हरियाणा की पड़ताल-3: कोटे से गेंहू की जगह अब लोगों को मिल रहा है बाजरा

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यमुनानगर। बीजेपी ने रविवार को जारी अपने मैनिफेस्टो में एक बार फिर से गरीबों को अगले 5 सालों तक मुफ्त अनाज देने का वादा किया है। प्रधानमंत्री मोदी भी आजकल अपनी चुनावी सभाओं में घूम-घूम कर कह रहे हैं कि वह देश के 80 करोड़ लोगों को बैठाकर खिला रहे हैं। इन पंक्तियों का लेखक जब हरियाणा में यमुनानगर के एक गांव में गया तो इसकी जमीनी हकीकत कुछ और दिखी। जहां गरीबों को कोटे की दुकानों से गेंहू की जगह अब बाजरा मिल रहा है। जो गरमी में इंसान तो क्या जानवरों को भी नहीं खिलाया जा सकता है। क्योंकि यह बहुत गरम होता है। इसको सिर्फ और सिर्फ सर्दियों में खाया जा सकता है। 

सोढ़ौरा ब्लाक में स्थित सरावां गांव के रविदास गुरुद्वारा परिसर में एकत्रित पंद्रह से ज्यादा महिलाओं से जब बात हुई तो इसकी परत दर परत खुलने लगी। जिसमें यह बात प्रमुख तौर पर सामने आयी कि सरकार किसी एक स्तर पर कोटे के अनाज को रोकने की कोशिश नहीं कर रही है बल्कि वह कई तरीकों से इस काम को आगे बढ़ा रही है। 

सरावां गांव की स्नेहलता ने बताया कि इस बार उन्हें केवल और केवल 20 किलो बाजरा मिला। पिछले महीने 10 किलो गेंहू और 10 किलो बाजरा मिला था। उन्होंने बताया कि बाजरा चूंकि घर में खाया नहीं जाता है इसलिए उन्होंने उसे अपनी बेटी को दे दिया। जिसके घर मुर्गी पालन का व्यवसाय होता है। पास बैठी एक दूसरी महिला कविता ने बताया कि उन्हें “इस बार कोटे से 7 किलो गेंहू और 12 किलो बाजरा मिला है।

उनका कहना था कि बाजरा बच्चे नहीं खाते हैं इसलिए गेंहू बाजार से खरीदना पड़ता है”। जिनकी बाजार से गेंहू खरीदने की क्षमता नहीं है उन लोगों ने एक दूसरा ही रास्ता निकाल लिया है। गीता का कहना था कि बाजरा और गेंहू के आटे को मिलाकर वो रोटी बनाती हैं। जिससे वह बच्चों के खाने लायक बन जाता है। हालांकि इससे गरमी बहुत होती है।

एक दूसरी महिला ऊषा ने बताया कि उनका कुल चार सदस्यों का परिवार है और उन्हें महीने में कुल 20 किलो राशन मिलता है। इस बार उन्हें 6 किलो गेंहू और 14 किलो बाजरा मिला है। उनका कहना था कि बाजरा पशुओं को भी नहीं देते हैं। गर्मियों में वो भी इसको नहीं खाते हैं। कुछ मुर्गियां गांव में हैं यह उन्हीं के काम आता है। गेंहू की जगह बाजरा देने का नतीजा यह हुआ है कि बहुत सारे लोगों ने अब राशन लेना ही बंद कर दिया है। या फिर उनकी कोटे का राशन लेने में रुचि खत्म होती जा रही है।

केवल बाजरे के जरिये ही लोगों को राशन की पहुंच से दूर नहीं किया जा रहा है बल्कि अब सीधे राशन के कार्ड के ही खात्मे की तैयारी शुरू कर दी गयी है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। राशन कार्ड रहेगा ही नहीं तो फिर राशन मांगने कौन जाएगा। गांव की ही एक दूसरी महिला ऊषा ने बताया कि एक दिन जब मैं राशन लेने कोटे की दुकान पर गयी तो कोटेदार ने बोला कि आपका राशन कार्ड कट गया है। कारण पूछने पर उसने बताया कि चूंकि आपके लड़के की नौकरी लग गयी इसलिए आपका राशन कार्ड कट गया। बताया गया कि जिसकी सालाना पांच लाख से ज्यादा इनकम है उसको अब अनाज नहीं मिलेगा।

इतना ही नहीं अगर किसी के घर पर कोई कार है या फिर स्कूटर है उसका भी राशन कार्ड काट दिया जा रहा है। या फिर ऐसा कोई कीमती सामान है जिससे उसे गरीबी की रेखा से ऊपर दिखाया जा सके तो उसके भी अनाज की सप्लाई लाइन काट दी जा रही है। और ज्यादा खोजबीन करने पर पता चला कि गरीबी रेखा से लोगों को निकालने की हाल में आयी सरकार की नई नीति का यह नतीजा है।

पहले गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की आबादी 22 करोड़ के करीब थी। अब मोदी सरकार घूम-घूम कर कह रही है उसने इसे 5 करोड़ पर ला दिया है। उसी पांच करोड़ पर लाने का नतीजा है कि लोगों के राशन कार्डों को रद्द किया जा रहा है। और अलग-अलग बहाने से उन्हें गरीबी की रेखा से ऊपर कर दिया जा रहा है। 

इस मौके पर मिली 15 से 20 महिलाओं में चार-पांच महिलाएं ऐसी मिलीं जिनके राशन कार्ड रद्द कर दिए गए थे। महिंद्रो का नाम भी इसी लिस्ट में शामिल है। इतना ही नहीं बिजली का बिल देखकर भी कार्ड को रद्द कर दिया जा रहा है। इससे समझा जा सकता है कि 80 करोड़ को घर बैठा कर खिलाने का दावा करने वाली मोदी सरकार निचले स्तर पर इस योजना को कैसे मार रही है।

इसके साथ ही कोटे से वितरित होने वाले अनाज में एक और समस्या यहां देखी गयी। अनाज महीने के आखिरी सप्ताह में वितरित किया जाता है। और महीना खत्म होने से पहले ही उसका वितरण बंद कर दिया जाता है। इसके चलते इतनी बड़ी-बड़ी लाइन लगती है जिसका कोई अंदाजा नहीं। गांव के ही एक सज्जन रजत ने बताया कि गांव की आबादी 5500 है। ऐसे में इतनी बड़ी आबादी के लिए केवल सात दिन में अनाज वितरण का काम बेहद कठिन है।

जिसका नतीजा यह होता है कि बहुत सारे लोगों को अनाज मिल ही नहीं पाता है। जबकि होना यह चाहिए कि अनाज पूरे महीने वितरित हो। उससे जो भी चाहेगा उसे अनाज मिल जाएगा। उनका कहना था कि पूरे महीने राशन मिलना चाहिए और वह भी सुबह 10 बजे से शुरू करके रात 8 बजे तक वितरित होना चाहिए। इसी के साथ ही उन्होंने गांव में दो कोटे का भी सुझाव दिया। जिस भी गांव की आबादी ज्यादा है उसमें दो कोटे का प्रावधान होना चाहिए।

सरकार ने एक जगह और डंडी मारने की तैयारी शुरू कर दी है। महिलाओं का कहना था कि अभी सरसों का तेल मिलता था अब रिफाइंड देने की तैयारी की जा रही है। जबकि गांवों में आम तौर पर लोग सरसों का ही तेल खाते हैं। ऐसे में रिफाइंड देकर एक बड़े हिस्से को तेल से अलग कर दिया जाएगा।

जितना चमकीला सरकार के विज्ञापनों में दिखाया जाता है जमीन पर वो योजनाएं उतनी धुंधली और जर्जर हो चुकी हैं। मसलन कन्यादान जिसमें किसी गरीब मां-बाप को अपनी बेटी की शादी के समय 51हजार रुपये मिलते हैं। गीता ने बताया कि “मैं अपनी दो बच्चियों की शादी कर चुकी हूं लेकिन लाख प्रयासों के बावजूद एक भी पैसा मुझे नहीं मिला। तीसरी के लिए फिर से फार्म भरा है”। विधवा पेंशन का भी यही हाल है। 

प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत केंद्र सरकार सभी आवास हीनों को घर देने का शोर पूरे देश में मचा रही है। लेकिन जमीन पर सच्चाई बिल्कुल इसके उलट है। गांव वालों ने बताया कि 100 लोग अगर आवास के लिए आवेदन डालते हैं तो उसमें केवल 3 लोगों को मिलता है और वो लोग भी ऐसे होते हैं जिनका सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं से संपर्क होता है। ऊपर से इसमें भी भ्रष्टाचार है।

सरावां गांव में एक और मामला देखने को मिला। गांव के सारे लोग भूमिहीन हैं। हरियाणा में एक प्रावधान है कि पंचायतों की जमीन को खेती के लिए जरूरतमंदों को दिया जाता है। उसमें एक प्रावधान है कि दलितों को उसका तिहाई हिस्सा दिया ही जाना चाहिए। लेकिन उसमें भी बड़ा अन्याय होता है। और यह प्रशासन तथा स्थानीय सरपंच की मिलीभगत से संचालित होता है।

रजत ने बताया कि पंचायती जमीन के बंटवारे का काम तहसीलदार, पटवारी और स्थानीय पंचायत मिलकर तय करते हैं। गांव में बताया गया कि कुल 150-200 एकड़ पंचायती जमीन है। इस लिहाज से 50 एकड़ से ज्यादा जमीन दलितों के हिस्से आनी चाहिए। 

इससे दलितों के एक बड़े हिस्से का कल्याण हो जाता। लेकिन यहां भी भ्रष्टाचार और कदाचार हावी है। बताया गया कि नीलामी के समय बोली लगती है और ऐसे मौके पर किसी दलितों की जगह किसी डमी कैंडिडेट को खड़ा कर दिया जाता है। जो बोली जीतने के बाद उसे जोतने के लिए किसी सैनी, सरदार या फिर मुस्लिम को दे देता है। लोगों ने बताया कि एक एकड़ जमीन को ठेके पर देने पर मालिक को 30 से 50 हजार रुपये मिलते हैं। इस तरह से समझा जा सकता है कि दलितों के कितने बड़े हक को छीना जा रहा है।

(यमुनानगर से लौटकर जनचौक के संस्थापक संपादक महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)

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