Sunday, April 28, 2024

सीओपी-28ः पर्यावरण पर चिंता ज्यादा जिम्मेवारी और उम्मीद कम

जलवायु परिवर्तन को लेकर अबू-धाबी में शुरू हो चुके अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में दुनिया के कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ उनके 75000 से अधिक प्रतिनिधि शिरकत करने पहुंच चुके हैं। इसके अलावा 4 लाख से अधिक लोग वहां प्रेक्षक की तरह पहुंच रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की मीटिंगों के बाद संभवतः यह सबसे बड़ी जुटान है। इस जुटान में शिरकत के लिए 200 से अधिक देशों ने हामी भरी थी। निश्चित ही यह पर्यावरणविदों की जुटान नहीं है और न ही इस दिशा में काम करने वाले उन सोशल एंथ्रोपोलोजिस्टों की एकजुटता है, जो इंसान को उसकी प्रकृति के साथ सामंजस्यता में देखना चाहते हैं और इन्हीं संदर्भों में अध्ययन करते हैं।

यह दुनिया के शासकों और उनके प्रतिनिधियों की मीटिंग है, जो अब इस बात की चिंता कर रहे हैं कि विकास को पर्यावरण के साथ कैसे आगे बढ़ाया जाये। संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वाधान में बने इस मंच ने पिछले वर्षों में निरंतर मीटिंगें आयोजित की और साथ ही कई निर्णय लिए। इस मंच के निर्णय और प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं होने की वजह दावेदारी और भागीदारी तो खूब है, लेकिन हासिल उसी अनुपात में बेहद कम। इस मामले में भारत भी पीछे नहीं है। इसने भी खूब भागीदारी और दावेदारी किया है, लेकिन काम के संदर्भ में इसका भी रिकार्ड अन्य देशों की तरह ही है। इस मीटिंग में भारत के अधिकारियों के साथ-साथ प्रधानमंत्री मोदी भी सीधी हिस्सेदारी करने के लिए अबू-धाबी पहुंच चुके हैं।

सम्मेलन से पहले विवाद

सम्मेलन शुरू होने के पहले ही उस समय विवाद खड़ा हो गया जब बीबीसी और अन्य मीडिया समूहों ने हासिल हुए कथित दस्तावेजों के आधार पर यह दावा किया कि संयुक्त अरब अमीरात में हो रहे इस सम्मेलन का प्रयोग यहां के तेल उत्पादक अपनी सौदेबाजी के लिए प्रयोग करने जा रहे हैं।

दरअसल, संयुक्त अरब अमीरात को जब सीओपी-28 का सम्मेलन आयोजन करने की जिम्मेवारी दी गई, तब वहां की सरकार ने अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी के मुख्य कार्यवाहक सुल्तान अल-जुबैर को ही सम्मेलन का मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया। मध्य एशिया तेल उत्पादन का मुख्य केंद्र और अरब इसके सबसे बड़े केंद्र में से एक है। इस नियुक्ति को लेकर ही विवाद उठ खड़ा हुआ और खासकर पर्यावरणविदों ने इसकी खूब आलोचना की।

जब दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों, अधिकारियों, प्रतिनिधियों का विशाल जमावड़ा भले ही एक अच्छे उद्देश्य और नाम से हो रहा है, लेकिन इस बात से इंकार करना निश्चित ही मुश्किल है कि इस मंच का प्रयोग सिर्फ इन्हीं उद्देश्यों को लेकर होगा। इस मंच पर औपचारिक तौर पर ऊर्जा संरक्षण और उपयोग और जैव विविधता को लेकर कई सारे नये उद्यम की तलाश की वार्ताएं, इस मंच पर पहले भी होती रही हैं। मसलन, सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने और इस दिशा में विकल्पों की तलाश करने को लेकर चलने वाली वार्ताओं का अंतिम लक्ष्य इसका औद्योगिकीकरण ही है, जिसमें बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश और उसके लाभ का मसला जुड़ा हुआ है।

धन-संग्रह के साथ अच्छी शुरुआत का प्रयास

संयुक्त अरब अमीरात ने मेजबान देश होने का फर्ज अदा करते हुए पर्यावरण संरक्षण के मद में 100 मिलियन डालर देने की घोषणा की। इसके साथ ही जर्मनी ने 100, यूरोपियन यूनियन ने 145, यूनाईटेड किंगडम ने 50.6 और अमेरीका ने 17 मिलियन डालर देने की घोषणा किया। जापान ने 10 मिलियन डालर दिया। इस संदर्भ में यहां बताना उपयुक्त होगा कि विकसित देशों को इस मद में पिछले वर्ष तक 100 मिलियन डालर जमा करना था। लेकिन, इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका।

यदि हम पर्यावरण से होने वाले नुकसान को देखें, तो 2022 में यह 1.5 ट्रिलियन डॉलर था। लेकिन, अलग-अलग देशों में सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में पर्यावरण से होने वाले नुकसानों को देखा जाये तब यह आंकड़ा बहुत अधिक बढ़ जाएगा। डेलवेयर विश्वविद्यालय के द्वारा किये अध्ययनों में यह नुकसान प्रति देशों के जीडीपी का 8 प्रतिशत तक है। 2022 में भारत में यह आंकड़ा 8 प्रतिशत का था। जाहिर है, नुकसान के संदर्भ में क्षतिपूर्ति के लिए बनाया जा रहा कोष और उसमें देशों की भागीदारी बेहद कम है।

भारतः पर्यावरण पर एक कदम आगे दो कदम पीछे

दुनिया भर के कुल कार्बन उत्सर्जन प्रदूषण के मामले में भारत शीर्ष के देशों में से तीसरा है लेकिन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के मामले में यह बहुत से देशों से पीछे है। यह उसकी अंतर्विरोधी स्थिति है। यह विश्व पर्यावरण और पूंजीवादी विकास की अंतर्विरोधी स्थिति जैसी ही है। दुनिया में विकास के मानदंडों में मुख्य पैमाना प्रति व्यक्ति उर्जा खपत से जुड़ा हुआ है। भारत प्रति व्यक्ति बिजली खपत के मामले में दुनिया के स्तर पर 104वें स्थान पर है। विकास की दर और पर्यावरण के बीच का यह संबंध सीओपी की मीटिंगों में भी अभिव्यक्त होता रहता है।

भारत, और पूरी दुनिया में कोविड काल को छोड़कर कार्बन और अन्य गैस उत्सर्जन के मामले में पिछले दशकों को पीछे छोड़ते हुए तेजी ऊपर की ओर गया है। भारत में 1970 की तुलना में रिकार्ड स्तर पर वृद्धि हुई है। 1990 तक इसकी रफ्तार धीमी है, लेकिन इसके बाद इसने छलांग लगाया। अमिताभ सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस में जो आंकड़ा पेश किया है उसमें, 1970 में कार्बन डाई आक्साईड का उत्सर्जन 800 मिलियन टन के आसपास है जो 1990 में 1436.581 और 2022 में 3943.265 मिलियन टन तक जा पहुंचता है।

इस विशाल कार्बन उत्सर्जन का 40 प्रतिशत हिस्सा बिजली उत्पादन से जुड़ा हुआ है। 10 प्रतिशत ट्रांसपोर्ट का है। इस संदर्भ में भारत के विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने साफ कर दिया है भारत में कोयला विकास की एक आवश्यक शर्त है और उर्जा के लिए इसका प्रयोग जरूरी हिस्सा है और यह रहेगा। नवम्बर, 2023 के शुरुआती हफ्तों में ही ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने स्पष्ट किया था कि थर्मल पॉवर को 30,000 मेगावाट से बढ़ाकर 50,000 मेगावॉट करना है। इसके लिए कोयला उत्पादन को दो गुना बढ़ाना होगा। इसी समय यह भी रिपोर्ट सामने आई जिसमें विश्व बाजार की आपूर्ति के लिए कोयला उत्पादन को तीन गुना बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया था।

भारत ऊर्जा के लक्ष्य को हासिल करने और साथ संरचनागत विकास के लिए बड़े पैमाने पर सड़कों का निर्माण करने में लगा हुआ है। पहाड़ की नदियों का प्रयोग बिजली परिपोयजाओं में करने से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ना शुरू हो चुका है। जबकि शहर ऊर्जा के जीवाश्म रूपों, जिसमें तेल, कोयला, गैस का प्रयोग शामिल है, से घुटन का शिकार हो रहे हैं।

विकास की इस अंतर्विरोधी स्थिति और पूंजी की साम्राज्यवादी जकड़न और युद्ध की विभिषिकाओं ने एक अभूतपूर्व संकट का निर्माण किया हुआ है। इस पूंजीवादी विकास की गति में, जिसमें साम्राज्यवादी देश एक निर्णायक भूमिका निभाते हैं, पर्यावरण के मसले पर जिस तरह की चुप्पी, बेपरवाही और खतरनाक रवैया अपना रहे हैं, वह सिर्फ उनकी अड़ियलबाजी का मसला नहीं है। यह उनकी नीतियों के विपरीत बैठता है।

पूंजी और प्रकृति के बीच का रिश्ता अंततः मानवीय संबंधों से ही परिभाषित होना है। ठीक वैसे ही जैसे पूंजी और श्रम के बीच का रिश्ता भी मानवीय संबंधों के संदर्भ में ही परिभाषित होने हैं। श्रम की सामूहिकता और प्रकृति के लौह नियम एक दूसरे के पूरक की तरह काम करते होते हैं, इसमें एकाधिकार और अतिरिक्त लाभ की कोई जगह नहीं है। यह ऊर्जा के संरक्षण के नियम की तरह है। इस नियम की बात करना ही साम्राज्यवादी देशों को नागवार गुजरता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उवाच

भारत की ओर से आधिकारिक प्रतिनिधियों के अलावा भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस सम्मेलन में शिरकत किया। वह चिरपरिचित अंदाज में अन्य देशों के राजनायिकों और प्रमुखों से मिले। विश्व के स्तर पर पर्यावरण के लिए चल प्रयासों और इस सम्मेलन को बधाई देते हुए भारत की अपनी प्रतिबद्धता को दुहराया। उन्होंने कार्बन उत्सर्जन को 45 प्रतिशत कम करने पर जोर देते हुए कहा कि भारत ने पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन बनाकर चलने का मॉडल पेश किया है। उन्होंने कहा कि भारत विश्व उत्सर्जन का 4 प्रतिशत से भी कम हिस्सेदारी करता है। वह वहां 21 घंटों में कुछ और भाषण, द्विपक्षीय वार्ता और कुछ कार्यभार से जुड़े कार्यक्रम में हिस्सेदार होंगे। उन्होंने अपने भाषण में कहा “आपने हमारे द्वारा उठाये गये पर्यावरण न्याय, पर्यावरण वित्त और हरित ऋण का समर्थन किया है”।

ब्रिटेन के किंग चार्ल्स ने एक अच्छी बात कही

“प्रकृति के साथ समरसता बनाये रखना जरूरी है। पृथ्वी हमसे नहीं है। हम पृथ्वी से हैं”। इस अच्छाई से भरे कथन के नीचे ब्रिटिश क्राउन का वह इतिहास है, जो आज वर्तमान बनकर हमारे सामने है। इस वर्तमान के सामने इस कथन का काव्यात्मक अर्थ भी नहीं बचा है। जो बचा है, वह उपरोक्त हमारे प्रधानमंत्री का बयान, जिसमें कई सारे भ्रम की फिसलन है जिस पर खड़े होने पर आप बस फिसल सकते हैं, ठहर नहीं सकते।

भारत की ओर से यह शिरकत उस समय हो रही है, जब उसकी राजधानी की सांस घुट रही है। 41 मजदूर पर्यावरण की धता बताकर प्रधानमंत्री के ही ड्रीम प्रोजेक्ट की एक सुरंग में 17 दिनों तक मौत से जूझते रहे हैं और अंततः मजदूरों के प्रयास ने उन्हें वापस जिंदगी दी। पूरा देश अल-नीनो के प्रभाव से गुजर रहा है और खेती पर संकट बना हुआ है, लेकिन किसानों के लिए कोई राहत नहीं है। हिमाचल तबाहियों से भर गया, लेकिन प्रधानमंत्री ने उस राज्य का दौरा तक नहीं किया। कोई खास राहत कोष देने की घोषणा तक नहीं की।

ऐसे में, हम भले ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चाहे जो दावेदारी करें, देश के स्तर पर पर्यावरण को लेकर जो व्यवहार है, वह बेहद खामियों से भरा हुआ है और बेहद नुकसान दायक है। 22 नवम्बर, 2023 को भारत सरकार की ओर से जारी बयान में बताया गया है कि भारत पर्यावरण बदलाव को लेकर किये योगदान सूचकांक में विश्व में अब 8वें स्थान पर आ गया है। भारत सीओपी-27 के 59 देशों में अपनी स्थिति को दो अंक ऊपर ले गया है। यह सूचकांक उन आंकड़ों से संबंधित हैं जो मुख्यतः ऊर्जा के प्रयोगों से जुड़ा हुआ है। यहां यह जरूर देखना होगा कि पर्यावरण का अर्थ सिर्फ ऊर्जा और उत्सर्जन तक सीमित न कर दिया जाये। यदि इसका जीवन के साथ जुड़ाव न होगा, तब इन बातों का कोई अर्थ नहीं रहेगा।

आने वाले दिनों में देखना है कि सीओपी-28 की मीटिंग, जो सैकड़ों की संख्या में होनी है लेकिन उससे निकलने वाले निष्कर्ष क्या होते हैं, प्रस्ताव क्या बनते हैं और उद्घोषणा क्या होगी? इस इंतजार में हमें यह नहीं भूलना है कि यह सारा मसला ऊर्जा और उत्सर्जन तक ही सीमित होता जा रहा है। इसे एक व्यापक रूप देना चाहिए। यदि यह सिर्फ ऊर्जा और उत्सर्जन तक सीमित रहा तब यह सिर्फ और सिर्फ ऊर्जा के क्षेत्र में पूंजी के निवेश के रूप में बदलाव होगा और पर्यावरण की समस्या आने वाले समय में घटने की बजाय बढ़ेगी ही।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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