यह विस्मृति पश्चिमी ताकतों के शीत युद्ध के उद्देश्यों से मेल खाती थी, और आज भी यह विस्मृति तमाम देशों में उभरते फासीवाद के हितों से मेल खाती है।
नाजी जर्मनी मूलतः सोवियत संघ द्वारा परास्त किया गया था। उस युद्ध में सोवियत जनता द्वारा अपने देश की रक्षा के लिए किए गए बलिदान एकदम अकल्पनीय हैं। हालांकि शुरुआत से ही पश्चिमी देशों की इस सच्चाई को मिटा देने की कोशिश रही है और उसकी जगह यह कि नाजी जर्मनी की हार उनकी कोशिशों का नतीजा थी।
शुरू में इस वैकल्पिक नैरेटिव को पेश करने की कोशिशें चुपचाप की गईं। स्वयं पश्चिम की जनता ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया, पश्चिम के बुद्धिजीवियों की तो बात ही छोड़ दीजिए, जिन्होंने सीधे तौर पर युद्ध का अनुभव किया था और इस बात को समझते थे कि युद्ध आगे कैसे बढ़ा था।
मुझे खुद याद है कि कैसे सुप्रसिद्ध वामपंथी कीनसियन अर्थशास्त्री जॉन रॉबिंसन अनेक बार कैंब्रिज के सेमिनार में जब कोई सोवियत संघ की तीखी आलोचना करता था तो कहती थीं कि,”मत भूलो कि सोवियत संघ के बिना आज हम यहां इस तरह न बैठे होते”। वह एक प्रसिद्ध जनरल की बेटी थीं और किसी भी तरह कम्युनिस्ट समर्थक नहीं थीं। पर यह उनकी धारणा थी, जिसे पश्चिमी अकादमिक जगत के लोग युद्ध के बहुत दिनों बाद तक मानते थे।
इसे समय बीतने के साथ मिटाने की कोशिशों ने जोर पकड़ा। और नई पीढ़िया आईं जिन्होंने न युद्ध देखा था, न इसके बारे में बहुत कुछ जानते थे। तब इस प्रयास को बड़ी सफलता मिली।हॉलीवुड ने भी शायद इस सच को मिटाने में अनजाने में इसमें भूमिका निभाई।
इसने अनेकों blockbuster फिल्में बनाईं,The Longest Day and The Guns of Navarone to Saving Private Ryan जिन्होंने मूलतः पश्चिमी ताकतों को नाजियों से भिड़ते हुए दिखाया और बहादुरी और सफलतापूर्वक उन्हे पराजित करते हुए दिखाया। ये फिल्में, बेशक पश्चिम के दर्शकों के लिए बनी थीं, इससे उनकी मूल कहानी की दिशा का पता लगता है। लेकिन उन्होंने निस्संदेह इस नैरेटिव की सफलता में योगदान दिया कि द्वितीय विश्वयुद्ध प्राथमिक रूप से पश्चिमी ताकतों और नाजियों तथा उनके सहयोगियों के बीच था जिसमें नाजियों की हार हुई।
यह तथ्य कि ब्रिटेन ने लगभग 5 लाख सैनिकों और नागरिकों को मिलाकर खोया था और अमेरिका ने उससे थोड़ा कम लोगों को खोया, जबकि सोवियत रूस के 2.7करोड़ लोग मारे गए, पश्चिम की जनता की याददाश्त में पृष्ठभूमि में चली गई।
निश्चय ही, मौतों की संख्या की तुलना अपमानजनक है, और उस युद्ध के सारे बलिदान, चाहे वे जितने छोटे क्यों न हों, सम्माननीय हैं, लेकिन यहां चर्चा इस बात की की जा रही है कि पश्चिम की आम याददाश्त में धीरे-धीरे सोवियत संघ के बलिदान की मात्रा और महत्व को भुला दिया गया।
यह विस्मृति पश्चिमी ताकतों के शीत युद्ध के उद्देश्य के अनुकूल थी। दरअसल, फासीवाद की पराजय में सोवियत यूनियन की भूमिका को मिटाने के साथ ही वह एक बहुत शैतानी झूठ फैला रही थी कि सोवियत संघ पश्चिमी यूरोप के प्रति आक्रामक रुख के साथ एक विस्तारवादी शक्ति था। यह आराम से भुला दिया गया कि एक देश जिसने इस समय हाल ही में सम्पन्न युद्ध में अपने 2.7करोड़ लोगों को खोया और बेपनाह बरबादी झेली, उस युद्ध के बाद फिर किसी आक्रामक योजना पर अमल करने के बारे में कैसे सोच सकता था।
लेकिन विंस्टन चर्चिल जैसे धुर साम्राज्यवादियों द्वारा संचालित पश्चिमी प्रचार ने सचेत ढंग से यह कहानी गढ़ी कि सोवियत संघ यूरोप के लिए खतरा है ताकि यूरोप के शासक वर्ग को मजबूत किया जा सके जिनका वर्चस्व युद्ध के बाद गंभीर खतरे में आ गए, एक खतरा उन concessions के रूप में भी पैदा हुआ जो उन्हें युद्ध के बाद देने पड़े थे।
एक छूट उन्हें घरेलू स्तर पर जो लोक कल्याणकारी राज्य बनाने पड़े, जबकि दूसरी छूट विदेशों के अपने उपनिवेशों को आजाद करना पड़ा (शीत युद्ध के नियंता चर्चिल जिसके खिलाफ थे)।
सच्चाई यह है कि सोवियत यूनियन पूरी सावधानी के साथ फासीवाद विरोधी ताकतों के एल्टा और पोट्सडम सम्मेलन की समझ के साथ खड़ा था। यहां तक कि ग्रीक क्रांति के पक्ष में वह नहीं गया, जिसकी वजह से उसकी पराजय हो गई।
दूसरी ओर साम्राज्यवाद बिना किसी मलाल के सोवियत खतरे के प्रचार पर लगा रहा ताकि साम्राज्यवादी व्यवस्था के लिए समर्थन जुटाया जा सके जो अस्तित्व के संकट से जूझ रही थी।
अक्सर इसे स्वीकार नहीं किया जाता कि भारत की जनता से, विशेषकर बंगाल, जिससे जबरदस्ती वसूली की गई उसका बलिदान पश्चिमी ताकतों के बलिदान से कई गुना ज्यादा था।
उदाहरण के लिए, पूर्वी मोर्चे पर जापान के खिलाफ लड़ाई का अधिकांश खर्च भारत की औपनिवेशिक सरकार के वित्तीय घाटे से पूरा किया गया।
वित्तीय घाटे का एक हिस्सा सरकार के युद्ध खर्च के लिए था। क्योंकि भारत की जनता से बिना बात किए उसे जबरदस्ती युद्ध में घसीट लिया गया था। हालांकि, अधिकाश वित्तीय घाटा जो नए नोट छपकर क्या गया, वह भारत से ब्रिटिश सरकार द्वारा पूर्वी मोर्चे की लड़ाई के लिए लिए गए जबरदस्ती कर्ज के रूप में था। यद्यपि कर्ज भारत को देनदारी के रूप में रिकॉर्ड किए गए थे और उन्हें स्टर्लिंग संतुलन कहा जाता था जिनके बदले में नोट छापे गए, लेकिन इस आरक्षित धन का बहुत बड़ा हिस्सा युद्ध के बहुत बाद तक भारत को नहीं मिल सका।
इस तरह के वित्तीय घाटे से महंगाई में जबरदस्त वृद्धि हो गई , विशेषकर खाद्यान्न की कीमतों में, जिसके कारण गांवों में खाद्यान्न वितरण की किसी राशनिंग की व्यवस्था के अभाव में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ गया और तीस लाख लोग मारे गए। (तुलना किया जाय तो ब्रिटेन के केवल पांच लाख लोग युद्ध में मारे गए थे )
विडंबना यह है कि भारत का जो अधिकांश कर्ज इंग्लैंड के ऊपर था, उसकी काफी कीमत घट गई, उसका एक कारण तो युद्ध के बाद की अति मुद्रास्फीति थी, और दूसरा कारण यह था कि 1949में स्टर्लिंग का अवमूल्यन हो गया।
हर लिहाज से बंगाल में मारे गए तीस लाख लोग युद्ध के ही शिकार थे भले वे सीधे युद्ध में भाग न ले रहे हों।
सोवियत यूनियन की भूमिका को मिटा देने की यह कोशिश ट्रंप के राज में अपने चरम पर पहुंच गई है। जो केवल शांत नहीं हैं नाजी विरोधी लड़ाई में सोवियत संघ की भूमिका को मान्यता देने में, बल्कि धृष्टतापूर्वक उन्होंने दावा कर दिया कि नाजियों को हराने में अमेरिका की भूमिका प्रधान थी।
कुछ लोगों को लगता है कि ट्रंप की इस टिप्पणी का कारण शुद्ध मूर्खता है। लेकिन 1946में पैदा हुए ट्रंप की उम्र इतनी हो चुकी है कि उन्हें युद्ध के बाद के दौर का सीधा अनुभव है और उसके बाद के विकास क्रम का सीधा अनुभव उनके पास है। उनका धृष्टतापूर्ण बयान युद्ध के बाद से ही चल रहे प्रचार की ही पराकाष्ठा है।
मॉस्को में नाजी पराजय की 80वें वर्षगांठ के समारोह के बहिष्कार का पश्चिमी देशों का फैसला भले ही पुतिन के यूक्रेन युद्ध के बहाने किया जा रहा है, लेकिन इसका श्रेय उस झूठ को ही जाता है जिसने अब नई वैधता हासिल कर ली है।
यह सच है कि पुतिन का सोवियत यूनियन से कुछ लेना देना नहीं है और उसकी वर्षगांठ का समारोह उसका कुछ श्रेय हासिल करना है। लेकिन पश्चिमी ताकतों ने अपने बहिष्कार को न्यायसंगत ठहराने के लिए सोवियत यूनियन और पुतिन के बीच को अंतर करना भी उचित नहीं समझा।
इस संदर्भ में यह नोट करने लायक है कि वैश्विक दक्षिण के कई देशों ने, न सिर्फ चीन, वियतनाम, क्यूबा, बल्कि ब्राजील, वेनेजुएला और बुर्किनाफासो, (जो इस समय फ्रांसीसी अमेरिकी नव उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए लड़ रहा है) ने समारोह में हिस्सा लिया।
भारत ने जैसी कि उम्मीद थी इसमें हिस्सा नहीं लिया। यह सब को मालूम है कि वर्तमान हिंदुत्व ब्रिगेड के पुरखे हिटलर और मुसोलिनी के बड़े प्रशंसक थे और द्वितीय विश्वयुद्ध में विश्व की बहुसंख्यक जनता के खिलाफ थे।
यहां एक और कारक भी है। जब फासीवाद फिर से तमाम देशों में उभर रहा है, आठ दशक पहले फासीवाद की पराजय का जश्न मनाना पश्चिम की प्राथमिकता नहीं है। अधिकांश पश्चिम की सरकारें या तो खुद फासीवादी हैं या उभरती फासीवादी पार्टियों से संबंध बनाने को उत्सुक हैं। ट्रंप पहली श्रेणी में हैं। उनके घनिष्ठ सहयोगी और विश्वासपात्र एलान मस्क जर्मनी की AFD जो खुलेआम एक फासीवादी पार्टी है के कट्टर समर्थक हैं। यूक्रेन की सरकार जो अभी रूस से युद्धरत है और जिसे पश्चिम का समर्थन हासिल है, स्टेपन बंदरा के समर्थकों से भरी हुई है, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के समय आक्रामक नाजियों का समर्थक था।
पुतिन को कम से कम यह मालूम है कि अतीत का असल गौरव क्या है। लेकिन पश्चिम की ताकतों को यह भी नहीं मालूम है।
(साभार Newsclick अनुवाद लाल बहादुर सिंह)