42 वर्ष पूर्व 1977 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल जगरनाथ कौशल के द्वारा कोनार सिंचाई परियोजना की आधारशिला रखी गई थी। योजना की शुरुआत 11.3 करोड़ की लागत से की जानी थी। तब झारखंड का गठन नहीं हुआ था अलबत्ता अलग राज्य की मांग को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन जरूर हो चुका था।
झारखंड अलग राज्य की अवधारणा
1912 में जब बंगाल से बिहार को अलग किया गया, तब उसके कुछ वर्षों बाद 1920 में बिहार के पाठारी इलाकों के आदिवासियों द्वारा आदिवासी समूहों को मिलाकर ‘‘छोटानागपुर उन्नति समाज’’ का गठन किया गया। बंदी उरांव एवं यूएल लकड़ा के नेतृत्व में गठित उक्त संगठन के बहाने आदिवासी जमातों की एक अलग पहचान कायम करने के निमित्त अलग राज्य की परिकल्पना की गई। 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने संथाल परगना के आदिवासियों को जोड़ते हुए ‘आदिवासी महासभा’ का गठन किया। इस सामाजिक संगठन के माध्यम से अलग राज्य की परिकल्पना को ‘झारखंड पार्टी’ के तौर पर राजनीतिक जामा पहनाने का काम उन्होंने 1950 में किया। यहीं से शुरू हुई आदिवासी समाज की अपनी राजनीतिक भागीदारी की लड़ाई। 1951 में देश में जब वयस्क मतदान पर आधारित लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में झारखंड पार्टी एक सबल राजनीतिक पार्टी के रूप में विकसित हुई। 1952 के पहले आम चुनाव में छोटानागपुर व संथाल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं, अत: सभी 32 सीटों पर झारखंड पार्टी का ही कब्जा रहा।
बिहार में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में झारखंड पार्टी उभरी तो दिल्ली में कांग्रेस की चिन्ता बढ़ गई। तब शुरू हुआ आदिवासियों के बीच राजनीतिक दखलंदाजी का खेल। जिसका नतिजा 1957 के आम चुनाव में साफ देखने को मिला। झारखंड पार्टी ने चार सीटें गवां दी। क्योंकि 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग के सामने अलग झारखंड राज्य की मांग रखी गई थी। 1962 के आम चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमटकर रह गई। 1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा ने एक सौदेबाजी के तहत झारखंड पार्टी के सुप्रीमो जयपाल सिंह मुंडा को उनकी पार्टी के तमाम विधायकों सहित कांग्रेस में मिला लिया। एक तरह से झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। शायद पहली बार राजनीतिक में खरीद-फरोख्त की संस्कृति का आदिवासी नेताओं में प्रवेश हुआ। झारखंड अलग राज्य के आंदोलन ने यहीं आकर दम तोड़ दिया।
1966 में अलग राज्य की अवधारणा फिर से फूटी। जब ‘‘अखिल भारतीय अदिवासी विकास परिषद’’ तथा ‘‘सिद्धू-कान्हू बैसी’’ का गठन किया गया। 1967 के आम चुनाव में ‘‘अखिल भारतीय झारखंड पार्टी’’ का गठन हुआ। मगर चुनाव में कोई सफलता हाथ नहीं लगी। 1968 में ‘‘हुल झारखंड पार्टी’’ का गठन हुआ। इन तमाम गतिविधियों में अलग राज्य का सपना समाहित था। जिसे तत्कालीन शासन तंत्र ने कुचलने के लिए कई तरकीब आजमाए। 1969 में ‘बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम 1969’ बना। 1970 में ईएन होरो द्वारा पुनः झारखंड पार्टी का गठन किया गया। 1971 में जयराम हेम्ब्रम द्वारा सोनोत संथाल समाज का गठन किया गया। 1972 में आदिवासियों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या 32 से घटाकर 28 कर दी गयी। इसी बीच, शिबू सोरेन आदिवासियों के बीच एक मसीहा के रूप में उभरे। महाजनी प्रथा के खिलाफ उस समय उभरे आन्दोलन ने तत्कालीन सरकार को हिला कर रख दिया।
शिबू आदिवासियों के भगवान बन गये। शिबू की आदिवासियों के बीच बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए वामपंथी चिंतक और मार्क्सवादी समन्वय समिति के संस्थापक कामरेड एके राय और झारखंड अलग राज्य के प्रबल समर्थक विनोद बिहारी महतो द्वारा 4 फरवरी 1973 को झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ और मोर्चा की कमान शिबू सोरेन को थमा दी गयी। इस तरह से महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन अब अलग झारखंड राज्य की मांग में परिणत हो गया।
1977 में शिबू सोरेन लोकसभा का चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंच गये। पार्टी के क्रियाकलापों एवं वैचारिक मतभेदों को लेकर पार्टी के भीतर अंतर्कलह बढ़ता घटता रहा। पार्टी कई बार बंटी मगर शिबू की अहमियत बरकरार रही। उनकी ताकत व कीमत में बराबर इजाफा होता रहा। उन्हें दिल्ली रास आ गयी। सौदेबाजी में भी गुरू जी यानी शिबू सोरेन प्रवीण होते गये। अलग राज्य की मांग पर सरकार के नकारात्मक रवैये को देखते हुए 1985 में कतिपय बुद्धिजीवियों ने केन्द्र शासित राज्य की मांग रखी। अलग राज्य के आंदोलन में बढ़ते बिखराव को देखते हुए झामुमो द्वारा 1986 में ”आल झारखंड स्टूडेंटस् यूनियन” (आजसू) का तथा 1987 में ”झारखंड समन्वय समिति” का गठन किया गया। इन संगठनों के बैनर तले इतना जोरदार आंदोलन चला कि एक बारगी लगा कि मंजिल काफी नजदीक है। मगर ऐसा नहीं था। शासन तंत्र ने इन आंदोलनों को किसी तरह का तवज्जो नहीं दिया।
भाजपा ने भी 1988 में वनांचल अलग राज्य की मांग रखी। 1994 में तत्कालीन लालू सरकार के शासन में ”झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद विधेयक” पारित किया गया। जिसका अध्यक्ष शिबू सोरेन को बनाया गया। 1998 में केन्द्र की भाजपा सरकार ने अलग वनांचल राज्य की घोषणा की। अलग झारखंड राज्य आंदोलन के पक्षकारों के बीच झारखंड और वनांचल शब्द को लेकर एक नया विवाद शुरू हो गया। भाजपा पर यह आरोप लगाया जाने लगा कि वह झारखंड की पौराणिक संस्कृति पर संघ परिवार की संस्कृति थोप रही है। शब्द को लेकर एक नया आंदोलन शुरू हो गया। अंततः वाजपेयी सरकार में 2 अगस्त 2000 को लोक सभा में अलग झारखंड राज्य का बिल पारित हो गया। 15 नवम्बर 2000 को देश के और दो राज्यों छत्तीसगढ़ व उत्तरांचल अब उत्तराखंड सहित अलग झारखंड राज्य का गठन हो गया।

इस बीच, बिहार में कई सरकारें आईं और गईं मगर किसी शासन ने कोनार की इस महत्वाकांक्षी परियोजना की सुध नहीं ली और जब राज्य गठन के 19 वर्षों बाद रघुवर सरकार की इस परियोजना पर नजर गई तो भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण काफी हड़बड़ी में इस पर काम शुरू हुआ। और आनन-फानन में इसका उद्घाटन इसलिए कर दिया गया क्योंकि आगामी नवंबर में विधानसभा का चुनाव है और कभी भी इसकी घोषणा के साथ आचार संहिता लग सकती है। इसी कारण राज्य के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने पिछली 28 अगस्त को पूर्वाह्न 11.30 बजे इसका उद्घाटन किया। अभी वह अपनी इस राजनीतिक सफलता को पूरी तरह इंज्वाय भी नहीं कर पाए थे कि रात करीब 1.30 बजे उसका तटबंध (मेड़) बह गया।
बताते चलें कि 42 वर्ष पूर्व 1977 की 11.3 करोड़ की लागत वाली यह योजना जो अब बढ़कर 2176.25 करोड़ रुपये की हो गई थी। इससे हजारीबाग, गिरीडीह के 85 गांवों की 62.895 हेक्टेयर भूमि सिचिंत होनी थी।
बगोदर प्रखंड के घोसको गांव के पास नहर की मेड़ व तटबंध टूट कर बहने से आस-पास के दर्जनों किसानों की मकई, मूंगफली व धान की फसल बर्बाद हो गयी है। जबकि नहर में पानी आने से इस क्षेत्र के हज़ारों किसानों के दिलों में खुशियां थीं, मगर यह चंद घंटों की ही मेहमान रहीं।
तटबंध टूटने के कारणों पर स्थानीय लोगों ने नहर निर्माण में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया है। वहीं स्थानीय किसानों ने बर्बाद फसलों का हर्जाना मांगा है। नहर के तटबंध टूटने से बहे पानी ने मिट्टी से खेतों में लगी फसल को ढंक दिया है। इससे दर्जनों किसानों के खेतों में लगी लाखों रुपये कीमत की फसलें बर्बाद हो गयी हैं।

किसान बिशुन पंडित बताते हैं कि विभाग की लापरवाही से नहर टूटा है। वे नहर के नीचे अपनी जमीन पर चाहरदीवारी देकर मूंगफली की फसल लगाये हुए थे। साथ ही रहने के लिए घर भी बनाये थे। तटबंध टूटने से फसल पूरी तरह बर्बाद हो गयी है और चाहरदीवारी पानी में बह गया है। घर में भी पानी घुस गया। किसान मो0 सिराज, जमाल अंसारी, मोहनी देवी पर फसलों की बर्बादी बहुत तगड़ा झटका लगा है। ये लोग अब मुआवजे की मांग कर रहे हैं।
वहीं भाजपा के बगोदर विधायक नागेंद्र महतो कहते हैं कि 40 वर्षों के बाद नहर में पानी आया है इसी कारण मेड़ टूटी है। इस मामले को लेकर चीफ इंजीनियर अशोक कुमार से बात कर तत्काल नहर के टूटे तटबंध की मरम्मत का निर्देश दिया गया है। साथ ही तटबंध टूटने के बाद जो भी किसानों की क्षति हुई है उसकी भरपायी के लिए मुआवजे को लेकर विभाग से बात की गयी है।
वहीं पूर्व विधायक विनोद कुमार सिंह ने विभाग और सरकार को कोसते हुए कहा कि नहर के उद्घाटन में जल्दबाजी की गई है। 22 सौ करोड़ की लगात से निर्मित नहर में किसानों को 22 रुपये का लाभ नहीं हुआ, लेकिन लाखों रुपये का नुकसान हो गया है। 2 सौ किमी नहर बनाना था जो मात्र 60 किमी बना और आगे रास्ता बंद कर दिया। जाहिर है कि आगे पानी की निकासी नहीं थी, कहीं न कहीं नहर टूटना था। क्योंकि उद्घाटन के पहले दो तीन बार पानी छोड़ा गया था। जिससे पहले से नहर में पानी लबालब भरा हुआ था। उद्घाटन के बाद भी पानी छोड़ा गया।

इस घटना में शर्मनाक बात यह रही कि कोनार नहर परियोजना की नहर टूटने व फसल नष्ट होने की घटना की प्रारंभिक जांच में तटबंध टूटने के लिए चूहों को जिम्मेवार ठहराया गया है। मुख्य अभियंता द्वारा अपर मुख्य सचिव को सौंपी गयी प्रारंभिक रिपोर्ट में रैट होल्स (चूहे के बिल) की वजह से घटना की आशंका जतायी गयी। जिसका सोशल मीडिया पर खूब मजाक बनाया गया। तब जाकर अपर मुख्य सचिव अरुण कुमार सिंह ने जल संसाधन विभाग के मुख्य अभियंता के नेतृत्व में उच्चस्तरीय समिति गठित किया।
जैसा कि इस तरह के मामलों में होता आया है। लापरवाही ऊपर की और गाज निचले अधिकारियों पर गिरता रहा है। जल संसाधन विभाग के मुख्य अभियंता ने घटना की जांच कर अपर मुख्य सचिव अरुण कुमार सिंह को रिपोर्ट सौंपी है और विभाग के चार अभियंताओं को मामले में दोषी मानते हुए उन पर कार्रवाई की जा रही है। एक अधीक्षण अभियंता विद्यानंद सिंह, सहायक अभियंता राहुल कुमार माल्टो और दो कनीय अभियंता विनोद कुमार व पिंकू कुमार शर्मा को निलंबित करने का आदेश दिया गया है।
अपर मुख्य सचिव अरुण कुमार सिंह ने कहा कि नहर की मरम्मत शुरू कर दी गयी है। मरम्मत कार्य पूरा होते ही नहर में पानी फिर से छोड़ा जायेगा। इसके अलावा घटना से प्रभावित किसानों की भी सहायता की जा रही है। अभियंताओं को प्रभावित किसानों से मिल कर नुकसान की भरपाई करने का प्रयास करने को कहा गया है।
कोनार सिंचाई परियोजना की नहर की तरह ही पलामू जिले के चैनपुर प्रखंड अंतर्गत बुटनडूभा डैम से निकली नहर (कैनाल) एक बरसात को भी झेल नहीं पायी। 12 करोड़ की लागत से बनी इस नहर परियोजना में नियम विरुद्ध और गुणवत्ता को ताक पर रख कर निर्माण कार्य किया गया। नतीजा एक बारिश में ही नहर कई जगहों पर टूट गयी।
पूर्व से बह रहे नाला, आहर और पहाड़ के पानी की ठोस से निकास नहीं की गयी। जैसे-तैसे छोटे-छोटे पाइप देकर नहर बना दी गयी। पिछले दिनों जब तेज बारिश हुई तो पानी निकलने के सारे साधन बंद नजर आये। नाला और आहर का पानी भरते-भरते कैनाल को ओवरफ्लो कर गया। काफी देर रुकने के बाद अचानक कैनाल को तोड़ कर पानी बहने लगा, तेज बहाव के कारण कैनाल तो कई जगहों पर टूटा ही सारा पानी चांदो गांव में घुस गया। इससे आधा दर्जन घर कई दिनों तक पानी में डूबे रहे।
इस बाबत चांदो गांव के ग्रामीण बताते हैं कि उनके गांव में आज तक बरसात का पानी नहीं घुसा। इस वर्ष नहर बना है। नहर का निर्माण ढंग से नहीं किया गया। बरसात के पानी की निकासी के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी गयी। पिछले दिनों तेज बारिश होने पर अचानक रात में गांव में पानी घुस गया। इससे उनके घर दो से तीन दिनों तक डूबे रहे। उनकी सुधि तक लेने वाला आज तक कोई नहीं आया। कई मकान भी तेज बहाव में क्षतिग्रस्त हो गये।
यह हाल है इस 19 वर्षों के झारखंड का।
(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल बोकारो में रहते हैं।)