भारतीय मीडिया खास कर टेलीविजन के राष्ट्रीय न्यूज चैनल इस वक्त अपने अल्प इतिहास में सार्वकालिक पतन के दौर से गुजर रहे हैं। ताजा मामला है कश्मीर में हुए आतंकवादी हमले को लेकर उसका रवैया। कश्मीर घाटी के बाशिंदों को पिछले एक दशक में जितना बदनाम और भावनात्मक रूप से जितना आहत भाजपा की प्रोपेगेंडा मशीनरी ने नहीं किया है, उससे ज्यादा उन्हें बदनाम करने और उनके जख्मों को कुरेदने का काम देश के इन राष्ट्रीय टीवी चैनलों ने किया है। इसीलिए आमतौर पर इन टीवी चैनलों को भी अब भाजपा के प्रचार तंत्र का हिस्सा ही माना जाने लगा है।
इस समय पहलगाम में आतंकवादियों के हाथों हुए भीषण नरसंहार का मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। हमले के दौरान कई पर्यटकों की जान बचाने में कश्मीर के स्थानीय बांशिदों ने अहम भूमिका निभाई। हमले में मारे गए लोगों के शोकस्वरूप और आतंकवादियों के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार करने के लिए समूचे कश्मीर के लोगों ने ऐतिहासिक रूप से एक दिन के लिए ‘कश्मीर बंद’ रखा।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राज्य की कानून-व्यवस्था को लेकर अपने पास कोई अधिकार नहीं होने के बावजूद विधानसभा का विशेष सत्र बुला कर आतंकवादी हमले के लिए पूरे देश से माफी मांगी। इस सबके बावजूद टीवी चैनलों और कई अखबारों का रवैया कतई सकारात्मक नहीं है। उनका पूरा जोर आतंकवादियों के बहाने कश्मीरियों और पूरे देश के मुसलमानों को अपमानित करने और उनके खिलाफ नफरत का वातावरण तैयार करने और युद्धोन्माद पैदा करने पर है।
टीवी चैनलों का यह रवैया तो छह साल पुराने उस दौर की याद ताजा कर रहा है, जब केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष राज्य का दर्जा खत्म कर और उसका विभाजन कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। तब भी इन टीवी चैनलों ने अपने संवाददाताओं को कश्मीर भेजे बगैर ही कश्मीर के बारे में खूब मनगढंत और बेसिरपैर की खबरें अपने दर्शकों को परोसी थीं।
उस समय विशेष दर्जा खत्म करने के केंद्र सरकार के फैसले से कश्मीर घाटी के बाशिंदे बेहद क्षुब्द और निराश थे। अपना विरोध जताने के लिए उन्होंने कई दिनों तक अपना कामकाज बंद रखा था। समूची कश्मीर घाटी में लॉकडाउन जैसे हालात थे। उसी दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने अपने मित्र और जनचौक के संपादक महेंद्र मिश्र के साथ हालात का जायजा लेने के लिए कश्मीर घाटी की यात्रा की थी। हम लोग वहां एक सप्ताह तक रहे थे।
उस समय तमाम टीवी चैनल और कई अखबार कश्मीर को लेकर ऐसी तस्वीर पेश कर रहे थे मानो वह किसी दूसरे देश का हिस्सा था, जिसे भारत सरकार ने हमला कर जीत लिया है और भारत का हिस्सा बना लिया है। यह बात बार-बार जोर देकर बताई जा रही थी कि अब कोई भी भारतीय वहां आसानी जमीन खरीद सकेगा, वहां बस सकेगा।
यही नहीं, भाजपा के कुछ नेताओं, केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने तो ऐसे भी बयान दिए थे कि अब भारत के दूसरे प्रदेशों के नौजवान कश्मीर से अपने लिए दुल्हन भी ला सकेंगे। ऐसे बेहूदा बयानों को तमाम टीवी चैनल बढ़-चढ़ कर दिखा रहे थे। इसी बात को सोशल मीडिया पर भाजपा का समर्थक वर्ग और भी ज्यादा भद्दे तरीके से प्रचारित कर रहा था, जिससे हर कश्मीरी बुरी तरह आहत और दुखी था, वह अपने को अपमानित महसूस कर रहा था। उसका ऐसा महसूस करते हुए दुखी होना स्वाभाविक भी था।
तमाम बेखबरी टीवी चैनल रोजाना पुराने फुटेज और सरकारी दावों के आधार पर ही बता रहे थे कि कश्मीर घाटी में जनजीवन लगातार सामान्य हो रहा है, लेकिन श्रीनगर पहुंच कर हवाई अड्डे से बाहर निकलने के बाद हमने पाया था कि कहीं कुछ सामान्य नहीं है। उस दिन कश्मीर में जनता द्वारा लागू लॉकडाउन का 32वां दिन था। डिजिटल इंडिया में उस ‘नए कश्मीर’ का जनजीवन बगैर मोबाइल फोन और इंटरनेट के पूरे 33 दिन से अपाहिज बना हुआ था।
हमने एक हफ्ते वहां रहते हुए देखा था कि सरकारी स्कूल-कॉलेज खुल रहे हैं लेकिन वहां पढ़ने वाले बच्चे नदारद हैं। सरकारी परिवहन के साधन बंद थे। सरकारी दफ्तर, बैंक आदि भी खुलते थे लेकिन उनमें सन्नाटा पसरा रहता था। होटलें, रेस्टोरेंट, दुकानें पूरी तरह बंद थे। देशी-विदेशी पर्यटकों का आना पूरी तरह बंद था। डल झील में तमाम शिकारे खामोश और उदास खड़े थे। पूरे श्रीनगर में हर दस कदम पर पैरामिलिट्री फोर्स के जवान तैनात थे।
हमने देखा था कि सुबह के वक्त दो घंटे के लिए खाने-पीने के सामान की दुकानें खुलती थी, ताकि लोग अपनी रोजमर्रा की जरुरतों का सामान खरीद सकें। बस उन्हीं दो घंटों की लड़डखड़ाती और उदास चहल-पहल के बाद पूरे दिन घाटी में सन्नाटा पसरा रहता था। यही माहौल बाद में करीब दो महीने तक और रहा था। लेकिन टीवी चैनलों की खबरों में इन सब बातों का कोई जिक्र नहीं हो रहा था। जो कुछ बताया जा रहा था, वह हकीकत से एकदम उलट यानी सरासर बकवास था। इसी वजह से घाटी के बाशिंदों में जबरदस्त गुस्सा था। उनका कहना था कि ये सारे चैनल कश्मीर के मौजूदा हालात की लगातार गलत तस्वीर पेश कर रहे हैं।
उस दौर में कई कश्मीरी नौजवान चाहते थे कि जिस तरह ये चैनल रोजाना अपने स्टूडियो के अलावा दिल्ली में कभी-कभी कनॉट प्लेस, इंडिया गेट आदि स्थानों पर अपने सेट लगाकर वहां ‘दंगल’, ‘सबसे बड़ी बहस’, ‘आर-पार’, ‘टक्कर’, ‘हम तो पूछेंगे’, ‘हल्ला बोल’ आदि शीर्षकों से कश्मीर के हालात पर जो बहस आयोजित करते हैं, वैसी ही बहस कभी वे श्रीनगर के लालचौक या शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में या डल झील के किनारे भी आयोजित करें। घाटी के नौजवान इस तरह की टीवी बहसों के कुछ एंकरों को भी बहुत क्षुब्ध होकर याद कर रहे थे। लेकिन उस समय किसी भी चैनल की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह रिपोर्टिंग के लिए अपने संवाददाता को कश्मीर भेजे।
हमें बताया गया था कि हमारे श्रीनगर पहुंचने से तीन दिन पहले ही दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले में रिपोर्टिंग के लिए श्रीनगर से गए तीन स्थानीय पत्रकारों को दिल्ली से आया हुआ समझकर वहां के कुछ नौजवानों ने पकड़ लिया था। उन तीनों पत्रकारों ने जब अपने परिचय पत्र दिखाए तो उन्हें इस शर्त पर छोड़ा गया कि दिल्ली से अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी नुमा जो भी टीवी पत्रकार या एंकर जब भी श्रीनगर आएंगे, वे उन्हें शोपियां जरूर लेकर आएंगे।
बहरहाल इस समय पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले को लेकर भी टीवी चैनलों और अखबारों का रोल बेहद आपत्तिनजक गंदा है। उनकी खबरों के प्रस्तुतिकरण में वस्तुनिष्ठता सिरे से नदारद है। हमले के दौरान और हमले के बाद श्रीनगर, पहलगाम और आसपास के इलाकों के बांशिदों ने पीड़ित पर्यटकों की जिस तरह मदद की, उसे सिरे से नजरअंदाज किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि आतंकवादियों ने पर्यटकों से उनका धर्म पूछा और फिर उन्हें मारा। अगर यह बात सही है तो जाहिर है कि उनका मकसद इस नरसंहार के जरिये देश के हिंदू और मुसलमान के बीच अलगाव व नफरत की खाई को और ज्यादा गहरा व चौड़ा करना था। लगभग समूचा मीडिया आतंकवादियों के इसी मकसद को पूरा करने की दिशा में काम कर रहा है।
हमले के दौरान जो लोग मारे गए, उनके जिंदा बच गए परिजनों से टीवी कैमरों के सामने बार-बार घूमा फिरा कर यही पूछा जा रहा है कि आतंकवादियों उनके परिजनों को क्या कह कर मारा? मृतकों के परिजन अगर यह बताने की कोशिश करते हैं कि वहां के स्थानीय लोगों ने किस-किस तरह से उनकी मदद की, तो उन्हें बीच में रोक उनके सामने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने वाला सवाल दाग दिए जाते हैं।
दिल्ली और देश के अन्य शहरों में ऐसे कई मौलाना और फर्जी मौलाना पाए जाते हैं जो टीवी चैनल वालों से दो-चार-पांच हजार रुपए लेकर उनके मनचाहे कुछ भी उलजुलूल बयान टीवी कैमरे के सामने देने के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं। ऐसे असली-नकली मौलानाओं के बयान से टीवी चैनलों को हिंदू-मुसलमान खेलने में आसानी हो जाती है। इस वक्त भी कुछ चैनलों पर ऐसे बिकाऊ फर्जी मौलाना देखे जा सकते हैं जो अगर-मगर लगाते हुए आतंकवादियों की और पाकिस्तान की तरफदारी कर रहे हैं।
किसी भी टीवी चैनल की ओर से सरकार से यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है कि जब पूरे जम्मू-कश्मीर में विभिन्न सुरक्षा बलों के ढाई लाख से ज्यादा जवान तैनात हैं तो जिस जगह हमला हुआ वहां सुरक्षा बल का एक भी जवान क्यों नहीं तैनात था? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के एक बार नहीं, कई बार किए गए इस दावे पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है कि नोटबंदी और जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद आतंकवाद की कमर टूट गई।
सबसे खतरनाक बात तो यह है कि देश में युद्धोन्माद फैलाने के मकसद से कुछ चैनलों पर भारतीय सेना की संभावित रणनीतियों और पाकिस्तान की संभावित चालों पर भी खुली बहस हो रही है। जिस जानकारी तक दुश्मन देश को पहुंचने में समय लगता है, उसे टीवी चैनलों के स्टूडियो से मुफ्त में परोसा जा रहा है।
सवाल है कि ऐसे चैनल को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े पहलुओं को सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा बनाने की इजाजत किसने दी है? राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम और ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट भी इस सिद्धांत को मजबूती से स्थापित करते हैं कि किसी भी परिस्थिति में संवेदनशील सूचनाएं सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से मीडिया के लिए एक एडवाइजरी जारी की गई है, लेकिन लगता नहीं है कि सरकार में बैठे राष्ट्रवाद और देशभक्ति के झंडाबरदार भी उस एडवाइजरी को लेकर गंभीर हैं।
कुछ टीवी चैनल तो टीआरपी बटोरने की अंधी दौड में इस कदर बदहवास हो चुके हैं कि देश के पूर्व सैन्य अधिकारियों को नाटकीय तौर पर भारतीय और पाकिस्तानी खेमों में बांट कर काल्पनिक युद्ध में भिड़ाने का तमाशा भी करवा रहे हैं। यह सिर्फ पत्रकारिता ही पतन नहीं है बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के बुनियादी सिद्धांत की भी आपराधिक अनदेखी है।
कोई भी सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी इस तरह टीवी कैमरों के सामने बैठ कर ऐसे आपराधिक तमाशे का हिस्सा कैसे बन सकता है? कहने की आवश्यकता नहीं कि इन टीवी चैनलों ने राष्ट्र की सुरक्षा को लोगों के मनोरंजन और अपने धंधे का साधन बना लिया है। सबसे ज्यादा अफसोस की बात यह है कि केंद्र सरकार अपने घृणित राजनीतिक इरादों को पूरा करने की खातिर यह सब होने दे रही है।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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