हर व्यक्ति अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए बेहतर उच्च शैक्षणिक संस्थानों की खोज करता है और उन्हें वहाँ पढ़ाना चाहता है। लेकिन क्या वे इन उच्च शैक्षणिक संस्थानों में हो रहे बदलावों या छिपे हुए एजेंडों के प्रति सचेत रहते हैं? या फिर केवल एक अच्छे संस्थान में बच्चे का दाखिला होने के बाद वे निश्चिंत हो जाते हैं?
शिक्षा, जो हर व्यक्ति का अधिकार है, वह उतनी सहजता से सभी को प्राप्त नहीं हो रही है। पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की फीस में जिस तरह वृद्धि हुई है, वह सामान्य जन से शिक्षा के अधिकार को छीनने के समान है। वर्तमान में सरकारी और निजी दोनों तरह के शिक्षण संस्थानों में न केवल शिक्षकों और पाठ्यक्रमों में, बल्कि वहाँ होने वाले कार्यक्रमों में भी अभूतपूर्व बदलाव किए जा रहे हैं। शिक्षकों को संस्थानों से निकाला जा रहा है और उन पर इस्तीफा देने का दबाव डाला जा रहा है। क्या इसको लेकर विद्यार्थी, उनके अभिभावक और हमारा समाज गंभीर है? क्या यह मुद्दा आम लोगों के लिए महत्व रखता है?
अकादमिक जगत ने भी इन मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जयति घोष ने अपने एक ट्वीट में इस खामोशी का जिक्र किया था। उन्होंने अशोक यूनिवर्सिटी के सब्यसाची दास के इस्तीफे का उल्लेख किया, साथ ही कुछ वर्ष पहले अशोक यूनिवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर किए जाने की घटना का जिक्र किया। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने अखबारों में आलोचनात्मक लेख लिखे थे और उनके निजी मत से सत्ता नाराज हो गई थी। इसका विरोध वहाँ के शिक्षकों और छात्रों ने किया, जो अकादमिक जगत की स्वायत्तता और स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था।
डॉ. सब्यसाची दास ने अपने शोध पत्र “Democratic Backsliding in the World’s Largest Democracy” में गहन अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध किया था कि सत्तारूढ़ पार्टी ने कहाँ-कहाँ धोखाधड़ी की है। यह तथ्य सत्तारूढ़ पार्टी को नागवार गुजरा। इस लेख के बाद उन पर इस्तीफे के लिए दबाव डाला गया। अशोका यूनिवर्सिटी ने अपने बचाव में कहा कि वह अपने अध्यापकों की सोशल मीडिया पर सक्रियता को पसंद नहीं करती। ऐसे कई और तर्क दिए जा सकते हैं और विभिन्न संस्थानों में दिए भी जा रहे हैं।
यह केवल एक संस्थान की बात नहीं है। शिक्षकों पर हमले, उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए मामूली मुद्दों पर जाँच बैठाना, उनकी गिरफ्तारी, इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना, या किसी खास विचारधारा के छात्र संगठन के दबाव में आकर शिक्षकों को निकाल देना-ये घटनाएँ अब आम हो गई हैं।
केरल यूनिवर्सिटी में एक खास विचारधारा के छात्र संगठन की माँग पर कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। सागर यूनिवर्सिटी में किसी व्यक्ति को “राष्ट्रद्रोही” करार देने सहित अनेक विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में ऐसी असंवैधानिक गतिविधियाँ आज भी जारी हैं।
विडंबना यह है कि विश्वविद्यालय अपने ही बनाए ऑर्डिनेंस के खिलाफ कार्य कर रहे हैं। शिक्षकों की वरिष्ठता का मखौल उड़ाते हुए अपनी पसंद के शिक्षकों को विभागाध्यक्ष और अधिष्ठाता (डीन) बनाया जा रहा है। हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में विभागाध्यक्ष पद के लिए वरिष्ठता के आधार पर प्रोफेसर अपूर्वानंद का नाम होना चाहिए था, लेकिन जनता के मुद्दों को मुखरता से उठाने वाले बुद्धिजीवी प्रोफेसर अपूर्वानंद को यह पद न देकर किसी अन्य को नियुक्त किया गया। इसका प्रतिकार प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कुलपति को पत्र लिखकर किया, लेकिन इस पत्र का जवाब दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति की ओर से मिला हो, इसमें संदेह है।
प्रोफेसर अपूर्वानंद आम आदमी और अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों के संघर्ष में साथ खड़े रहते हैं और शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता के सवाल को लगातार उठाते हैं। आज के दौर में सवाल उठाना और कमजोरों का साथ देना सत्ता को रास नहीं आता।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी ऐसा ही मामला सामने आया है, जहाँ विभागाध्यक्ष का दायित्व किसी अन्य अधिष्ठाता को सौंप दिया गया। इससे पहले, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति प्रोफेसर रजनीश कुमार शुक्ल (जिन पर यौन उत्पीड़न के आरोप भी लगे थे और जिन्होंने अपना कार्यकाल बीच में ही छोड़कर भाग गए थे) ने भी विश्वविद्यालय के ऑर्डिनेंस के खिलाफ जाकर कई ऐसे कार्य किए, जिनसे अपने लोगों को लाभ पहुँचाया जा सके। उन्होंने कई कनिष्ठ शिक्षकों को विभागाध्यक्ष और प्रभारी बनाया। उनकी कई नियुक्तियाँ आज भी संदेह के घेरे में हैं। इन नियुक्तियों और उनके कृत्यों की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए।
अन्य विश्वविद्यालयों में भी ऐसी कई विसंगतियाँ हैं, जिन पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। अकादमिक जगत के बुद्धिजीवियों को यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वे बिना किसी भय के अपना पक्ष रख सकें, जो समाज के विकास और उत्थान के लिए जरूरी है। लेकिन आलोचना और असहमति का जो स्थान पहले था, उसे लगातार खत्म किया जा रहा है। एक ही विचारधारा के संगठनों से लोगों को जोड़ा जा रहा है, और वे संगठन के प्रभारी, मंत्री और अन्य पदों पर काबिज होकर नौकरी भी कर रहे हैं। लेकिन जैसे ही कोई दूसरी विचारधारा या संगठन से जुड़ता है, उसके खिलाफ कार्रवाई की जाती है।
फ्रांस के मशहूर बुद्धिजीवी ज्याँ-पॉल सार्त्र ने अल्जीरिया की स्वतंत्रता का समर्थन किया था। उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि “आतंकवाद गरीबों और शोषितों का परमाणु बम है।” उनके इस बयान के बाद उनकी गिरफ्तारी की माँग उठी। उस समय फ्रांस में द गॉल की सरकार थी, जिसने इस माँग को खारिज करते हुए कहा कि सार्त्र को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे फ्रांस की चेतना हैं।
हर देश की चेतना उसके बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, शिक्षा प्रणाली और छात्रों से निर्धारित होती है। शिक्षा और शिक्षकों की सार्थकता ऐसे छात्रों के निर्माण में है, जो तथ्यों को बिना जाँचे-समझे स्वीकार न करें और सवाल करें। सवालों के माध्यम से ही सत्य के करीब पहुँचा जा सकता है। इसलिए शिक्षकों द्वारा सवाल पूछने की संस्कृति को विकसित करना चाहिए। लेकिन आज जो शिक्षक छात्रों को सवाल पूछने के लिए प्रेरित करते हैं, उन्हें ही निशाना बनाकर हाशिए पर धकेला जा रहा है।
समाज, शिक्षा व्यवस्था, शिक्षक और छात्र एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हैं। इसलिए शिक्षकों के साथ हो रहे अन्याय और शिक्षण संस्थानों में हो रहे बदलावों के प्रति समाज का दायित्व है कि वह हस्तक्षेप करे। क्योंकि शिक्षण संस्थानों से ही जिम्मेदार और वैज्ञानिक चेतना से युक्त छात्र-छात्राएँ निकलते हैं। बेहतर समाज के निर्माण के लिए सचेत और जागरूक नागरिकों की जरूरत होती है, ताकि समाज सुचारु रूप से संचालित हो सके। यह याद रखना जरूरी है कि वर्तमान समाज की चुप्पी के परिणाम भावी पीढ़ियों को भुगतने होंगे।
(हरनाम सिंह इंदौर में रहते हैं और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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