल की जगह उसे स्पेशली एबल्ड या विशेष गुणों वाला कह दिया जाए तो शायद उसके अंदर सकारात्मक ऊर्जा आए और वह सामान्य बच्चों की तरह पढ़ाई कर सके।
मानसिक रूप से कमज़ोर लोगों विशेषकर बच्चों के स्वास्थ्य और उनके प्रति समाज में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से प्रति वर्ष 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस का आयोजन किया जाता है। सबसे पहले 1992 में वर्ल्ड फेडरेशन फॉर मेंटल हेल्थ ने इस दिन को मनाने की शुरुआत की। प्रति वर्ष इससे जुड़ी थीम रखी जाती है। इस वर्ष का थीम “मानसिक स्वास्थ्य का अधिकार” रखा गया है।
दरअसल समाज में इससे प्रभावित लोगों या बच्चों को अनावश्यक समझ कर उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। उन्हें दिव्यांग कह कर उपेक्षित किया जाता है। शिक्षा और जागरूकता के अभाव में शहरों की अपेक्षा देश के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे विशेष गुणों वाले बच्चों के लिए जीवन अधिक कष्टकारी हो जाता है। उन्हें वह सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं जिसके वह हकदार हैं।
इसकी एक मिसाल जम्मू-कश्मीर के डोडा-किश्तवाड़ आदि जिलों के ग्रामीण क्षेत्र हैं। ज़्यादातर यह पहाड़ी इलाका है। जहां स्वस्थ लोगों के लिए सुविधाएं पहुंचना मुश्किल हैं तो विशेष गुणों वाले बच्चों की क्या बात करें? उनके लिए इन पहाड़ी इलाकों पर चलना रहना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह लोग अपना सही से इलाज तक नहीं करा पाते हैं, क्योंकि यहां की आर्थिक स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं है।
अधिकतर ग्रामीण आर्थिक रूप से काफी कमज़ोर होते हैं। जो ज़्यादातर खेती-बाड़ी पर ही निर्भर हैं। जिससे इतनी आमदनी नहीं हो पाती है कि वह मानसिक रूप से कमज़ोर अपने बच्चों का उचित इलाज करा पाएं। डोडा जिले के गुंदोह तहसील स्थित समाई गांव में 16 लोग दिव्यांग हैं, जो खुद से अपना काम तक नहीं कर पाते हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनका सही समय पर यदि इलाज हो जाता तो वह ठीक हो सकते थे। परंतु आर्थिक कठिनाइयों के कारण परिवार वाले उनका इलाज नहीं करा पाए।
इनमें से अधिकतर अब युवा हो चुके हैं। यह सारे लोग ऐसे हैं जो छोटे स्तर पर कुछ काम करना चाहते हैं, परंतु उचित जानकारी और मदद के अभाव में कर नहीं पाते हैं। यह लोग दुकान खोलना, बिजनेस करना या डिलिवरी आदि का काम अच्छे से कर सकते हैं। परंतु सुविधाएं पूरी ना होने के कारण यह लोग कुछ भी नहीं कर पाते हैं और परिवार वालों पर आश्रित होकर रह गए हैं। हालांकि सरकार की ओर से ऐसे लोगों के लिए पेंशन की व्यवस्था भी है।
लेकिन कई बार पेंशन बंद हो जाने से इनके सामने आर्थिक संकट खड़ा हो जाता है। इस संबंध में गांव के एक दिव्यांग ज्ञानी राम कहते हैं कि ‘मेरे हाथ और पैर काम नहीं करते हैं। मुझे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। बिना किसी ठोस कारण के सरकार ने हमारी पेंशन भी बंद कर दी है। जिससे मेरे सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया है।’
कई बार परिवार और समाज का उचित साथ नहीं मिलने पर दिव्यांग व्यक्ति अवसाद का शिकार हो जाता है। अक्सर ऐसे लोग आत्महत्या जैसे गंभीर कदम उठा लेते हैं। इसी गांव के सीताराम इसका उदाहरण हैं। शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर होने के कारण वह बचपन से स्कूल नहीं जा सके और माता पिता पर आश्रित रह गए, जबकि उनके अन्य भाई बहन शिक्षा प्राप्त करने में सफल रहे।
वह स्वयं को परिवार पर बोझ समझने लगे। जिसकी वजह से वह अवसाद से ग्रसित हो गए और अंत में उन्होंने आत्महत्या कर ली। इस संबंध में डॉक्टरों का कहना है कि शारीरिक रूप से कमज़ोर इंसान या बच्चे को बार-बार दिव्यांग कहने से वह अपनी अहमियत नहीं समझते हैं।
वह मानसिक रूप से अपने आप को किसी काबिल समझना छोड़ देते हैं तथा तनाव का शिकार हो जाते हैं। जबकि ऐसे बच्चों में भी सामान्य बच्चों की तरह प्रतिभाएं होती हैं। कई अवसरों पर विशेषज्ञ ऐसे बच्चों के माता-पिता को सुझाव देते हैं कि वह उन्हें बेचारा बनाने की जगह धीरे-धीरे आत्मनिर्भर बनाएं, किसी से उसकी तुलना ना करें, क्षमता से अधिक करने के लिए बच्चों को ना कहें, बार उसके सामने उसकी कमज़ोरी को उजागर न करें, सहानुभूति दर्शाने वाले लोगों से हमेशा अपने बच्चों को दूर रखें और बच्चों में हीन भावना न पनपने दें। तभी ऐसे बच्चे भी अपना सामान्य जीवन जी सकते हैं।
दरअसल, मानसिक रूप से कमज़ोर बच्चों को स्वस्थ वातावरण प्रदान करने की ज़रूरत है ताकि युवावस्था में वह किसी प्रकार के अवसाद का शिकार न हो सकें। इसके लिए ज़रूरी है कि सरकार की ओर से उन्हें दी जाने वाली सभी सुविधाओं का लाभ दिलाएं। सरकार के समाज कल्याण विभाग की ओर से शारीरिक रूप से कमज़ोर और अक्षम लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं।
इनमें दिव्यांगजन स्वावलंबन योजना प्रमुख है। इसका मुख्य उद्देश्य दिव्यांगजनों का खुद का व्यवसाय स्थापित कर उन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध करवानी है। इसके लिए उन्हें बैंकों से दस लाख रुपए तक का लोन उपलब्ध करवाया जाता है। लेकिन जागरूकता के अभाव में स्वयं समाज ही उनकी मदद नहीं कर पाता है।
(जम्मू के डोडा से आरती शांत की रिपोर्ट।)