इंडिया गठबंधन के वर्तमान और भविष्य को लेकर तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।इसमें सबसे चर्चित तो यही है कि गठबंधन बिखराव की ओर है। क्या ऐसा सचमुच होगा ?
दरअसल लोकसभा चुनाव के दौरान गठबंधन ने जिस तरह की सफलता पाई उसे संतोषजनक माना गया था। उसने भाजपा के 400पार के मनसूबे को ध्वस्त कर दिया था। शायद जिसे हासिल करने के बाद, जैसा उसके कई नेताओं ने मंशा जाहिर की थी, वे संविधान में भारी उलट फेर करते। बहरहाल इंडिया गठबंधन ने उसे सामान्य बहुमत से भी 32सीट नीचे रोक दिया।
अंततः भाजपा को नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू की बैसाखियों के सहारे सरकार बनाना पड़ा। संविधान में किसी बड़े उलट फेर की संभावना पर विराम लग गया। यह इंडिया गठबंधन की बड़ी सफलता थी। कई विश्लेषकों का मानना है कि यदि गठबंधन ने कुछ रणनीतिक चूकें न की होतीं, तो संभवतः केंद्र में आज NDA की बजाय इंडिया गठबंधन की सरकार होती।
बहरहाल सफलता के उस ऊंचे मुकाम से लोकसभा के बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन के घटक दलों का ढलान जारी है। या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि भाजपा ने लोकसभा के धक्के से उबर कर फिर bounce back किया है। क्योंकि कई जगह तो इंडिया गठबंधन के दल एक साथ लड़े ही नहीं, बल्कि एक दूसरे को ही सबसे बड़ा दुश्मन मानते रहे। हरियाणा और दिल्ली में तो यही नजारा था।
हरियाणा में कांग्रेस के छत्रपों ने आप को सीट देने की बजाय खुद सब जगह लड़ने का फैसला किया तो दिल्ली में आप ने अकेले लड़ने का फैसला किया। नतीजा दोनों ही जगह विपक्ष धराशाई हो गया और भाजपा की सरकार बन गई। झारखंड में एकजुट इंडिया गठबंधन ने भाजपा गठबंधन को पराजित कर दिया। विशेषकर महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन पराजित भले हुआ लेकिन वहां से लगातार धांधली की ऐसी खबरें आ रही हैं जिसका चुनाव आयोग जवाब नहीं दे पा रहा है।
इससे एक निष्कर्ष तो यह बहुत स्पष्ट है कि जिस तरह के प्रतिद्वंद्वी से पाला पड़ा है, उसमें आपसी एकता में ही विपक्षी गठबंधन की जीत की कोई संभावना है। जाहिर है यह अनिवार्य है लेकिन पर्याप्त नहीं है। गठबंधन से नेताओं के बीच ऊपर ऊपर तो एकता बन जाती है लेकिन जमीनी स्तर पर उनके कार्यकर्ताओं और वोट बैंक की भी एकता बन जाय यह आसान नहीं है।
जनता की जमीनी एकता के लिए जनमुद्दों पर कंधे से कंधा मिलाकर साझे आंदोलनों में एकता जरूरी है। और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि वैकल्पिक नीतियों और मुद्दों को लेकर विपक्षी दलों के बीच आपस में एकता और सामंजस्य हो। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतना समय बीत जाने के बाद भी इंडिया गठबंधन का न कोई मुख्यालय है न कोई मुखिया, वैकल्पिक नीतियों पर एकता की बात तो बहुत दूर की है। आक्रामक अमेरिका और ताकतवर चीन के बीच भारत जिस तरह से फंसा है, उससे निकलने का शायद कोई रास्ता मोदी को सूझ नहीं रहा है।
प्रवासी भारतीयों को अभी जिस तरह हथकड़ी बेड़ी लगाकर अमेरिकी सैन्य विमान से भारत लाया गया है, वह किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए अस्वीकार्य होना चाहिए था, लेकिन भारत सरकार और मोदी उसका कोई प्रतिवाद नहीं किए, उल्टे उसे अमेरिकी कानून के नाम पर justify करते रहे। अमेरिका से आयातित समानों पर tarrif घटाने, उनसे तेल, गैस, युद्धक विमान खरीदने और BRICS से अलग होने का मोदी पर जबरदस्त दबाव बनाने में ट्रंप ने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
दरअसल लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने जो मुद्दा बनाया, वह आंशिक रूप से ही सफल रहा। राहुल गांधी ने सबसे ज्यादा जिस बात पर जोर दिया वह जाति जनगणना और संविधान का सवाल रहा। बेशक इन सवालों का जनता के बीच resonance हुआ, विशेषकर संविधान के सवाल का जिसमें आरक्षण खत्म होने की आशंका शामिल थी।
लेकिन यह अपील अमूर्त और भावनात्मक अधिक रही, ठोस कम। विशेषकर जनता के सामने यह सवाल अनुत्तरित रह गया कि अगर इंडिया गठबंधन की सरकार आती है, तो उससे ठोस क्या लाभ होगा? विशेषकर नई सरकार की आर्थिक नीतियां क्या होंगी ?नव उदारवादी नीतियों के सवाल पर सरकार का क्या स्टैंड होगा? क्योंकि आज जिन सवालों ने जनता को परेशान कर रखा है, वे महंगाई, गिरती आय व मजदूरी तथा बेरोजगारी हैं। जब तक इन सवालों पर कोई कन्विंसिंग जवाब नहीं मिलता है, तब तक जनता संतुष्ट होकर उत्साह के साथ विपक्ष के साथ खड़ी होने वाली नहीं है।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण बिहार विधानसभा का पिछला चुनाव है जब तेजस्वी यादव और महागठबंधन द्वारा उठाए गए नौकरियों के सवाल ने पूरे बिहार के युवाओं में लहर पैदा कर दी थी, युवा समर्थन ने एक उन्माद का स्वरूप ग्रहण कर लिया था। नतीजा भी उसके अनुरूप ही था।तेजस्वी के नेतृत्व में गठबंधन जीत के बिल्कुल नजदीक पहुंच गया था। कुछ रणनीतिक गलतियां हुईं, मसलन सीट बंटवारे में कांग्रेस की बजाय वामपंथ और माले को तरजीह दी गई होती तो शायद परिणाम पलट जाता और महागठबंधन की सरकार बन जाती।
आज भाजपा को कहीं पर हराने के लिए जनता के मुद्दों पर वैसी ही आंदोलनात्मक लहर की जरूरत है। आज रोजगार देश का सबसे बड़ा मुद्दा है जिसको राहुल गांधी समेत विपक्ष के तमाम नेता स्वीकार करते हैं। फिर इसके लिए वैकल्पिक नीतियों पर ठोस काम क्यों नहीं होता ? रोजगार की हालत यह है कि तमाम कोनों से यह मांग उठने के बावजूद कि रोजगार को मौलिक अधिकार बनाया जाय, शहरी क्षेत्रों के लिए भी मनरेगा जैसा कानून बनाया जाय, विपक्ष की इस पर कोई स्पष्ट राय सामने नहीं आ पाई है।
तमाम अर्थशास्त्री यह सुझाव दे रहे हैं कि देश के एक प्रतिशत ऊपरी सुपर रिच तबके पर दो प्रतिशत भी संपत्ति कर लगा दिया जाय तो जनता की रोजगार समेत तमाम न्यूनतम जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। सार्वजनिक क्षेत्र का जिस तरह निजीकरण हो रहा है और सब कुछ अपने चहेते दोस्त को बेचा जा रहा है, उससे सरकारी नौकरियां खत्म हो रही हैं और जब सरकारी नौकरियां ही नहीं रहेंगी तो आरक्षण कहा से मिलेगा? लेकिन निजीकरण को रोकने और उसे पलटने पर विपक्ष की कोई ठोस राय सामने नहीं आई है। क्या इंडिया गठबंधन भी इसी रास्ते पर चलेगा?
दरअसल इंडिया गठबंधन को जनमुद्दों और विश्वसनीय वैकल्पिक नीतियों के पूरे पैकेज के साथ सामने आना होगा।दिल्ली में आप पार्टी के हस्र ने इस बात को फिर साबित कर दिया है कि आप दो नावों की सवारी एक साथ नहीं कर सकते। हिंदुत्व की पिच पर आप भाजपा को पराजित नहीं कर सकते। दरअसल वैकल्पिक नीतियों पर आधारित साझा कार्यक्रम के बिना इंडिया गठबंधन की एक ठोस राजनीतिक शक्ल नहीं उभर सकती। यह सोचना कि यह गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव के लिए था, भी आत्मघाती साबित होगा।यह हरियाणा और दिल्ली के चुनाव ने दिखा दिया है।
आगामी बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश के तीन महत्वपूर्ण चुनावों में भी यह स्वरूप बना रहना आवश्यक है। यह सच है कि इन सभी राज्यों में कई जगह एक ही सामाजिक आधार के लिए विपक्ष के दलों में आपसी प्रतिस्पर्धा है। इसलिए अगर वे आपस में लड़ते हैं तो उस वोट का दोनों में विभाजन होगा और इसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा। लेकिन अगर वे मिलकर लड़ते हैं तो वह विभाजन रुकेगा और दूसरे और मतों को भी आकर्षित करेगा।
जहां तक साझा कार्यक्रम की बात है, तो यह तो एक बड़ा समुच्चय होगा। लेकिन उसका आधार क्या होगा और दिशा क्या होगी, यह साफ है। हमारे संविधान के प्रस्तावना में उल्लिखित स्वतंत्रता, समानता, भाई चारा, इंसाफ और सामाजिक न्याय पर आधारित गणतांत्रिक समाज की रचना इसका मूलाधार होगी। इसके लिए हमारी व्यापक आम जनता के लिए आजीविका, शिक्षा, स्वास्थ्य की गारंटी करना होगा। शिक्षा का कितना बुरा हाल हो गया है।
इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। जिस मध्य प्रदेश में भाजपा बीस साल से शासन कर रही है वहां के 17 सरकारी विश्वविद्यालयों में 81% अध्यापकों की जगह खाली हैं, 5 विश्वविद्यालयों में तो कोई अध्यापक नहीं है। रोजगार का हाल यह है कि आई आई टी से इंजीनियरिंग की डिग्री लिए युवा भी 15-20 हजार की नौकरी के लिए मजबूर हैं। अनायास ही इतनी बड़ी संख्या में भारतीय युवा अमेरिका ब्रिटेन आदि में जाने और बेड़ी जंजीर बांधकर भगाए जाने के लिए अभिशप्त नहीं है। आज भारत दक्षिण अफ्रीका के बाद दुनिया का सर्वाधिक गैर बराबरी वाला देश बन चुका है।
स्वास्थ्य और पर्यावरण का सवाल भी बेहद अहम है। आज विकास के ऐसे रोड मैप की जरूरत है जो कृषि, MSME, रोजगार को सर्वोच्च महत्व देते हुए जनता के मूलभूत सवालों को हल कर सके।
इन वैकल्पिक नीतियों और मुद्दों के साझा कार्यक्रम पर बनने वाली एकता ही स्थाई हो सकती है और जनता के बीच उसकी स्वीकृति हो सकती है। जाहिर है ऐसे इंडिया गठबंधन की आज देश को जरूरत है जो नीतिगत स्तर पर संघ भाजपा के कार्पोरेट हिंदुत्व राज से हमारी जनता और गणतंत्र को मुक्ति दिला सके।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
+ There are no comments
Add yours