भारत-पाक संघर्ष के बाद से बहुत कुछ बदल गया है, कश्मीर हो, विदेश नीति हो, भारत-अमेरिका संबंध हो या सामरिक प्रश्न हो सभी मसलों में कुछ नए आयाम जुड़ते गए हैं, जिन्हें नए सिरे से देखना-समझना आज़ और ज्यादा जरूरी हो गया है।
शिमला समझौते की प्रासंगिकता कितनी रह गई?
सबसे पहले तो यही समझना है कि ये जो ट्रंप की तरफ से सीज फायर की सूचना दी गई। व मध्यस्थता का दावा किया गया है, और आगे भी दोनों देशों के मसलों को हल करने में मदद देने का वादा किया गया, इसका क्या मतलब निकाला जाए?
क्या मोदी सरकार द्वारा, भारत की पुरानी, यानि किसी तीसरे देश की मध्यस्थता स्वीकार नहीं, वाली नीति को अनौपचारिक तौर पर बदल दिया गया है।अगर ऐसा नहीं है तो प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में अमेरिकी प्रस्ताव का कड़ा प्रतिवाद क्यों नहीं किया, यह समझ से परे है।
हालांकि औपचारिक तौर पर भारत अभी भी यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, कि उसने शिमला समझौते को भी नकार दिया है जिसके तहत भारत-पाकिस्तान के बीच किसी तीसरे को स्वीकार नहीं किया जाना तय हुआ था।
क्या कश्मीर प्रश्न का फिर से अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया?
एक बड़ा परिवर्तन ये भी हुआ है कि कश्मीर जिसे भारत अंदरुनी मसला मानकर चल रहा था, उसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया, जिस मसले को भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद ख़त्म मान लिया था, वो फिर से दुनिया भर के लिए जिंदा हो गया, ऐसा होना भारत के लिए कूटनीतिक शिकस्त जैसा है। पहलगाम हमले के पीछे भी क्या यही मक़सद था, इस पर भी भारत आज़ ज़रूर सोच रहा होगा। ये इत्तेफाक नहीं है कि पहलगाम में चरमपंथी हमला उस समय किया गया, जब अमेरिका के उप राष्ट्रपति जेडी वेंस भारत दौरे पर थे, और खुद प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब में थे।
कश्मीर के मुख्यमंत्री ने भी कहा कि “पाकिस्तान ने जानबूझकर जम्मू और कश्मीर के प्रश्न का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में कामयाबी हासिल कर ली है।
अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा बार-बार कश्मीर के सवाल को उठाते रहने के चलते अब भारत को, कश्मीर जिसे वह 1972 से ही आंतरिक मामला बनाए रखने में सफ़ल रहा है, आगे भी ऐसी कूटनीतिक सफलता को बनाए रखना बहुत मुश्किल होने जा रहा है।
सीज फायर का श्रेय लेते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री ने भी कहा कि सीज फायर की एक शर्त ये भी है कि किसी अन्य देश में भरत-पाकिस्तान को तमाम मसलों पर वार्ता भी करना होगा, जाहिर है उसमें कश्मीर मसला भी ज़रूर शामिल रहेगा।
अमेरिकी राष्ट्रपति तो न केवल बार-बार कश्मीर मसले का जिक्र कर रहे हैं, बल्कि दोनों देशों के बीच फिर से मध्यस्थता करने की पुरानी मंशा का खुलेआम इज़हार भी करने लगे हैं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी अब ज्यादा जोर-शोर से कश्मीर के सवाल को उठाने लगे हैं, बावजूद इसके भारत पहले की तरह इस बार मजबूती के साथ विरोध भी नहीं कर पा रहा है।
कूटनीतिक मोर्चे पर भारत का अलगाव
इस लड़ाई के दौरान व बाद में, भारत कूटनीतिक मोर्चे पर भी कमज़ोर दिखा, ऐसा लगता है कि भारत, पहलगाम में हमले की सच्चाई को और उस हमले के वास्तविक कनेक्शन को दुनिया के सामने ठीक से उजागर नहीं कर पाया, चरमपंथ को मुद्दा नहीं बना पाया, राज्य प्रायोजित चरमपंथ को भी भारत, वैश्विक बिरादरी के सामने मसला नहीं बना सका, वैश्विक संस्था आईएमएफ, जिस पर अमेरिका का वर्चस्व है, के द्वारा संघर्ष के दौरान ही पाकिस्तान को धन मुहैया कराए जाने से भी ये मैसेज चला गया कि भारत ज्यादा अलगाव में है, ज़्यादातर देश भारत पर लड़ाई ख़त्म करने का कूटनीतिक दबाव बनाते देखे गए, चरमपंथी हमले का शायद कोई पाकिस्तानी कनेक्शन तथ्यत: पेश न कर पाने के चलते, मध्य पूर्व के तो ज्यादातर देश भारत के हमले को ही ग़लत ठहराते रहे, किसी भी देश का पाकिस्तान को आतंकवाद से जोड़ता हुआ नहीं दिखना, भारत के लिए कूटनीतिक मोर्चे पर बड़ी हार है।
भारत-पाकिस्तान दोनों के न्यूक्लियर वेपन्स से लैस होने के चलते भी दुनिया के अधिकांश मुल्कों की तरफ से लड़ाई बंद करने व बातचीत की तरफ बढ़ने के लिए दबाव बनाया जाता रहा।ऐसा लगता है कि भारत द्वारा पिछले दिनों कूटनीतिक मोर्चे पर जो निवेश किया गया था,वो प्रयास काम नहीं आया, यहां तक कि जी 20 की मीटिंग की बैठक भारत में, बड़े धूमधाम से कराने के बावजूद, संकट के समय यहां से भी समर्थन नहीं मिला।
भारत की स्वतंत्र वैश्विक छवि संकट में
इस लड़ाई के दौरान और उसके बाद भी भारत के प्रति अमेरिकी राष्ट्रपति की भाषा और भारत के प्रति रवैया बेहद चुभने वाली दिखी, ट्रंप लगातार भारत को लेकर अपमानजनक भाव-भंगिमा में बात करते रहे, या भारत के वैश्विक महत्व को चोट पहुंचाते रहे, और उसके स्वतंत्र छवि को क्षतिग्रस्त करते रहे।
जिस तरह से खुद ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान से पहले ही सीज फायर की घोषणा कर दी, मध्यस्थता का दावा भी ठोक दिया, उसके चलते भारत के सामने बेहद ख़राब परिस्थिति पैदा हो गई, राष्ट्र के नाम संबोधन के ज़रिए प्रधानमंत्री मोदी डैमेज कंट्रोल कर सकते थे, पर पूरे संबोधन में अमेरिका का नाम तक नहीं लिया गया, जबकि मोदी जी के संबोधन के ठीक पहले एक बार फिर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने बेहद ख़राब शब्दों में अपनी बात को दोहराया कि हां! मैंने दोनों देशों को युद्ध बंद करने के लिए कहा, और ये कि युद्ध नहीं बंद करोगे तो व्यापार बंद कर दूंगा।बावजूद इसके मोदी जी ट्रंप को जवाब नहीं दे पाए।
असल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दूसरे काल की शुरुआत से ही भारत को, अमरीका द्वारा नियंत्रित देश के बतौर या लगभग अपनी कोलोनी की तरह देखना शुरू कर दिया है।
टैरिफ वार की शुरुआत से लेकर आज़ सीज फायर के समय तक, ट्रंप के अपमानजनक बयानों का मोदी सरकार द्वारा कोई प्रतिवाद न किए जाने की यह बात और स्थापित होती जा रही है।
भारत की चुप्पी उसे अमेरिकी पाले के एक सामान्य देश के बतौर स्थापित करती जा रही है। शीत युद्ध के जमाने से ही जो एक स्तर की स्वतंत्र विदेश नीति थी, और तीसरी दुनिया के देशों के साथ, खड़े होने की जो छवि निर्मित हुई थी, या आज़ के दौर में ग्लोबल साउथ की अगुवाई करने की क्षमता, जो भारत में देखी जा रही थी, वह सब अब कमजोर होता हुआ दिख रहा है।
सामरिक मोर्चे पर भारत
एक बात यह भी समझना जरूरी है कि हाल के वर्षों में पाकिस्तान को चीन से मिलने वाला सैन्य समर्थन काफ़ी बढ़ गया है। 2020 के बाद से पाकिस्तान के सैन्य आयात में चीन का हिस्सा 81 फीसदी हो गया है, आज़ चीन समर्थित पाक सेना के सामने भारत कितना तैयार है,ये प्रश्न अब सीज़फायर के बाद दुनिया भर में बार-बार पूछा जा रहा है।ज्यादातर विश्लेषक चीन का पूरी तरह पाकिस्तान के साथ चले जाने को,भारतीय विदेश नीति की असफलता के बतौर देखने लगे हैं।
इस संघर्ष के दौरान भारत की सामरिक सीमाएं भी उजागर हुई हैं, राफेल की मारक क्षमता, चीन निर्मित जे-10 के सामने कमजोर दिखी है।अमेरिकी अधिकारियों ने रायटर्स समाचार एजेंसी से पुष्टि की है कि जे-10 के माध्यम से कम से कम दो भारतीय विमानों को गिरा दिया गया, हालांकि भारत ने किसी नुकसान को स्वीकार नहीं किया है फिर भी, राफेल बनाम जे-10 और इसी के जरिए पश्चिम बनाम चीन की तैयारी पर भी बात होने लगी है, और इस प्रक्रिया में भारत की तैयारी भी सवालों के घेरे में आ गई है।
अमेरिका क्या चाहता है?
ट्रंप बार-बार बोलते रहे हैं कि राष्ट्रपति बनते ही यूक्रेन-रसिया युद्ध खत्म हो जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ, यूक्रेन पहले तो लड़ गया पर बाद में पीछे हट गया, फिर रसिया ने बहुत सारी शर्तें लगा दी, जिसे यूक्रेन मानने की स्थिति में नहीं था, सो मसला फंस गया।ऐसे में ट्रंप को कहीं न कहीं युद्ध बंद कराने का श्रेय लेना था, भारत-पाकिस्तान युद्ध ने वो मौका दे दिया। इसी लिए ट्रंप बार-बार भारत-पाकिस्तान युद्ध को ख़त्म कराने का श्रेय लेने को लेकर अतिरिक्त सक्रियता दिखा रहे हैं, दुनिया को व अपने देश को ये मैसेज दे रहे हैं कि देखो मैं अपने किए वादों को लागू करने की तरफ बढ़ रहा हूं।
इसी तरह ट्रंप ये भी चाहते हैं कि भारत बिना किसी किंतु-परंतु के अमेरिकी लॉबी का हिस्सा बने। जो कि भारत के लिए अपनी घरेलू व वैश्विक छवि के चलते खुलेआम संभव नहीं हो पा रहा है, हालांकि भारत ने अपनी विदेश नीति शिफ्ट तो कर ली है, पर अमेरिकी इससे ज़्यादा चाहता है, और इस लिए भी भारत और उसकी स्वतंत्र छवि को बार-बार टारगेट किया जा रहा है। जिसका भारत अभी कोई माकूल जवाब देता बिल्कुल ही नहीं दिख रहा है।
(मनीष शर्मा पोलिटिकल एक्टिविस्ट हैं और कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं।)