प्रधानमंत्री का वायदा पूरा करने के लिए सैकड़ों खरब डालर की जरूरत

भारत को विश्व जलवायु सम्मेलन,ग्लासगो में प्रधानमंत्री के वायदे को पूरा करने के लिए अगले दस वर्षों में लगभग एक सौ खरब (एक ट्रिलियन) डालर की जरूरत होगी। सरकार ने राज्यसभा में यह जानकारी दी है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने बताया कि भारत को विकसित देशों से विकासशील देशों को प्रति वर्ष एक सौ खरब डालर की आर्थिक सहायता मिलने की उम्मीद है। वे सांसद सुशील मोदी के प्रश्न का जवाब दे रहे थे। भारत ने इस आर्थिक सहायता की मांग ग्लासगो सम्मेलन में जोरदार तरीके से उठाई थी।

जलवायु सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की थी कि भारत अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली उत्पादन को 500 गीगावाट तक पहुंचा देगा, बिजली की अपनी जरूरत का पचास प्रतिशत अक्षय ऊर्जा स्रोतों से पूरा करेगा, कुल प्रत्याशित कार्बन उत्सर्जन में एक खरब टन की कटौती करेगा और कार्बन सघनता को 45 प्रतिशत घटा लेगा। उपरोक्त सभी लक्ष्य 2030 तक पूरा कर लिए जाएंगे और 2070 तक भारत कार्बन उत्सर्जन में नेट-जीरो का लक्ष्य प्राप्त कर लेगा।

इस बीच जर्मनी ने जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के उपायों के लिए भारत को एक अरब 20 करोड़ यूरो की सहायता देने की घोषणा की है जो करीब 10 हजार 25 करोड़ रूपए होते हैं। जर्मनी ने एक बयान में कहा कि विश्व के प्रत्येक पांच व्यक्ति में एक भारत में रहता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन का वैश्विक स्तर पर मुकाबला करना भारत को छोड़कर संभव नहीं है। जर्मनी के राजदूत वाल्टर लिंडनेट ने कहा कि हम ग्लासगो में की गई घोषणाओं को पूरा करने में साथ मिलकर काम करेंगे।

आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट ने कहा है कि भारत और जर्मनी मौसम की चरम घटनाओं के समान रूप से शिकार होंगे। दोनों देश मिलकर वैश्विक ग्रीन हाऊस उत्सर्जन में 9 प्रतिशत की हिस्सेदारी करते हैं। ग्लासगो में दोनों देश कोयले का उपयोग घटाने पर सहमत हुए। भारत ने पहले ही करीब 50 गीगावाट कोयला आधारित प्रकल्पों को 2027 तक बंद कर देने के लिए चिन्हित किया है। भारत और जर्मनी पहले से ऊर्जा, टिकाऊ शहरी विकास और प्राकृतिक संसाधन के प्रबंधन के क्षेत्र में साझा तौर काम कर रहे हैं।

ग्लासगो में पिछले महीने हुए सम्मेलन को जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की कार्रवाइयों के लिहाज से उल्लेखनीय आयोजन माना जा रहा है। 2015 के पेरिस समझौते में वैश्विक तापमान में औसत बढ़ोत्तरी को पूर्व- औद्योगिक स्थिति से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखने की बात थी। हालांकि इस लक्ष्य को प्राप्त करना भी कठिन नजर आता है, पर जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों को देखते हुए तापमान में बढ़ोत्तरी को इससे कम रखने की जरूरत मानी जा रही है। तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने की मांग तेज हो रही है। ग्लासगो सम्मेलन में यह बात जोरदार तरीके से सामने आई और सहमति बनती दिखी।

ग्लासगो में पिछले विश्व जलवायु सम्मेलनों के मुकाबले काफी अच्छी भागीदारी रही। इसमें लगभग 30 हजार लोग आए, सौ से अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने भागीदारी की। जाहिर है कि अनेक बड़ी घोषणाएं हुईं। परन्तु सम्मेलन का कुल फलितार्थ मुश्किल से अपेक्षाओं को पूरा करने वाला था। विभिन्न देशों के वायदों में तनिक प्रगति जरूर हुई, पर वैश्विक उत्सर्जन को घटाने के लिहाज से किसी उल्लेखनीय कार्रवाई पर सहमति नहीं बनी।

विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों को वित्तीय सहायता और तकनीकी सहयोग देने के वायदे को पूरा नहीं किया गया। इस पर पेरिस समझौता-2015 में सहमति बनी थी। प्रतिवर्ष एक खरब डालर की इस सहायता को वर्ष 2020 से शुरू हो जाना था, पर कोरोना महामारी की वजह से समय सीमा को तीन वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। अब भारत ने बढ़ी कीमतों और बदली परिस्थितियों की वजह से सहायता की रकम बढ़ाकर एक सौ खरब डालर प्रतिवर्ष करने की मांग ग्लासगो में जोरदार तरीके से उठाई।

लेकिन विभिन्न देश ठोस कार्रवाई करने से बचते नजर आ रहे हैं, इसलिए 1.5 डिग्री की सीमा तेजी से निकट आती जा रही है। हालांकि ग्लासगो सम्मेलन में उम्मीद पैदा हुई कि अंतत: जलवायु को लेकर कठोर कार्रवाई करने के लिए विभिन्न देश तत्पर होंगे। परन्तु क्या उन तकनीकों के सहारे उत्सर्जन के अवशोषण पर अतिरिक्त भरोसा करके नेट-जीरो लक्ष्य पाने की कोशिश जारी रहेगी या जंगलों का काटना बंद करना और जीवाश्म ईंधनों का उपयोग घटाना व बिजली की खपत कम करने की कोशिश भी होगी? भारत के सामने कौन सा रास्ता है? क्या वह अपने बल पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मुकाबला कर सकेगा?

(अमरनाथ वरिष्ठ पत्रकार हैं और जलवायु मामलों के जानकार हैं। आप आजकल पटना में रहते हैं।)

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