भारत का लोकतंत्र ‘लोक’ की हिफाजत में है ‘तंत्र’ की गिरफ्त में नहीं, बिल्कुल नहीं

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भारत के लोकतंत्र के लिए गैरमामूली आम चुनाव 2024 सामने है। चुनाव प्रचार का सिलसिला जोर पकड़ चुका है। चुनाव प्रचार के सिलसिला में 2 अप्रैल 2024 को उत्तराखंड के रुद्रपुर के ‘मोदी मैदान’ में अपना भाषण देते हुए प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने ‎अपनी शैली में रैली में शामिल लोगों के सामने देश को संबोधित करते हुए कहा: कांग्रेस और इंडिया-गठबंधन ने अपने इरादे दिखा दिये हैं। कांग्रेस के शाही परिवार के शहजादे ने, शहजादे ने एलान किया है कि अगर देश ने तीसरी बार बीजेपी सरकार को चुनी (तो) आग लग जायेगी। साठ साल तक देश पर राज करनेवाले दस साल सत्ता से बाहर क्या रह गये अब देश में आग लगाने की बात कर रहे हैं। क्या ये आग लगाने की बात आप को मंजूर है? ‎क्या ये देश को आग लगाने देंगे! क्या आग लगाने की यह भाषा उचित है? क्या ये आग लगाने वाली भाषा लोकतंत्र की भाषा है! ऐसे लोगों को सजा करोगे? पक्की सजा करोगे? चुन-चुनकर साफ कर दो। इस बार इन को मैदान में मत रहने दो भाई।

प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी के भाषण के इस अंश की एक पूर्वकथा और परिप्रेक्ष्य है। असल में, 31 मार्च 2024 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की ‎‘लोकतंत्र बचाओ’‎ रैली हुई थी। इस रैली में भाषण के दौरान राहुल गांधी ने संविधान को बदलने, लोकतंत्र पर खतरे, गरीबों की हकमारी, गरीबों के धन पर खतरे, 40 साल में सब से अधिक बेरोजगारी के होने, चुनाव के दो-तीन पहले झारखंड और दिल्ली के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल को जेल में डालने, कांग्रेस का बैंक खाता अवरुद्ध करने जैसी कई विषम परिस्थितियों के हवाले से क्रिकेट में मेच फिकसिंग की तरह चुनाव फिक्सिंग की बात कहते हुए कहा था: हिंदुस्तान में मैच फिक्सिंग का चुनाव यदि बीजेपी जीते और उसके बाद संविधान ‎को उन्होंने बदला तो इस पूरे देश में आग लगने जा रही है।

‘आग लगने’ और ‘चुन-चुनकर साफ कर दो’ भाषा का मुहावरेदार प्रयोग है। इस तरह के मुहावरे का इस्तेमाल आम बोल-चाल की भाषा में भी होता ही रहता है। सामान्यतः इस में कुछ भी वैसा आपत्तिजनक नहीं होता है। भाषा में अर्थ का संबंध बोलने वाले के इरादों से होता है। इरादा तो साफ-साफ दिखता है, स्पष्टता से समझ में आता है। राहुल गांधी विपक्षी गठबंधन और कांग्रेस के नेता हैं, नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री और सत्ता पक्ष के नेता हैं। बहुत की गुंजाइश नहीं है, इस लिए थोड़ा ही सही खोलकर समझने की कोशिश की जानी चाहिए। इस कोशिश में थोड़ा विश्लेषण भी किया जा सकता है। स्वाभाविक है कि इन दोनों के भाषण के इन प्रसंगों में निहित आक्रामक इरादों को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए।

आशंका आग्रह अनुरोध अपील आदेश आह्वान अनुप्रेरणा के अंतर को ध्यान में रखना जरूरी है। राहुल गांधी ने देश में आग लगने की बात मेच फिकसिंग से चुनाव जीतने के बाद संविधान को बदले जाने के संदर्भ में कही थी। राहुल गांधी ने संविधान को बदलने के नतीजों में देश में आग लगने की आशंका व्यक्त की थी, देश में आग लगाने की बात नहीं कही थी। आग लगने और लगाने में अंतर होता है। राहुल गांधी के भाषण में पूरा दम लगाकर वोट नहीं देने पर मेच फिकसिंग चुनाव में बीजेपी के कामयाब होने के प्रति आगाह किया था। उनकी भाषा में सावधानी बरतने के लिए अनुरोध और अपील का निश्चित तत्व था।

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। विपक्ष के नेता की मैच फिक्सिंग चुनाव की बात का पूरी तरह से खंडन करते हुए वे अपनी बात कहते तो वह उनके पद की गरिमा के अनुकूल होता। लेकिन प्रधानमंत्री ने मैच फिक्सिंग चुनाव की बात का खंडन तो दूर कोई संदर्भ ही नहीं लिया और ‘आग लगने’ की नहीं ‘लगाने’ की बात कहते हुए रैली में उपस्थित लोगों से चुन-चुनकर साफ करने देने के लिए कहा। उन की भाषा में चकराव, भटकाव और टकराव के साथ आह्वान और आदेश के निश्चित तत्व के होने से इनकार नहीं किया जा सकता है।

किसी परिस्थिति का जिक्र करते हुए यदि विपक्ष के नेता के द्वारा कोई असहमति लायक बात कही जाती है तो उस बात के खंडन का सही तरीका यह है कि सत्ता पक्ष उस परिस्थिति के होने से इनकार कर दे। जनता अपेक्षा रखती है कि अधिकतम तार्किकता के साथ विपक्ष के नेता की बात का सत्ता पक्ष खंडन करे या उस बात का सीधा उल्लेख किये बिना विपक्ष के नेता की बात की चतुराई से उपेक्षा कर दे। ऐसा होना चाहिए, मगर ऐसा होता नहीं है।

मनुष्य के ‘मनुष्य’ बनने में मनुष्य की विकसित भाषा का बहुत योगदान है। कई अर्थों ‎में तो भाषा विकास के अनुसरण में सभ्यता विकास का विकास हुआ है। भाषा ‎विकास का अनुसरण करना और भाषा के अनुशरण में छिपना-छिपाना भिन्न बात है। ‎जी, भाषा का इस्तेमाल कुछ बताने के लिए ही नहीं, बहुत कुछ छिपाने, के लिए भी ‎होता है। मुनाफा के ‘ब्रह्म’ बनने के पहले शब्द को ही ब्रह्म कहा जाता था। यह भाषा का ही कमाल है कि कभी ‎‘ब्रह्म’‎ परिस्थितिवश माया में बदल जाता है तो कभी ‘माया’ ही ‎‘ब्रह्म’‎ बनकर जीवन में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा लेती है। जीवन में ‎समस्या तो आती ही रहती है। कहा जाता है समझ और सहानुभूति हो तो अंततः ‎संवाद से समाधान निकल आता है। समझ और सहानुभूति के अभाव का कुत्सित रूप संवाद की भाषा में चकराव, ‎भटकाव, भड़काव, टरकाव, टकराव के तत्व डालकर संवाद से समाधान के रास्ते को ‎दुर्गम बना देता है।

जीवन में और इसलिए लोकतंत्र में भी निश्छल और स्वस्थ संवाद का बड़ा महत्व होता है। संवाद लोकतंत्र की ‎लगभग प्राथमिक शर्त है। इस लिए लोकतंत्र सब से पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी देता है। कहा जाता है कि मुंह खोलकर बोलना ताकत का ‎पहला सबूत होता है। मुंह खोलना ताकत के साथ-साथ इरादा का भी पता देता है। ‎सभ्यता संघर्ष के दौरान अग्निपुष्प की तरह मनुष्य की भाषा खिलती है, या कांटा बनकर प्रकट होती है; दहाड़ती और बिलखती है। संघर्ष में तपकर भाषा कैसे और कितनी निखरती है! ताजा उदाहरण है, जेल से जमानत पर रिहा होकर लौटे आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह का 3 अप्रैल 2024 का भाषण। भाषा में ईमानदारी की आकर्षक खनक, संघर्ष की सौंधी सुगंध और संकल्प के बिहंसते हुए सौंदर्य का एहसास किसी भी आदमी के लिए अद्वितीय अनुभव हो सकता है। एक ऐसा अनुभव जो सहमति की प्रतीक्षा किये बिना किसी को भी प्रभावित कर सकता है।

राजनीति में भाषा का ‎बहुत महत्व होता है। कई नेता ऐसे हुए हैं, जिन्हें उनके बेहतरीन भाषणों के लिए ‎जाना जाता है। कई महान नेता ऐसे भी हुए हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि भाषण ‎कला में वे पारंगत नहीं थे, लेकिन उनकी नीयत पवित्र थी, मानवता की सेवा करने का ‎उनका इरादा पक्का और नेक था। भाषण कला में पारंगत ऐसे भी नेता हुए हैं जो अपनी भाषा से विरोधियों को भी विमोहित कर लेते थे, लेकिन उनकी नीयत पवित्र साबित नहीं हुई, मानवता की सेवा का उन में पक्का इरादा न था, न कहीं से नेक ही था। विडंबना है कि संविधान से मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हरण के लिए आतुर, हमारे समय के ‘महान लोग’ अपनी तरह-तरह की बेमतलब गारंटी का ढिढोरा रात-दिन पीटते नहीं थकते हैं! ‎ ‎

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ संवाद तक पहुंचने के लिए स्वस्थ वाद-विवाद की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। दुर्भाग्यजनक है कि राजनीति में वाद-विवाद-संवाद की स्वस्थ भूमिका न हो कर वितंडा की भूमिका ही अधिक हो गई है। वितंडा क्या होता है! पहले सामान्य आधार वाक्य (Premises और कभी-कभी Promises भी) उछाला जाता है, फिर उस सामान्य आधार के अंतर्गत एक विशिष्ट वाक्य लगा कर तीसरे वाक्य में निष्कर्ष निकाल लिया जाता है। इस के अलावा भाषा और अर्थ में उलझाव पैदा करने के लिए कई अन्य सहायक प्रक्रियाएं अपनाई जाती है।

उदाहरण के लिए एक-दो प्रसंग, शायद बात कुछ अधिक स्पष्ट हो सके। जैसे यह कहना कि आजकल दस घंटा बिजली गुल रहती है। बिजली क्यों गुल रहती है? वैदिक युग में बिजली गुल होती थी? नहीं गुल होती थी, न। निष्कर्ष यानी वैदिक युग अधिक विकसित था। विवाद करनेवाला कहेगा, बिजली थी ही नहीं तो गुल कैसे होती? जवाब आयेगा आज बिजली है न? उत्तर हां बिल्कुल है। बिजली है तो फिर गुल क्यों होती है? निष्कर्ष बिजली नहीं है! ये है वितंडा!

एक अन्य प्रसंग : भ्रष्टाचारियों को सजा मिलनी चाहिए कि नहीं? मिलनी चाहिए। अमुक भ्रष्टाचारी है। उसे सजा मिलनी चाहिए। असहमति की कोई गुंजाइश नहीं! सजा अपरिभाषित! तो फिर सजा! कान उमेठकर गुप्त चंदा वसूलकर सजा देना! गुप्त मतलब बायें हाथ को पता न चले कि दायां क्या कर गुजरा! या फिर गुप्त चंदा के साथ-साथ दल में शामिल करने के बाद दृष्टि-बंधक बनाकर खामोशी की चादर में लपेट लेना। ताकि वह देश दुनिया के किसी सवाल पर मुंह खोलने की कभी हिम्मत न करे। कोई पद मिले तो किसी और के कहे पर अन्य के लाभ के लिए पद का दुरुपयोग करने के लिए कोई आनाकानी न करे! पूरी तरह से मजबूर बना देना!
हुजूर भ्रष्टाचारियों को ‘बचाते’ नहीं, ‎‘पचाते’‎ हैं; भ्रष्टाचारियों को अपने दल में पचा लेते हैं। मीडिया मुट्ठी में हो तो फिर अपने ‘कारनामा’ को ‘कीर्तिमान’ में बदलना बहुत आसान होता है। ‎‘कीर्तिमान’ ‎के गूंज में बदलते क्या देर लगती है! फिर गूंज की अनुगूंजों को उपलब्धि मान कर मस्त रहने से हुजूर को रोक ही कौन सकता है! नकारात्मक झूठ बोलते-बोलते एक दिन हुजूर खुद अपने झूठ का शिकार हो जाते हैं। कहना न होगा कि हमारा लोकतंत्र झूठ के असर में छटपटा रहा है। जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech) का भयानक दौर अभी शुरू नहीं हुआ है, न हो तो अच्छा!

राजनीतिक लाभ के लिए धर्म और भाषा के भ्रामक इस्तेमाल से भगवा की पवित्रता को कलंकित करनेवालों को ‘शिक्षा देने’ के मामले में हिंदु धर्म गुरुओं का कुछ-न-कुछ कर्तव्य (धर्म) भी तो होता ही होगा, विधान का पता नहीं। हिंदु प्रतीकों से सुसज्जित ‘बाबा’ नाम से विख्यात भगवाधारी रामदेव जी का भ्रामक प्रचार के आरोप पर सफाई देने के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट में उपस्थित होने की न्यायिक जरूरत और मुसीबत से क्या किसी ‘हिंदु मन’ का मन जरा भी है तो नहीं हुआ कि जब लोग करोना से तड़प-तड़पकर मर रहे थे ‘बाबाजी’ धन बटोरने के लिए क्या-क्या न प्रचार कर रहे थे! क्या यह सब किसी को आहत नहीं करता है! ‘बाबाजी’ अकेले नहीं हैं, भगवा का अपमान करने वाले। क्रूरता का कातर बनकर इस तरह सामने आना लोकतंत्र में ही संभव है, इसलिए भी लोकतंत्र महान है। अभी क्रमबद्ध तरीके से क्रूरता के कातर बनकर उपस्थित होने का लोकतांत्रिक समय आ रहा है। लोकतंत्र में गुरु भी लोक है, गोबिंद भी लोक है इसलिए दंडाधिकारी भी लोक ही है। कोई किसी भ्रम में न रहे, भारत का लोकतंत्र ‘लोक’ की हिफाजत में है ‘तंत्र’ की गिरफ्त में नहीं, बिल्कुल नहीं। ‎

इतने बड़े लोकतंत्र की इतनी बड़ी दुखसह आबादी के प्रति समझ और सहानुभूति के अभाव के कुत्सित प्रभाव ने हमारे लोकतंत्र की भाषा को चकराव, भटकाव, भड़काव, टरकाव, टकराव ‎में फंस-फंसाकर संवाद से समाधान के हर रास्ते को दुर्गम बना दिया है। हमारी भाषा में ऐसा दुर्भाग्यजनक हादसा न हुआ होता तो किसान आंदोलन में सरकार से संवाद के इतने चरण के बाद कोई-न-कोई समाधान निकल आता, दो बहनों का एकलौता भाई शुभकरण सिंह इस तरह से शासन की गोली से जान न गंवा देता। ऐसी है व्यवस्था इस में गांव तो गंवाता ही रहता है।

लोकतंत्र की चिंता के साथ-साथ भाषा के प्रति सजग आम नागरिकों और मतदाताओं के लिए चुनाव का यह समय चुनाव में भाषा के कमाल के बीच कराहते सच तक संजीवनी पहुंचाने का भी समय है और नेताओं के भाषा छल को वाद-विवाद और संवाद से तार-तार करने का भी समय है। ‎

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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