वाराणसी। उत्तर प्रदेश के बनारस में सड़कों पर चलते हुए हम अक्सर रेहड़ी-पटरी वालों से आराम से साग-सब्जी, चाय-नाश्ता और अन्य ज़रूरत की चीज़ें खरीदते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन शायद ही कभी हम इन छोटे व्यापारियों की समस्याओं पर ध्यान देते हैं।
इनके लिए फुटपाथ पर दुकान लगाना कोई आसान काम नहीं होता। पुलिस, प्रशासन, नगर निगम, और कभी-कभी स्थानीय गुंडों को हफ्ता देने के बावजूद इनका धंधा आसानी से नहीं चलता। जब भी सरकारी नियम-कानून सख्त होते हैं या स्थानीय प्रशासन नई योजना लागू करता है, सबसे पहले इन रेहड़ी-पटरी वालों की रोज़ी-रोटी पर चोट पड़ती है।

वाराणसी, जिसे बनारस के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर प्रदेश के प्रमुख शहरों में से एक है। यह शहर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है। फिर भी, यहां के रेहड़ी-पटरी वालों की समस्याओं का समाधान अब तक नहीं हो पाया है।
करीब डेढ़ महीने पहले पुलिस प्रशासन ने लंका और आसपास के क्षेत्रों में वेंडिंग जोन में ठेला-गुमटी लगाने वालों को उजाड़ दिया। लंका थाना पुलिस की सख्ती के कारण सैकड़ों रेहड़ी-पटरी वालों को अपनी दुकानें बंद करनी पड़ीं। बनारस के रेहड़ी-पटरी वाले, जो दिन-रात मेहनत कर अपना पेट पालते हैं, पिछले चार दिनों से बेमियादी धरने पर बैठे हैं।
उनका कहना है कि वे स्वाभिमान से काम कर रहे हैं, लेकिन सरकार और प्रशासन उन्हें कमाने नहीं दे रहे। यह सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं, बल्कि उनके अस्तित्व की लड़ाई है।

वाराणसी के लंका इलाके में, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मुख्यद्वार से नरिया मार्ग तक लगभग 50 पथ विक्रेता कई सालों से अपना छोटा-मोटा व्यवसाय चला रहे हैं। इनके पास 1985 से विश्वविद्यालय द्वारा जारी की गई रसीदें भी हैं, जब वे विश्वविद्यालय को हर छह महीने में ₹62 का शुल्क देते थे।
ये विक्रेता विश्वविद्यालय के बाहर ठेले लगाकर अस्पताल के मरीजों और उनके परिवारों को खाने-पीने की चीजें बेचते हैं।
लेकिन जब से नरेन्द्र मोदी वाराणसी से सांसद बने हैं, इन पथ विक्रेताओं के लिए परेशानी बढ़ गई है। पहले, जब मोदी का हेलीकॉप्टर विश्वविद्यालय के अंदर आता था, तो इन पथ विक्रेताओं को एक हफ्ते के लिए अपने ठेले हटाने पड़ते थे।
इससे उनका बड़ा नुकसान होता था, और उनका संगठन “गुमटी व्यवसायी कल्याण समिति” ने प्रधानमंत्री से नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजा भी मांगा था।

42 वर्षीय बाबू सोनकर बीएचयू कैंपस की बाउंड्री के पास फल की दुकान लगाते हैं। कुछ साल पहले तक उनके पिता स्व. धनीराम और उससे पहले उनके दादा तुलसीराम भी उसी जगह फल बेचते थे। लंका थाना पुलिस ने करीब 44 दिन पहले एक झटके में उन्हें वहां से हटा दिया।
तीन पीढ़ियों का धंधा एक पल में खत्म हो गया। बाबू सोनकर कहते हैं, “अब तो दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया है। कोई काम नहीं बचा। ठेला लेकर आते हैं, तो पुलिस वाले डंडे मारकर भगा देते हैं। फिलहाल नमक-भात खाकर किसी तरह से अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं।”
18 वर्षीय प्रियांशु यादव की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। वह अपने दादा रघुनाथ यादव के साथ लंका पर गरीबों को खाना खिलाते थे। कोई भी व्यक्ति 50 रुपये में उनके ठेले पर भरपेट भोजन कर सकता था। अब प्रियांशु अपने परिवार का पेट नहीं भर पा रहे हैं।
वे कहते हैं, “हमारे दादा पिछले 40 सालों से ठेले पर खाना बेचते थे। यह हमारा पुश्तैनी धंधा है। चार भाई और दो बहनों की आजीविका इसी से चलती थी, जिसे पुलिस उठा ले गई।”

धनंजय कुमार सोनकर, जो लंका पर चाय की दुकान लगाते थे, बताते हैं कि उनके ठेले से उनके पूरे परिवार का पालन-पोषण होता था।
वे कहते हैं, “हमारे पास पटरी पर दुकान लगाने का लाइसेंस है, लेकिन लंका थाना पुलिस ने एक ही झटके में हमें वहां से हटा दिया। पिछले 44 दिनों से हमारे घर सिर्फ एक वक्त का खाना बन पा रहा है। कभी नमक रोटी खाकर गुजारा करते हैं, तो कभी नमक-चावल पर। 50 साल से हमारी दुकान पटरी पर लग रही थी”।
“हमारे पिता और दादा भी यही काम करते थे। अब पुलिस अफसर हमें बताएं कि हम कैसे जिंदा रहें?” 45 वर्षीय वसंत कुमार की भी यही कहानी है। उनकी लंका पर चाय की दुकान थी, जिससे उनके तीन बच्चों का पालन-पोषण होता था।
वह बताते हैं, “पुलिस ने हमारे धंधे पर हंटर चलाया, और उनके कारण मेरे बच्चों की पढ़ाई भी छूट गई। 3 सितंबर 2024 को पुलिस ने हमें मारा-पीटा और जबरन हमारी दुकान हटा दी।”
गरीबों का पेट भरने वाले खुद भूखे
गुमटी व्यवसायी कल्याण समिति के अध्यक्ष 65 वर्षीय चिंतामणि सेठ पिछले कई दशकों से लंका पर चाय और नमकीन बेचते थे। उनकी दुकान पटरी के किनारे थी, और नगर निगम द्वारा सर्वे के बाद उन्हें दुकान लगाने का लाइसेंस भी जारी किया गया था।
लेकिन लंका थाना पुलिस ने एक झटके में उनकी दुकान हटा दी। चिंतामणि सेठ कहते हैं, “इसी चाय की दुकान से मैंने अपनी तीन बेटियों की शादी की है। मेरे दो बेटे हैं, लेकिन अब घर चलाना मुश्किल हो गया है। “

“लंका थानाध्यक्ष शिवाकांत मिश्रा ने कायदे-कानून को ताक पर रखकर हमें उजाड़ दिया। अब हमारे सामने भूखों मरने की नौबत आ गई है। उजाड़ने से पहले पुलिस को यह तो सोचना चाहिए था कि आखिर हम जिंदा कैसे रहेंगे? हमारा घर कैसे चलेगा? हमारे बच्चों को कौन रोटी खिलाएगा?
हम तो कानून के दायरे में लाइसेंस लेकर ठेले पर चाय-नमकीन बेच रहे थे, फिर क्यों हमें हटाया गया? सरकार हमारी रोजी-रोटी छीन रही है। अब हमें यह समझ नहीं आ रहा कि हम कैसे जिएंगे। क्या हमें यहां से चला जाना चाहिए? लेकिन हम जाएंगे तो कहां?”
चिंतामणि सेठ और उनके साथ कई पथ विक्रेताओं के पास वैध प्रमाण पत्र हैं, जो उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं। इनमें से 54 विक्रेताओं ने ‘पीएम स्वनिधि योजना’ के तहत ऋण भी लिया है, जो यह साबित करता है कि वे कानूनी रूप से अपने व्यवसाय का संचालन कर रहे हैं।
चिंतामणि सेठ की तरह की व्यथा मुन्नी देवी, चुन्नी देवी और सोना देवी की भी है। ये महिलाएं भी नगर निगम से लाइसेंस लेकर चाय-नमकीन बेचकर अपना गुजारा कर रही थीं।
55 वर्षीया मुन्नी देवी अपनी स्थिति के बारे में बताते हुए रोते हुए कहती हैं, “हम पुलिस और स्थानीय गुंडों से परेशान हैं। कभी पुलिस हमारा सामान गाड़ी में भरकर ले जाती है, तो कभी कोई दबंग आकर सब कुछ फेंक देता है। अब सरकार भी हमारी मदद करने की बजाय हमारे मुंह का निवाला छीन रही है।”
लंका में चावल-दाल बेचने वाली राजेश्वरी देवी की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। वह बताती हैं, “अचानक लंका थाने की पुलिस आई और मेरा ठेला, सामान समेत उठा ले गई। ठेला छुड़ाने के लिए मुझे कई दिनों तक धक्के खाने पड़े। हजारों रुपये का चालान भरवाया गया”।
“पुलिस हमें यह भी नहीं बता रही है कि हम अपना ठेला कहां लगाएं। ऐसा लगता है कि मुझे जबरन इस हालात में धकेला जा रहा है। अगर सरकार मुझे मेहनत से कमाने का अधिकार नहीं देती, तो वह मुझे अपने बच्चों को जहर देने के लिए मजबूर कर रही है।”
28 वर्षीय ओमप्रकाश सोनकर की कहानी भी अन्य वेंडरों से अलग नहीं है। ओमप्रकाश की बहन की शादी होनी थी, लेकिन पुलिस की कार्रवाई के कारण उनका काम ठप हो गया और शादी रुक गई। पैसे का इंतजाम नहीं हो पा रहा है।
वह सवाल करते हैं, “सरकार बताए कि हम अपनी बहन की शादी कैसे करें? जिस स्थान पर हम ठेला लगा रहे थे, वहां हमारी तीन पीढ़ियां बाटी-चोखा बेचती आ रही हैं। सालों से हम वहां काम कर रहे थे, लेकिन अब हमें बेदखल कर दिया गया”।
“लंका इलाके के सभी वेंडर पीएम नरेंद्र मोदी को सिर्फ इसलिए वोट देते थे क्योंकि उन्होंने भी चाय बेची थी। हमें यकीन था कि वो हमारा दर्द समझेंगे, लेकिन उनके शासन में ही हमें उजाड़ दिया गया। अब पुलिस हमारी बात नहीं सुन रही है।”
लंका पर पटरी पर दुकान लगाने वाले संजय सोनकर ने भी अपनी चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा, “कोई यह तो बताए कि हम अपना ठेला कहां लगाएं और अपने माता-पिता, भाई-बहनों को क्या खिलाएं? हमने मोदी को वोट दिया था, यह सोचकर कि वह गरीबों का भला करेंगे और अच्छे से देश चलाएंगे।
उन्होंने खुद चाय बेची थी, तो हमें लगा कि वो हमारा दर्द समझेंगे, लेकिन उन्होंने हमें उजड़वा दिया। हमें ऐसा प्रधानमंत्री और बेदिल सांसद नहीं चाहिए। हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि हम यहां पटरी पर दुकान लगा सकते हैं, फिर भी निगम के अधिकारी हमें हटा रहे हैं।
पुलिस कोर्ट के आदेशों का पालन नहीं कर रही है, बल्कि गरीबों का शोषण कर रही है।”
50 वर्षीय राजेंद्र सोनकर, जो उसी स्थान पर बाटी-चोखा बेचा करते थे, बताते हैं कि उनका ठेला उनके दादा ने बनवाया था। उनके दादा के समय से ही उनका परिवार पटरी पर यह धंधा कर रहा है।
वह कहते हैं, “लंका इलाके में वाराणसी नगर निगम द्वारा जिन 54 लोगों को वेंडिंग का लाइसेंस दिया गया था, उन्हें उजाड़ दिया गया है। जिनके पास लाइसेंस है, उन्हें हटाया जा रहा है, और रिश्वत लेकर गैर-लाइसेंसी लोगों को दुकानें आवंटित की जा रही हैं”।
“हमारी रोजी-रोटी छीनकर इलाके के गुंडों और मवालियों को हमारा धंधा सौंपा जा रहा है। पुलिस कहती है कि हमारी वजह से सड़क जाम हो रही है, लेकिन टैंपो और टोटो वालों को नहीं हटा रही है, क्योंकि उनमें से ज्यादातर गाड़ियां पुलिस वालों की हैं।”
राजेंद्र के साथ बैठे 55 वर्षीय डिंगू प्रसाद सोनकर भी हताश नजर आते हैं। वह कहते हैं, “पचास साल पुराना हमारा धंधा पटरी के किनारे चल रहा था। हमारे परिवार में सात लोग हैं, जिनमें पांच बच्चे हैं, और अब उनके लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना मुश्किल हो गया है।”
इन व्यवसायियों की व्यथा उनकी रोजी-रोटी छिनने और पुलिस द्वारा की जा रही कार्रवाई के दर्द को बयां करती है, जो उनके जीवन और उनके परिवारों पर भारी असर डाल रही है।
रेहड़ी-पटरी वालों की ये कहानियां उनके संघर्ष, दर्द और अस्तित्व की लड़ाई की गहरी झलक देती हैं, जो सिर्फ जीविका से जुड़ी नहीं, बल्कि उनके पूरे जीवन पर असर डालती हैं।
इन रेहड़ी-पटरी वालों की पीड़ा सिर्फ रोज़गार खोने तक सीमित नहीं है, यह उनके अस्तित्व और उनके परिवारों के भविष्य की लड़ाई है।
क्या है पूरा मामला?
इस पूरे विवाद की जड़ें बनारस के पुलिस कमिश्नर मोहित अग्रवाल का एक आदेश है जिसमें उन्होंने शहर में अवैध कार्य और अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया गया था। इसके बाद से पुलिस ने बनारस शहर में रेहड़ी-पटरी वालों को हटाना शुरू कर दिया।
इससे पहले भी निगम और पुलिस इन्हें परेशान करती थी, लेकिन इस बार स्थिति और भी गंभीर हो गई है। रेहड़ी-पटरी पर धंधा करने वालों की लड़ाई लड़ने के लिए देश के जाने-माने एक्टिविस्ट एवं मैक्सेसे अवार्डी राजेंद्र सिंह बनारस पहुंच गए हैं। वह रोजाना इनके साथ धरने पर बैठ रहे हैं।
पिछले चार दिनों से बीएचयू के सर सुंदरलाल हास्पिटल की बाउंड्री के किनारे ठेला-ठेली और रेहड़ी वालों का बेमियादी धरना चल रहा है। रुक-रुककर नारेबाजी होती है तो राहगीरों का ध्यान उनकी तरफ चला जाता है। हालांकि जब से इनका आंदोलन शुरू हुआ है तब से उनकी सुधि लेने न कोई अफसर पहुंचा है और न ही उनके मातहत कर्मचारी।

इससे पहले धरना स्थल पर पहुंचे प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. संदीप पांडेय भी पहुंचे और बताया कि बनारस 2014 से झूठे सपनों में फंसा हुआ है। धरने पर बैठे ये लोग अपनी मेहनत से अपनी आजीविका चला रहे हैं। सरकार इनकी मदद करने में नाकाम रही है, लेकिन उजाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। इस सबको देख कर सवाल उठता है कि जब सरकार छोटे व्यवसायियों को ही खत्म करने में लगी है, तो इन लोगों का भविष्य क्या होगा?-
बाद में डा. राजेंद्र ने पुलिस कमिश्नर मोहित अग्रवाल से मुलाकात कर उन्हें ठेला-ठेली और रेहड़ी वालों की व्यथा सुनाई। साथ ही यह भी कहा कि, “रेहड़ी-पटरी वाले अतिक्रमण नहीं करते हैं।”
“-अतिक्रमण वह है जो बड़े-बड़े कोठियों के सामने गार्ड के लिए बॉक्स बनाना या सड़कों पर सीढ़ियां लगाना है। लेकिन निगम के अधिकारी गरीबों को उजाड़ने में अधिक रुचि दिखा रहे हैं। पथ विक्रेता अधिनियम 2014 के तहत सभी रेहड़ी-पटरी वालों को एक जगह देने की व्यवस्था की गई है।
इस अधिनियम के अनुसार, टाउन वेंडिंग कमेटी (टीवीसी) द्वारा सभी रेहड़ी-पटरी वालों का सर्वे, रजिस्ट्रेशन, सर्टिफिकेशन का काम किया जाएगा। जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक उन्हें हटाया नहीं जा सकता।”
कहां है समस्या की जड़?
बनारस जैसे शहर में जहां पर्यटन और धार्मिक आस्था का बड़ा योगदान है, वहां के रेहड़ी-पटरी वाले स्थानीय अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा हैं। गुमटी व्यवसायी कल्याण समिति के अध्यक्ष चिंतामणि सेठ कहते हैं कि बनारस में 40 हजार लोग सड़क के किनारे सामान बेचकर अपनी आजीविका चलाया करते थे। इन सभी से शुल्क लेकर नगर निगम ने विधिवत लाइसेंस जारी कर रखा है। अतिक्रमण हटाने के बहाने ठेला-ठेली वालों उजड़ा जा रहा है। अवैध टोटो और टैंपो वालों को पूरा सड़क घेरने की आजादी है, क्योंकि ज्यादातर गाड़ियां दरोगाओं और सिपाहियों की हैं। हम लोग न केवल अपने लिए, बल्कि अपने परिवार के लिए भी जीवन यापन कर रहे हैं।

रेहड़ी पटरी आजीविका संरक्षण बिल 2013 की चर्चा करते हुए सेठ ने कहा, “यह कानून केवल कागजों में ही है। इसका सही क्रियान्वयन न होने के कारण, गरीब रेहड़ी-पटरी वाले आज भी शोषण का शिकार हो रहे हैं। सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने नागरिकों की जीविका की रक्षा करे, न कि उन्हें और कठिनाइयों में डाल दे। बनारस में रेहड़ी-पटरी वालों का आंदोलन इस बात का प्रतीक है कि जब शासन-प्रशासन संवेदनहीन हो जाता है, तो समाज का यह वर्ग अपनी आवाज उठाने के लिए मजबूर होता है। अगर सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेगी, तो न केवल ये छोटे व्यापारी, बल्कि बनारस की संस्कृति और आर्थिक ढांचा भी खतरे में पड़ सकता है। यह समय है कि प्रशासन अपनी नीतियों में सुधार करे और रेहड़ी-पटरी वालों को एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दे।”

बनारस के रेहड़ी-पटरी वालों की स्थिति पिछले कुछ वर्षों में अत्यंत कठिन हो गई है। इस समुदाय ने अपने जीवन के लिए संघर्ष करते हुए जो मेहनत की है, वह अब सरकारी नीतियों के कारण खतरे में है। इन लोगों को उम्मीद थी कि केंद्र सरकार और यूपी सरकार की पथ विक्रेता अधिनियम 2014 के माध्यम से उन्हें काम करने में राहत मिलेगी, लेकिन पिछले आठ सालों में भाजपा के नेतृत्व वाली डबल इंजन की सरकार इसे लागू करने में पूरी तरह से विफल रही है। बनारस में, कई बार देखा गया है कि पुलिस और नगर निगम के अधिकारी इन रेहड़ी-पटरी वालों को जबरन हटाते हैं। कभी-कभी तो उनके सामान को सड़क पर फेंक दिया जाता है, और कई बार पुलिस उनकी रेहड़ियों को गाड़ियों में भरकर ले जाती है। इस प्रकार के कृत्यों ने न केवल उनके जीवन को मुश्किल बना दिया है, बल्कि उनके सम्मान को भी ठेस पहुंचाई है।

ठेला-ठेली, रेहड़ी-पटरी वालों की लड़ाई लड़ रहे धनंजय त्रिपाठी सरकार पर आरोप लगाते हुए कहते हैं, “बीजेपी सरकार बड़े पूंजीपतियों के इशारे पर काम कर रही है। एक ओर तो सरकार गरीब रेहड़ी-पटरी वालों को हटा रही है, वहीं दूसरी ओर खुदरा व्यापार में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को छूट देकर वालमार्ट जैसी बड़ी कंपनियों को अनुकूल माहौल बना रही है। यह न केवल बाजार में प्रतिस्पर्धा को प्रभावित कर रहा है, बल्कि छोटे व्यापारियों के लिए अस्तित्व की चुनौती भी पेश कर रहा है। सरकार को रेहड़ी-पटरी वालों का आभार मानना चाहिए, क्योंकि ये लोग स्वरोजगार के माध्यम से बेरोजगारी की समस्या से निपटने में सरकार की मदद कर रहे हैं। यह समुदाय न केवल अपनी जीविका कमा रहा है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी एक महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।”
बढ़ा रही भुखमरी की समस्या
बनारस, जिसे हम सभी जानते हैं, दुनिया भर में भारत का एक खास नाम है। यहां का बीएचयू जो ज्ञान और दर्शन का केंद्र रहा है, ने भारत को विश्वगुरु बनने का गौरव दिया। लेकिन जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि हजारों सालों की इस यात्रा में भारत आर्थिक और सामाजिक रूप से बहुत पीछे रह गया है। आजकल जब हम देशों की रैंकिंग की बात करते हैं, तो भारत का नाम अक्सर चिंता के साथ लिया जाता है। इसकी वजहें तो कई हैं, जैसे बेरोजगारी, भुखमरी, बीमारी, और अशिक्षा। हाल के सालों में बहुत से लोगों ने अपने रोजगार और आजीविका के साधन खो दिए हैं। न केवल उनका आर्थिक दबाव बढ़ा है, बल्कि उन पर शोषण और उत्पीड़न का भी खतरा बढ़ गया है। भारत की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है, जहाँ लोग अपने काम को खुद से चलाते हैं। हालांकि, यह काम कई पीढ़ियों से चलता आ रहा था, अब इस क्षेत्र पर खतरा बढ़ गया है।
पटरी दुकानदारों के हितों की लड़ाई लड़ रहे एक्टिविस्ट नंदलाल मास्टर कहते हैं, “ठेला-पटरी और गुमटी में रोजी-रोटी चलाने वालों को लगातार उजाड़ा जा रहा है। जैसे-जैसे उन्हें हटाया जा रहा है, बड़े-बड़े मॉल और प्रतिष्ठान तेजी से बढ़ रहे हैं। खासकर पटरी पर व्यवसाय करने वाले लोग, जिन्हें कभी भी हटाया जा सकता है, इस समस्या का शिकार बनते जा रहे हैं। इन पर कभी भी पुलिस का डंडा चल सकता है, और उनके ठेले या दुकानों को जब्त किया जा सकता है। बनारस में साफ-सफाई के नाम पर पटरी व्यवसायियों को उजाड़ना अब एक सामान्य प्रक्रिया हो गई है। इनमें सबसे ज्यादा दुर्दशा उन लोगों की होती है, जो अवैध वसूली के शिकार बनते हैं। जो लोग वसूली करने वाले गिरोह को पैसे देते हैं, वे अपना काम जारी रखते हैं, लेकिन जो इस प्रक्रिया में पीछे रह जाते हैं, उन्हें भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।”
असल में, बनारस शहर की 80 फीसदी स्थायी दुकानें अपनी जगहों पर पटरियों पर थोड़ी बहुत जगह घेरकर रखी गई हैं। यह सब कुछ नेताओं के समर्थन के चलते होता है। पिछले दस सालों में मध्यम व्यवसायियों में से ज्यादातर भाजपा के समर्थक बन चुके हैं। लेकिन पटरी पर काम करने वाले वेंडरों की स्थिति अलग है। वे भी सत्ता के करीब जाने की कोशिश में कुछ चंदा देते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे बेरहमी से उजाड़ दिए जाते हैं।

हाल ही में लंका थाने की एक घटना ने इस समस्या को और उजागर किया। पिछले डेढ़ महीने से लंका थाने के इंस्पेक्टर द्वारा सर सुंदर लाल अस्पताल के पास दुकानदारों को मारा-पीटा गया और उनकी दुकानों को तोड़ा गया। इस तरह उन्हें अपनी आजीविका से वंचित कर दिया गया। इसी के खिलाफ, स्ट्रीट वेंडर्स ने 14 अक्टूबर से अनिश्चितकालीन धरना शुरू किया है।
पथ विक्रेताओं का सर्वेक्षण और प्रमाणपत्र
अधिनियम के अनुसार, पथ विक्रेताओं का सर्वेक्षण किया जाना चाहिए और उन्हें प्रमाण पत्र जारी किया जाना चाहिए। यह प्रमाण पत्र विक्रेताओं को कानूनी रूप से सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे उन्हें यह अधिकार मिलता है कि बिना किसी उचित प्रक्रिया के उन्हें हटाया नहीं जा सकता। सर्वेक्षण पूरा होने तक किसी भी पथ विक्रेता को नहीं हटाया जा सकता, और उन्हें अपनी जीविका जारी रखने की अनुमति दी जाती है।

अधिनियम के अंतर्गत, पथ विक्रेताओं का स्थानांतरण एक अंतिम उपाय के तौर पर देखा गया है, जिसे केवल नगर पथ विक्रय समिति की सिफारिश के आधार पर ही किया जा सकता है। किसी भी पथ विक्रेता को हटाने से पहले 30 दिनों की पूर्व सूचना देना अनिवार्य है, और बिना किसी ठोस कारण के किसी पथ विक्रेता का स्थानांतरण अवैध माना जाएगा।
धारा 29 के तहत, यह अधिनियम पथ विक्रेताओं को पुलिस और अन्य अधिकारियों के उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करता है। यदि कोई अधिकारी किसी पथ विक्रेता का सामान जब्त करता है, तो विनाशशील वस्तुओं को दो दिनों के भीतर छोड़ा जाना चाहिए, और नष्ट होने वाली वस्तु को उसी दिन लौटाया जाना चाहिए, जिस दिन उसका दावा किया गया है। यदि किसी वस्तु की हानि होती है, तो उसकी क्षतिपूर्ति की जाएगी।

अधिनियम में ‘प्राकृतिक बाजार’ (जहां विक्रेता और ग्राहक नियमित रूप से मिलते हैं) को संरक्षित करने की बात कही गई है। ऐसे बाजार जो 50 वर्षों से संचालित हो रहे हैं, उन्हें ‘विरासत बाजार’ घोषित किया जाएगा और इनका पुनर्स्थापन नहीं किया जाएगा। किसी भी विवाद की स्थिति में, अधिनियम ने एक स्वतंत्र विवाद निवारण तंत्र की स्थापना की है, जिसका नेतृत्व एक सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी करता है। इस तंत्र का उद्देश्य पथ विक्रेताओं और प्रशासन के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों का निष्पक्ष समाधान करना है।
14 जून 2021 को उत्तर प्रदेश सरकार के अपर प्रमुख सचिव ने सभी जिलाधिकारियों और नगर आयुक्तों को निर्देशित किया कि यदि पथ विक्रय अधिनियम 2014 और उत्तर प्रदेश पथ विक्रय (जीविका संरक्षण एवं विनियमन) नियमावली 2017 का उल्लंघन करते हुए किसी पथ विक्रेता को अवैध रूप से प्रताड़ित किया जाता है या बेदखल किया जाता है, तो संबंधित निकाय कर्मी या पुलिसकर्मी के खिलाफ सख्त दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। यह निर्देश उन बढ़ती घटनाओं के बाद दिया गया था, जहां पथ विक्रेताओं को अवैध रूप से हटाया जा रहा था, जिससे उनका व्यवसाय बाधित हो रहा था और ‘पीएम स्वनिधि योजना’ के तहत लिए गए ऋण की अदायगी में कठिनाई हो रही थी।
पुलिस की भूमिका और जिम्मेदारी
18 मई 2021 को भारत सरकार के आवासन एवं शहरी कार्य मंत्रालय द्वारा जारी एक पत्र में निर्देश दिया गया कि चिन्हित शहरी पथ विक्रेताओं की सूची संबंधित पुलिस थानों में उपलब्ध कराई जाए। पुलिस आयुक्तों, पुलिस अधीक्षकों और नगर आयुक्तों को निर्देशित किया गया कि वे पथ विक्रेताओं के अवैध उत्पीड़न और बेदखली के मामलों के प्रति संवेदनशील रहें। बावजूद इसके, कई क्षेत्रों में, खासकर बनारस जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में, इन निर्देशों का पालन नहीं किया गया है।
अधिनियम और सरकारी योजनाओं का जो उद्देश्य है, वह कागजों पर तो काफी सराहनीय है, लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति बिल्कुल विपरीत है। पथ विक्रेताओं को अवैध रूप से हटाने की घटनाएं लगातार जारी हैं, जिससे उनकी रोजी-रोटी प्रभावित हो रही है। सरकार के बड़े-बड़े विज्ञापनों में ‘पीएम स्वनिधि योजना’ की बातें तो होती हैं, लेकिन ये योजनाएं उन विक्रेताओं के लिए बहुत कम फायदेमंद साबित हो रही हैं, जिन्हें बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के हटाया जा रहा है।
17 मई 2022 को निदेशक, स्थानीय निकाय, उत्तर प्रदेश ने सभी नगर आयुक्तों को स्पष्ट निर्देश दिए कि पथ विक्रेताओं के लिए नगर पथ विक्रय समिति की साल में कम से कम 4-5 बैठकें होनी चाहिए। इस समिति के फैसलों के आधार पर ही पथ विक्रेताओं का स्थानांतरण और बेदखली की जानी चाहिए। जब तक पथ विक्रेताओं का सर्वेक्षण पूरा नहीं हो जाता और उन्हें आधिकारिक प्रमाणपत्र जारी नहीं किए जाते, तब तक किसी को भी बेदखल नहीं किया जाएगा। इसके अलावा, अगर पथ विक्रेताओं को किसी स्थान से हटाना ज़रूरी हो, तो नगर पथ विक्रय समिति से चर्चा कर उनके लिए एक नए विक्रय क्षेत्र का विकास किया जाएगा।
सरकारी दावा और हकीकत में फर्क
2014 में यूपीए सरकार ने रेहड़ी-पटरी वालों के अधिकारों के संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण कानून बनाया था-रेहड़ी-पटरी अधिनियम। यह कानून पूरे देश में लागू किया गया, ताकि छोटे व्यापारियों को लाइसेंस प्राप्त करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने का अधिकार मिल सके। अधिनियम के अनुसार, लाइसेंस लेकर सड़क किनारे व्यापार करना कानूनी है। इस कानून का उद्देश्य था कि इन छोटे व्यापारियों को उजाड़ने के बजाय उन्हें व्यवस्थित और नियमित किया जाए।
तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने पथ विक्रेता (जीविका संरक्षण और विनियमन) अधिनियम लागू करते हुए पथ विक्रेताओं को प्रमाण पत्र दिए जाने तक उन्हें न हटाने का प्रावधान किया गया था। इस अधिनियम के तहत, पथ विक्रय समितियों में 40 फीसदी सदस्य खुद पथ विक्रेता होते हैं। किसी भी विक्रेता को बेदखल करने से पहले 30 दिनों की नोटिस देना अनिवार्य होता है, और इसका उल्लंघन कानूनी तौर पर अवैध माना जाता है। बनारस में इन प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। नगर निगम और पुलिस अधिकारियों द्वारा बिना किसी सूचना के इन विक्रेताओं के ठेले हटाए जा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पथ विक्रेताओं के पक्ष में एक अहम फैसला देते हुए कहा था कि न सिर्फ भारत, बल्कि विकसित देशों में भी सड़कों के किनारे दुकानें देखी जाती हैं। इन दुकानों को हटाने की बजाय इन्हें नियमित करने की ज़रूरत है। लेकिन यह उद्देश्य अब भी अधूरा है, क्योंकि स्थानीय निकाय सीमित संख्या में ही लाइसेंस जारी करते हैं। और इन लाइसेंस को पाने के लिए जो प्रक्रियाएं और शर्तें रखी जाती हैं, वे हर छोटे व्यापारी के लिए पूरी करना मुमकिन नहीं होता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के सांसद के रूप में कई योजनाओं की शुरुआत की, जिनमें रेहड़ी-पटरी वालों के लिए ‘प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना’ भी शामिल है। इस योजना के तहत रेहड़ी-पटरी वालों को छोटे कर्ज़ दिए जाते हैं, ताकि वे अपना व्यवसाय सुचारू रूप से चला सकें। लेकिन वाराणसी में हालात कुछ और ही बयां कर रहे हैं।
वाराणसी के कई इलाके, जैसे लंका, गोदौलिया, और नरिया रोड, जहां दशकों से रेहड़ी-पटरी वाले अपना व्यवसाय चला रहे थे, अब वहां प्रशासन के कड़े कदमों की वजह से इन छोटे व्यापारियों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। विशेष रूप से जबसे वाराणसी में जी-20 जैसे अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम हुए हैं, प्रशासन ने शहर को साफ-सुथरा और सुव्यवस्थित दिखाने के लिए ठेले वालों को बिना कोई नोटिस दिए हटा दिया।
दरअसल, 28 दिसंबर 2023 को अचानक पुलिस और नगर निगम के अधिकारी बिना कोई चेतावनी दिए आए और 20 से ज़्यादा ठेले और उनका सामान जब्त कर लिया था। अक्टूबर 2023 में अपर जिलाधिकारी ने एक आदेश जारी किया, जिसमें पथ विक्रय अधिनियम 2014 और उत्तर प्रदेश की 2017 की नियमावली को नजरअंदाज करते हुए लिखा गया कि लंका-नरिया मार्ग पर वीआईपी लोगों की आवाजाही और चौराहे पर भीड़-भाड़ के कारण वहां ठेला लगाना प्रतिबंधित है। इसके बाद से लंका के पथ विक्रेताओं की हालत और खराब हो गई है। जब नगर निगम से पूछा गया कि इन लोगों को क्यों परेशान किया जा रहा है, तो उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में दशकों से ठेला लगाकर अपना जीवन यापन कर रहे रेहड़ी-पटरी वाले आज अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं। जी-20 सम्मेलन के आयोजन के बाद से स्थिति और भी खराब हो गई है। 28 दिसंबर 2023 को पुलिस और नगर निगम के अधिकारियों ने बिना किसी पूर्व सूचना के करीब 20 ठेले और उनका सामान जब्त कर लिया था। जहां एक तरफ सरकार ‘पीएम स्वनिधि योजना’ के माध्यम से छोटे व्यवसायियों की सहायता करने का दावा करती है, वहीं बनारस के इन पथ विक्रेताओं की वास्तविकता कुछ और ही बयां कर रही है।
बनारस के एक्टिविस्ट बल्लभ पांडेय कहते हैं, “कई रेहड़ी-पटरी वाले, जिनके पास वैध लाइसेंस और नगर निगम द्वारा जारी प्रमाणपत्र हैं, उन्हें भी बेदखली का सामना करना पड़ा है। वाराणसी के लंका क्षेत्र के पथ विक्रेताओं का कहना है कि उनके पास 2019 के सर्वेक्षण के प्रमाणपत्र हैं, और उन्हें प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के तहत ऋण भी मिला है। इसके बावजूद उन्हें अपनी दुकाने हटानी पड़ीं। यहां तक कि जब प्रधानमंत्री का दौरा होता है, तो इन पथ विक्रेताओं को हफ्तों तक अपने ठेले हटाने पड़ते हैं। इस कारण उनका व्यापार बुरी तरह प्रभावित होता है। जो लोग रोज़ के कमाने-खाने वाले हैं, उनके लिए ये बाधाएं आर्थिक तंगी का कारण बन रही हैं।”
सरकारी नीतियों का प्रभाव
लंका से नरिया मार्ग पर स्थित लगभग 50 रेहड़ी-पटरी वालों का इतिहास दशकों पुराना है। उनके पास काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा जारी 1985 की रसीदें भी हैं, जो यह साबित करती हैं कि वे लंबे समय से यहां अपना व्यवसाय चला रहे हैं। इन पथ विक्रेताओं का मुख्य ग्राहक वर्ग विश्वविद्यालय के पास स्थित सर सुंदरलाल अस्पताल के मरीज और तीमारदार हैं, जिन्हें ये जरूरी सामान उपलब्ध कराते हैं।
21 अक्टूबर 2023 को, प्रशासन ने अति विशिष्ट व्यक्तियों की आवाजाही का हवाला देते हुए एक पत्र जारी किया, जिसमें पथ विक्रेताओं को लंका-नरिया मार्ग से हटाने का आदेश दिया गया। यह कदम पथ विक्रेताओं के लिए एक बड़ी मार साबित हुआ, क्योंकि प्रशासन ने पथ विक्रेता अधिनियम 2014 के नियमों की अनदेखी की। यहां तक कि पीएम स्वनिधि योजना के तहत भी इन पटरी व्यवसायियों को लोन दिया गया था, ताकि वे अपनी आजीविका चला सकें। लेकिन लंका पुलिस ने उन्हें उजाड़ दिया।

समाजवादी चिंतक विजय नारायण कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, रेहड़ी-पटरी वालों को शहर के ताने-बाने का हिस्सा मानते हुए उन्हें उजाड़ने की बजाय उनके व्यापार को नियमित करने की ज़रूरत है। अगर वाराणसी जैसे प्रमुख शहर में यह समस्या बनी रहेगी, तो अन्य जगहों का क्या हाल होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। सरकार की ओर से चाहे जितने भी निर्देश दिए गए हों, परन्तु बनारस में पथ विक्रेताओं को इनका लाभ नहीं मिल पा रहा है। उत्तर प्रदेश के अपर प्रमुख सचिव ने 2021 में ही जिलाधिकारियों और नगर आयुक्तों को निर्देश दिए थे कि किसी भी पथ विक्रेता को बिना उचित प्रक्रिया के हटाया नहीं जाएगा। इसके बावजूद, यहां पथ विक्रेताओं के साथ अवैध रूप से बर्ताव किया जा रहा है।”
“बनारस में रेहड़ी-पटरी वालों के लिए बनी नीतियां और योजनाएं कागजों पर तो प्रभावी दिखती हैं, लेकिन ज़मीन पर उनका असर कुछ और ही है। योजनाओं के रंगीन विज्ञापन और वास्तविकता के बीच बड़ा अंतर है। मोदी सरकार के ‘स्वनिधि योजना’ जैसे प्रयास इन व्यापारियों के लिए थोड़ी राहत लाए हैं, लेकिन जब तक स्थानीय निकाय और प्रशासन उन्हें व्यापार के लिए स्थायी और सुरक्षित जगह नहीं देंगे, उनकी समस्याएं हल नहीं होंगी। जब से नरेंद्र मोदी वाराणसी से सांसद बने हैं, इन विक्रेताओं के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं। प्रधानमंत्री के हर दौरे के दौरान इनके ठेले हटवा दिए जाते हैं, जिससे उन्हें बड़े आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है। रेहड़ी-पटरी वालों के लिए एक स्थायी समाधान की सख्त ज़रूरत है, ताकि वे भी बिना किसी डर और दबाव के अपना व्यवसाय कर सकें और उनके परिवारों को सुरक्षित भविष्य मिल सके।”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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