धार्मिक नैरेटिव में भाजपा ने कैसे अपने वर्गीय एजेंडे को छुपाया

संपत्ति कर पर हमले द्वारा कैसे प्रधानमंत्री ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत उगली, कांग्रेस को गाली दिया और इस तरह अपने अति धनिक मित्रों की मदद की। एक सटीक उदाहरण कि कैसे फासीवादी दल काम करते हैं, वह उत्तराधिकार कर के बारे में भाजपा के रुख से पता लगता है। यह अब सुविख्यात तथ्य है कि कैसे नवउदारवाद के दौर में आय और धन की असमानता देश में बढ़ी है। दरअसल यह परिघटना केवल भारत तक सीमित नहीं है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय परिघटना है जो उच्च बुर्जुवा हलकों में भी खूब चर्चा में है।

उदाहरण के लिए विश्व आर्थिक फोरम में कुछ संतुलनकारी कदम उठाने की बराबर चर्चा होती रही है। इसका अर्थ यह है कि दुनियां के सबसे समृद्ध लोगों में भी इस बात को लेकर चिंता है कि संपत्ति और आय की असमानता में अनियंत्रित वृद्धि पूंजीवाद के भविष्य के लिए खतरा पैदा कर रही है। इसी समझ के आधार पर पिछले दिनों अमेरिका के कुछ अरबपतियों ने एक बयान जारी किया कि उनके ऊपर और टैक्स लगाया जाना चाहिए।

भारत के अमीर ऐसी किसी दूरदृष्टि से दूर हैं। यह मानते हैं कि एक फासीवादी दल का समर्थन देकर जो धार्मिक सांप्रदायिक कार्ड खेलकर चुनाव जीत सकता है और फिर चरम अधिनायकवादी तरीकों से अपने खिलाफ हर विरोध को कुचल सकता है, यही पर्याप्त है उनकी संपत्ति को बढ़ाने के लिए अनंत काल तक। एक समय था जब बिड़ला जैसे लोग पूंजीपतियों को समझाते थे कि अपनी संपत्ति का प्रदर्शन मत करो। यह भी समय था जब किसी लोकप्रिय प्रतिक्रिया का डर था। अब वैसा कुछ नहीं है। उन्हें विश्वास है कि हिंदुत्व के साथ उनका गठजोड़ उनकी भारी संपत्ति के कारण उनके खिलाफ उठने वाले किसी भी स्वर को दबा देने के लिए पर्याप्त है।

हिंदुत्व की ताकतों ने उत्तराधिकार कर को जिस तरह डील किया है, उससे पता लगता है कि क्यों उन्हें इतना विश्वास है। आय की असमानता पर हमले का जो सबसे सहज रास्ता है वह है प्रगतिशील संपत्ति कर का जिससे कुछ अधिकारों को सुनिश्चित करके गरीबों की मदद की जा सकती है। हमारे अनुमान के अनुसार आबादी के ऊपरी 1%अमीरों पर केवल 2%संपत्ति कर और एक तिहाई उत्तराधिकार कर लगाकर पूरे देश की जनता की पांच मूलभूत आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं।

थॉमस पिकेटी जो बढ़ती असमानता के बारे में लगातार लिख रहे हैं, ने भी हाल में दस करोड़ से ऊपर की संपत्ति पर यही टैक्स लगाने का सुझाव दिया है। संपत्ति कर के साथ उत्तराधिकार कर को जोड़ना जरूरी है। वास्तव में संपत्ति कर से अगर असमानता कम होने में कुछ मदद मिलनी है, तो उसके साथ उत्तराधिकार कर जोड़ना बहुत जरूरी है ताकि संपत्ति टैक्स नेट से बाहर न निकलने पाए। इसको बुर्जुवा सैद्धांतिक आधार पर भी डिफेंड किया जा सकता है।

उत्तराधिकार में मिली संपत्ति कमाई गई नहीं है। यदि पिता की संपत्ति इस आधार पर न्यायसंगत ठहराई भी जायज की कमाई हुई है, पुत्र द्वारा इसी आधार पर उत्तराधिकार में मिली संपत्ति को उचित नहीं ठहराया जा सकता। उत्तराधिकार में मिली संपत्ति उसके घर विशेष में जन्म के कारण मिली है और बुर्जुवा सिद्धांत द्वारा भी न्यायसंगत नहीं ठहराई जा सकती।

इसीलिए अधिकांश विकसित देश मृत्यु कर के रूप में भारी उत्तराधिकार कर वसूलते हैं। जापान में यह 55%तक है। लेकिन भारत में कोई कर नहीं लगता। इस स्थिति के बेतुकेपन को उन लोगों ने भी पहचाना जो किसी भी तरह न वामपंथी हैं न नवउदारवाद के विरोधी हैं। वास्तव में सेम पित्रोदा जो कांग्रेसी NRI हैं उन्होंने यह प्रस्ताव किया कि भारत में टैक्स लगना चाहिए और उन्हें भाजपा नेतृत्व के जबरदस्त हमले का सामना करना पड़ा।

भारत के बड़े अमीर इससे घबरा जाते हैं और उनके हितों के रक्षक के बतौर भाजपा से यही उम्मीद थी। लेकिन ऐसा उसने किसी अपेक्षित आधार पर नहीं किया मसलन कि इसे लागू करना कठिन होगा या यह पूंजीपतियों को हतोत्साहित करेगा। या वैश्विक वित्तीय पूंजी डर जाएगी और भारत से भाग जाएगी जिससे हमारा भुगतान संतुलन गड़बड़ हो जाएगा बल्कि पूरी तरह झूठे सांप्रदायिक आधार पर किया कि यह मुसलमानों को दे दिया जाएगा। इसको भावनात्मक रंग देने के लिए इसने कह दिया कि हिन्दुओं का मंगलसूत्र लेकर घुसपैठिए यानी मुसलमानों को दे दिया जाएगा।

इस तरह का मिथ्या प्रचार सचमुच अभूतपूर्व था। यह कर धर्म के आधार पर नहीं संपत्ति के आधार पर लगता है। भाजपा का यह प्रचार की यह धर्म के आधार पर लगेगा, चकित करने वाला था। लेकिन अगर किसी को यह लगा हो कि भाजपा ने गलती से ऐसा सोच लिया और अब उसको दोहराएगी नहीं, लेकिन उसने इसके बाद जो कहा उससे ये भ्रम दूर हो जाएगा। योगी ने कहा कि यह जजिया कर जैसा होगा। जो साफ है कि धार्मिक आधार पर लागू किया गया था। न मोदी, न योगी को इस आधार पर माफ किया जा सकता कि उन्हें जानकारी नहीं है।

उनका इस कहानी पर टिके रहना की यह हिंदुओं से छीनकर मुसलमानों को दे दिया जाएगा, यह सीधे-सीधे झूठ का प्रचार है। यह साफ-साफ दिखाता है कि कैसे बड़े अमीरों को बचाया जा रहा है एक झूठे धार्मिक नैरेटिव के आधार पर। जो एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ नफरत पैदा कर रहा है, साथ ही विपक्षी पार्टी के खिलाफ मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर।

इस तरह उत्तराधिकार कर के खिलाफ मिथ्या अभियान एक साथ तीन शिकार कर रहा है, यह अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत को और बढ़ा रहा है विपक्ष को निशाना बना रहा है और बड़े अमीरों को बचा रहा था/है, जो इसके मुख्य संरक्षक हैं।
और यह सब कुछ किया जा रहा है ऐसे झूठ के आधार पर जिसके ये फासीवादी संगठन आदतन अभ्यस्त हैं।

हालांकि इससे एक दूसरा सवाल खड़ा होता है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह मानकर चला जाता है कि जनता तमाम सार्वजनिक विषयों को समझने और सही समझ और बुद्धिमत्ता के साथ इस पर स्टैंड लेने में समर्थ है। लेकिन एक शोषक व्यवस्था में जहां सचेत ढंग से लोगों को अज्ञानी रखा जाता है, यह जरूरी हो जाता है कि तमाम सवालों पर जनता के बीच बात हो और लोगों को सारी बातें स्पष्ट की जाय। मार्क्सवादी परम्परा में इसका बकायदा सैद्धांतिक  विवेचन किया गया है
और declass हो चुके बुद्धिजीवियों से अपेक्षा की गई है कि वे सिद्धांत को जनता तक पहुंचाएंगे।

लेकिन बहुत से बुर्जुवा लेखक यह जरूरत महसूस करते हैं कि, न सिर्फ declass बुद्धिजीवियों में से, बल्कि शिक्षित और अंतरात्मा वाले बुद्धिजीवी इसके महत्व को समझते हैं कि जनता को शिक्षित करना जरूरी है ताकि लोकतंत्र काम कर सके
बुर्जुआ अर्थशास्त्री कींस ने अच्छे लोकतंत्र के काम करने के लिए शिक्षित बुर्जुआजी की बात की थी।

इसका काम जाहिर है जनता को ठीक यही समझाना होता कि उत्तराधिकार कर धर्म के आधार पर नहीं लगाया जाता। फासीवादी तत्वों का राजनीति में उभार अपने सचेत झूठे प्रचार के साथ इसी बात का संकेत है कि कींस की इस धारणा के अनुसार शिक्षित बुर्जुआजी का या तो अभाव हो गया है या उसने अपनी जिम्मेदारी निभाना छोड़ दिया है।

कींस की अवधारणा से जो भी असहमति हो शिक्षित बुर्जुवा वर्ग की भूमिका कमजोर होना या गायब होना तो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ रहा है,उससे इनकार नहीं किया जा सकता। यह तथ्य कि भाजपा के बड़े नेता उत्तराधिकार कर को धार्मिक आधार पर बताकर निकल सकते हैं, बिना मीडिया के हल्ला मचाए, यह दिखाता है कि वह गायब हो चुका है। सचमुच गोदी मीडिया इसके गायब होने का सबूत है।

प्रश्न है कि ऐसा क्यों होता है? शिक्षित बुर्जुआ उसी का एक हिस्सा है। यह कींस द्वारा बताई गई भूमिका अदा कर सकता है बशर्ते यह खुद अपने दिमाग में स्पष्ट हो कि लोकतांत्रिक राजनीति वाले बुर्जुआ समाज को किस दिशा में बढ़ना चाहिए।

लोकतंत्र के एक स्तंभ के बतौर इसका कमजोर होना और फासीवादी प्रोजेक्ट के साथ इसकी रजामंदी उस बन्द गली का संकेत है जिसमें नवउदारवादी पूंजीवाद पहुंच गया है, जिसकी कींस कल्पना नहीं कर सकते थे और जो उन बड़े वर्ग संघर्षों की पूर्वपीठ है जिनसे वह पूंजीवाद को बचाना चाहते थे।

(पीपल्स डेमोक्रेसी से साभार अनुवाद लाल बहादुर सिंह )

• 

More From Author

क्यों ट्रम्प से इतना भय खा रहे हो, क्या डर है जिसको छुपा रहे हो?

दमोह में जन आंदोलन के बाद दोषी कर्मचारियों पर हुई कार्रवाई

Leave a Reply