आपदा की वजह प्राकृतिक कम इंसानी ज्यादा है

कई बार अखबार की सुर्खियां हमारी रोजमर्रा की समझदारी में बदल जाती हैं। खबरों में कुछ शीर्षक यहां देख सकते हैंः प्राकृतिक कोप का विकराल रूपः लाखों बेघर; बारिश ने ढाया कहर; बादल अभी तरसायेंगे, अभी नहीं होगी बारिश; प्रकृति का कहरः पूरा गांव बारिश में बह गया; जब बादल हों नाराज, तब क्या कर लेगा इंसान; नदी ने लिया रौद्र रूपः हजारों लोगों को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। ये शीर्षक बताते हैं कि इंसान के साथ प्रकृति का रिश्ता एकतरफा है।

जब बांध या पुल टूट जायें, तब भी बहुत सारा दोष प्रकृति पर डाल दिया जाता है। लेकिन इस तरह की खबरों में जरूर प्रशासनिक कमियों के बारे में लिखा जाता है। और, यदि तीर्थाटन के समय में प्राकृतिक आपदा आ जाये तब उस देवता के क्रुद्ध होने, रौद्र रूप धरने की खबर मुख्य हो जाती है और प्रकृति उसका माध्यम हो जाता है।

उपरोक्त खबरों के शीर्षक में इंसान एक निरीह की तरह होता है, मानों प्रकृति के साथ उसका कोई रिश्ता ही नहीं हो और वह मात्र एक बेबस शिकार है। जबकि इन खबरों को पढ़ने वाला जान रहा होता है कि ऐसा नहीं है। वह जानता है कि उसने प्रकृति को ज्यादा तबाह किया हुआ है। वह यह भी जानता है कि इस तबाही को अंजाम देने में जो उस जैसा आम इंसान है उसकी भूमिका न्यूनतम है और जो उसके मालिकान, शासक, फैक्ट्रियों के मालिक, पूंजीपति, बैंकर और सरकारें हैं, वह इसमें अधिकतम भूमिका में हैं।

ऐसे में वह इस मसले पर हस्तक्षेप करने में खुद की बेबसी को जानता है, वैसे ही जैसे रोजमर्रा के अन्य मामलों में बेबस है और उसे भगवान के भरोसे समझ लेता है। समाचारों की सुर्खियां इस बेबस आत्मा को इस ‘प्राकृतिक आपदा’ से जोड़ देती हैं और जो हो रहा है उसे सह लेने की आदतों में बदल देने में लगी रहती हैं।

जिस समय दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बारिश रिकॉर्ड तोड़ रही थी, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में किसान मॉनसून के इंतजार में थक कर खेतों में ट्यूबवेल से पानी चलाकर धान की रोपाई कर रहे थे। बहुत सारे किसानों ने धान की खेती न लगाने के निर्णय की ओर बढ़ गये हैं। राजस्थान से लेकर झारखंड तक खरीफ फसल की कुल बुवाई का क्षेत्रफल ही घट गया है।

वहीं दूसरी ओर, हिमाचल प्रदेश से लेह की ओर बढ़ें और लाहौल स्पीति के दर्रों की ओर जायें, ऊपर लद्दाख की ओर चलें तो वहां की जमीन बेहद सूखी मिलेगी, पेड़ एकदम कम मिलेंगे। ये इलाके वर्ष के अधिकांश समय में बर्फ से ढके रहते हैं। यहां बारिश एकदम  कम होती है। इसे बर्फ का रेगिस्तान कहा जाता है। लद्दाख में 8 और 9 जुलाई को 10,000 प्रतिशत अधिक बारिश हुई। हिमाचल में 1,193 प्रतिशत अधिक बारिश हुई।

लाहौल-स्पीति में इस 9 जुलाई को 3,640 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई है। यहां जुलाई में 3 मिमी की बारिश होती है। और इसी जून में जितनी बारिश होती है उससे 66 प्रतिशत कम बारिश हुई। पिछले साल भी यहां असामान्य बारिश से काफी तबाही हुई। यह घटनाएं कुछ ही सालों से नियमित तौर पर घटती हुई दिख रही हैं। दूसरी ओर यहां के ग्लेशियर पिघलते हुए पीछे जा रहे हैं। यह छोटा बदलाव नहीं है और इसका असर इतना है कि इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

पिछले कुछ सालों में भारत ही नहीं, अन्य कई देशों में पहाड़ के ऊंचे हिस्सों में असामान्य और तेज बारिश की घटनाएं तेजी से बढ़ती हुई दिख रही हैं। इससे होने वाली तबाही, पूरी परिस्थितिकी, जिसमें इंसान भी हिस्सा है, को निर्णायक तौर पर प्रभावित कर रही है। पंजाब और हरियाणा की बारिश की बदहाली वहां के खेतों में लगी फसलों के डूब जाने के दृश्यों में देखा जा सकता है। वहीं दिल्ली में यमुना में पानी का स्तर तेजी से उठते हुए 1978 का रिकॉर्ड तोड़ता हुआ दिख रहा था।

यदि हम इसके प्राकृतिक कारणों की तलाश में जायें, तो मौसम विज्ञानी बता रहे हैं कि अल-नीनो का प्रकोप एक बड़ा कारण है। पश्चिमी विक्षोभ जो अरब सागर से उठता है, का असर दक्षिण-पश्चिम की ओर से बनने वाले दबाव को बढ़ा दिया है। वहीं, बंगाल की  खाड़ी की गर्म हवाएं उत्तर-पश्चिम की ओर दबाव बना रही हैं। आमतौर पर इस गर्म हवाओं की, मॉनसून को एक गति देकर उत्तर भारत में नमी बनाने और बारिश को संभव बनाने में एक बड़ी भूमिका होती है।

लेकिन, अंडमान समुद्र से आने वाली गर्म हवा इसमें आ मिली है, जिससे गर्म लहरें चल रही हैं। समुद्र की सतह गर्म हो रही है। इससे जून के महीने में इसकी ज़द में आने वाले इलाकों में असामान्य गर्मी की लहर चली। वहीं जून के अंत में उत्तर-पूर्व में असामान्य बारिश की स्थिति देखी गई। दूसरी ओर दक्षिणी पश्चिमी हिस्से में चक्रवात और बारिश का नजारा देखने को मिला। और, फिर उत्तर भारत के राज्यों में बारिश का कहर टूट पड़ा।

इस कथित प्राकृतिक आपदा की जद में खुद प्राकृतिक जीवन ही तबाह हो रहा है। तटीय इलाकों की परिस्थितिकी पर गंभीर असर पड़ रहा है। ऊंची बर्फीली जगहों पर एक तरफ ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पहाड़ क्षरित हो रहे हैं। कश्मीर की झीलों में बर्फ की भूमिका कम होने से पानी का स्तर और उसकी जैविक क्षमता दोनों ही कम हो रहे हैं। हिमाचल में पहाड़ टूट रहे हैं। दूसरी तरफ यदि हम बंगाल की ओर जायें तो वहां के सुंदरवन की जैविक विविधता, वनस्पतियों, जंगलों पर गंभीर असर पड़ रहा है।

प्रकृति के व्यवहार में ये बदलाव हो ही क्यों रहा है? जिस प्रकृति के साथ मनुष्य एक सुकून हासिल करता है, उसी में जीता है, उसे ही अपने जीवन की जरूरतों में ढालता हुआ अंत में उसी की गोद में सो जाता है। आज, इन दोनों के बीच एक युद्ध की स्थिति दिख रही है। इसमें लोग मारे जा रहे हैं, और प्रकृति की प्राकृतिक स्थितियां भी मर रही हैं। इंसान और प्रकृति के बीच का रिश्ता ठीक वैसा नहीं है, जैसा इंसान और इंसान के बीच का है। लेकिन, बहुत सारी समानताएं भी हैं।

यदि हम बहुत सारे कुतर्कों को छोड़ दें और एक आम सा उदाहरण लें, तो हम आसन्न खतरों से आगाह हो सकते हैं। प्रकृति के अध्येयताओं ने बताया है कि एक वयस्क पेड़ साल भर इंसानों की सांस मुहैया कराता है। पेड़ और इंसान के बीच उनकी संख्या के आधार पर ऑक्सीजन की स्थिति का अनुमान कर सकते हैं। जितने कम पेड़ होंगे, सांस के लिए जरूरी ऑक्सीजन की मात्रा उतनी ही कम होगी।

2019 में, अमर उजाला अखबार की खबर को माने तो एक पेड़ की ऑक्सीजन पर 20 लोग निर्भर थे। 1,268 वर्ग किमी में बसा पानीपत एक औद्योगिक शहर है और उस समय लगभग 36 हजार लोग सांस की गंभीर बीमारियों से ग्रस्त थे। लेकिन, यहां हमें एक सावधानी बरतनी है। प्रकृति और इंसान के बीच इतना सीधा और सरल रिश्ता नहीं होता है। 

एक औद्योगिक शहर अपने कच्चे माल के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर होता है और बसने के लिए एक व्यापक जमीन की जरूरत होती है। जिस तरह के उद्योग उसी तरह का प्राकृतिक दोहन। उद्योग में लोहा, तांबा, जस्ता, अभ्रक आदि से लेकर लकड़ी, कोयला, पानी आदि की जरूरत होती है। बिजली के लिए पानी और ताप बिजली संयंत्रों की जरूरत होती है। मकानों को खड़ा करने के लिए ईंटों की जरूरत होती है। बड़े पैमाने पर रसायनों की जरूरत होती है। कपास से लेकर अनाज और दूध आदि की जरूरत होती है। तेल की विविध वैरायटी की जरूरत होती है, जो ईंधन से लेकर भोजन सामग्री बनाने के लिए जरूरी होती हैं। यह सब प्रकृति से मिलता है और इसके लिए प्रकृति का दोहन होता है। 

इन उद्योगों से निकलने वाला कचरा इस प्रकृति के विविध हिस्सों में डाला जाता है। प्रकृति इससे भी बर्बाद होती है। यह सब करने वाले सभी आम इंसान नहीं होते। आम लोग तो इस औद्योगिक गति में बर्बाद होते हुए, इस उद्योग के उसी तरह के कल-पुर्जे बन  जाते हैं जिस तरह प्रकृति बन जाती है। यह बैंकरों, पूंजीपतियों आदि शासक समूहों का आम इंसानों के बरख्स एक बहुत छोटा सा हिस्सा होता है।

यह अपनी जरूरतों के लिए उत्तराखंड से लेकर हिमाचल के पहाड़ों को पानी और बिजली परियोजना के लिए सुरंगों और विशाल पानी के रिजर्वायरों से भर दिया है। पर्यटन उद्योग के नाम पर सड़कों, होटलों से लेकर आरामगाहों का निर्माण, पहाड़ों को बोझ से लाद दिया है। इसने मैदानों में खेतों की विविधता को खत्म किया और जंगल के इलाकों को बंजर बना दिया। इस प्रक्रिया में करोड़ों लोगों को बेघर करते हुए उन्हें झुग्गी-बस्तियों में फेंक दिया, और वह इन्हें यहां भी चैन से रहने नहीं देता है।

उपरोक्त औद्योगिक समाज का निर्माण पूरी दुनिया में हुआ है। लेकिन, भारत की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक उन्नत औद्योगिक समाज यूरोप और अमेरीका में पैदा हुआ। ये औद्योगिक देश मुनाफे की हवस में सैकड़ों प्राकृतिक जीवों, पेड़ों और पौधों को ही नष्ट नहीं किये, इन्होंने कई मानवीय समूह की पहचानों को भी हिंसक तरीके से खत्म कर दिया। इन्होंने एशिया, लातिन अमेरीका से लेकर अफ्रीका के देशों के प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर यहां भी प्राकृतिक संकट की स्थिति को जन्म दिया। इसकी भयावहता को हम आज भारत के कई हिस्सों में देख सकते हैं, और उस समय की शुरू हुई लूट की अगली कड़ी को हम देश के विविध हिस्सों में आज भी महसूस कर सकते हैं।

यहां अक्सर यह निष्कर्ष निकाल लिया जाता है कि ‘तब तो औद्योगिक समाज की जरूरत ही क्या है? हमें ‘प्रकृति की ओर’ लौट जाना चाहिए। यहां यह समझना भी जरूरी है कि प्रकृति का इंसान के साथ एकतरफा रिश्ता नहीं है। इंसान पैदा ही हुआ प्रकृति को  समझकर। वह प्रकृति के उन नियमों को समझा जिनसे वह डरता था। एक बार जब वह उन नियमों को समझ गया, प्रकृति का उपयोग अपने जीवन को आगे ले जाने में किया। इंसान मौसम, जीव, जंगल से लेकर ब्रह्मांड के नियमों के प्रति अपनी समझ को  विकसित करते हुए निरंतर खुद को आजाद करता गया है। प्रकृति के साथ उसकी अनिवार्य निर्भरता खत्म हुई और खुद की आजादी हासिल करता हुआ एक उन्नत सभ्यता का निर्माण किया।

जब हम सिंधु सभ्यता के पतन का इतिहास को पढ़ते हैं, तब उसमें एक बड़े कारण के रूप में उत्तर-पश्चिम की नदियों के सूखते जाने को देखते हैं। इसका असर कच्छ से लेकर राजस्थान तक पड़ा। यह सभ्यता बाद के समय में खिसकते हुए हरियाणा के शहरों से होते हुए नीचे की ओर फर्रुखाबाद, एटा तक आ गई। क्योंकि उस समय यमुना 100 किमी पूरब की ओर बढ़ गई थी जबकि गंगा और भी नीचे की ओर जा रही थी। सभ्यता के नये केंद्र हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार की ओर खिसकते गये।

वहीं, गुजरात से नीचे महाराष्ट्र, कर्नाटक और दक्षिण के राज्यों में हम नई सभ्यताओं को बनते हुए देख सकते हैं। उस समय इंसान और प्रकृति के बीच प्रकृति एक निर्णायक स्थिति में थी। मध्यकाल तक हम पानी और खनिजों के प्राकृतिक स्रोतों के पास ही विशाल राज्यों का उद्भव देखते हैं। लेकिन औद्योगिक आधुनिक समाज ने इंसान की प्रकृति की समझदारी को इस हद तक बढ़ा दिया कि वह उसका मालिक बन बैठा। इसने स्वेज नहर खोदकर सागर में नया रास्ता ही बना डाला। हवाओं की जगह मशीनी ताकत से साल भर माल की ढुलाई करने लगा। नहरों और बांधों से पानी की जरूरत उन जगहों पर पूरी की जहां पानी की उपलब्धता नहीं थी। 

इसने प्रकृति और इंसान के बीच के रिश्ते को ही बदल डाला। इस बदलाव को कहानी के माध्यम से समझना है तो इसे अर्नेस्ट हेमिग्वे की कहानी ‘मछुवारा और समुद्र’ में पढ़ सकते हैं। इस कहानी में बूढ़ा हो चला मछुवारा अपनी मछली पकड़ने की अपनी खूबी का प्रदर्शन करता है। वह शार्क को गिरफ्त में ले लेता है। मछुआरा और शार्क के बीच का युद्ध खूब चलता है। मछुआरा जीत जाता है। लेकिन, वह समुद्र में जितना अंदर गया होता है, वहां से लौटने में समय लगता है। वह तट पर पहुंचकर मछली को खींचते हुए घर की ओर बढ़ता है। उस समय मछली के नाम पर कांटों में फंसा एक कंकाल भर बच गया था। यह खूबसूरत कहानी प्रकृति और इंसान के बीच के रिश्ते को दिखाती उस मर्म को भी बयान करती है, जिसमें जीत और तबाही दोनों के दृश्य हैं। 

दार्शनिक शब्दावली में बात करें तो प्रकृति की तबाही और उससे उपजने वाला संकट, इंसान की तबाही, आवश्यकता और स्वतंत्रता (नेशेस्टी एण्ड फ्रीडम) के बीच चलने वाले समाज का संकट है। आवश्यकता का अर्थ है, इसके बिना कार्य स्वतंत्र तरीके से करना संभव नहीं है। यदि आप बिजली संचरण और संचालन के नियमों के बारे में नहीं जानते, तब आप न तो बिजली पैदा कर सकते हैं और न ही इसका विविध प्रयोग कर सकते हैं। औद्योगिक समाज ने बिजली का संचरण और संचालन दोनों को ही समझा और इसके उपयोग को इतना सरल बना दिया, जिसमें आप एक रिमोट कंट्रोल से इसका उपभोग कर सकते हैं।

यह जो आजादी आई वह नियमों की समझ से आई। यह दार्शनिक शब्दावली सिर्फ प्रकृति पर ही लागू नहीं हुई है। यह इंसानों पर भी लागू हुई। मसलन, मुनाफे के लिए मुख्य कारक कौन से हैं, पर आर्थिक चिंतन लगातार उन्नत हुआ। जैसे-जैसे यह समझदारी बनी कि मुनाफा बाजार में मुद्रा की शक्ल में बदलता है, लेकिन मुनाफे का मुख्य कारक इंसान का अतिरिक्त श्रम है, तब काम के घंटे का मसला औद्योगिक उत्पादन में मुख्य हो गया। इस अतिरिक्त श्रम के दोहन के लिए इस श्रम की लागत को कम करने और श्रम की कार्य अवधि को बढ़ाने वाले आर्थिक चिंतन, प्रबंधन की बाढ़ आ गई। ऐसे चिंतक श्रम, बाजार और प्रकृति को एक ऐसे स्वाभाविक गुण से लैस मानते हैं जिसके बल पर ये खुद को पुनर्निमित करते रहते हैं।

इन दावों में यह साफ दिखता है कि इन जाने गये नियमों का प्रयोग मानव समाज का एक छोटा सा हिस्सा मुनाफा कमाने की अकूत आजादी में बदल दिया है। यही नहीं, बहुत सारे ऐसे ऐतिहासिक क्षण हैं जब मुनाफा कमाने की हवस से जो प्राकृतिक आपदाएं आईं, उसे भी लूट में बदल दिया गया। बंगाल का अकाल हो या अफ्रीकी देशों की लूट, इसे देखा जा सकता है। आज तो स्थिति और भी बदतर हो गई है। प्रशासन से जुड़े अधिकारी ही नहीं, राजनेता तक बाढ़ और सुखाड़ की स्थितियों का इंतजार करते हैं। इस संदर्भ में पी साईंनाथ की पुस्तक ‘एवरीबडी लव्ड ए गुड ड्राॅट’ को पढ़ा जा सकता है। अब तो नदियों के प्रदूषण और उसकी सफाई के नाम पर करोड़ों के घपले सामने आ रहे हैं।

कहा जाता है कि नियम सबके लिए समान होते हैं। लेकिन, हम जानते हैं कि ऐसा नहीं है। जहां से नियम बनने शुरू होते हैं वहीं पर असमानता और इन नियम के प्रयोग की आजादी तय हो जाती है। प्रकृति के नियम भी ऐसे ही हैं। आम जनता के पास सामान्य अनुभव है, उनकी आजादी बस उसी हद तक होती है। और वह जाने गये नियमों को बताने या सीखने के बाद जानती है और उस आधार पर तय शर्तों के साथ उसका प्रयोग करती है।

आज मजदूर यह जानता है कि उसके श्रम का जो शोषण हो रहा है उससे बचने और एक बेहतर जिंदगी-समाज बनाने के लिए संगठन और पार्टी की जरूरत है। वह जानता है कि मुनाफे में हिस्सेदारी की मांग करनी है, दमन के खिलाफ खड़ा होना है। लेकिन, नियम बनाने वालों ने ऐसा करना गुनाह बना दिया है। किसानों को पता है कि खेती की विविधता उनके लिए फायदेमंद है और जब तक खेत हैं, उनकी और उनके परिवार की जिंदगी बची हुई है। लेकिन खेतों का अधिग्रहण, बाजार की मांग और लागत की वृद्धि ने उनका जीवन मुहाल बना रखा है। यही स्थिति आदिवासी समुदाय की है।

वहीं दूसरी ओर कॉरपोरेट समूह जंगलों को नष्ट करते हुए न सिर्फ परिस्थितिकी को संकट में डाल रहे हैं, वहां के इंसानों को उजाड़कर शहरों की ओर भेजने की खुली नीति का प्रयोग कर रहे हैं। वह विशाल हाइवे के लिए जमीनों पर कब्जा जमाते जा रहे हैं और कथित इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के नाम पर गांव के गांव खत्म कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, शहरों में बेराजगारी की स्थिति में उजड़े हुए लोग खेतों और घरों की तलाश में बंजर जमीनों, तालाबों, नदियों से जुड़े हुए मौसमी नालों और उसके पटानों, चारागाहों, परती जमीनों को इनके दावेदार मालिकों की खातिर बटाई पर समतल बनाने, खेती करने और वहीं घर बनाकर रहने के लिए मजबूर हो रहे हैं। 

ऐसा नहीं है कि श्रम, बाजार, मुनाफे के नियम सिर्फ कॉरपोरेट समूह और उसके चिंतकों और कार्यवाहकों को ही पता हैं। आज यह नियम छुपी हुई बात नहीं है। यह नियम चल ही इसलिए रहा है क्योंकि इसके प्रयोग का अधिकार पूंजी के मालिकों ने हथिया रखा है और इंसान और प्रकृति की तबाही का मंजर खड़ा किये हुए हैं। यदि समाज और प्रकृति को केंद्र बनाकर चलने वाले इस नियम के प्रयोग को जनता अपने हाथ में ले ले, तब यह समाज औद्योगिक समाज से भी उन्नत मंजिल की ओर बढ़ जायेगा।

इस संदर्भ में मार्क्स और एंगेल्स का दार्शनिक और आर्थिक चिंतन एक निर्णायक भूमिका अदा करता है। इस संदर्भ में औद्योगिक समाज से आगे जाने के प्रयास, प्रयोग और चिंतन समाजवादी समाजों में खूब हुए और वे आज भी प्रासंगिक हैं, का अध्ययन और उस  चिंतन को सामने ले आने की जरूरत है। सत्ता और मुनाफा जब एक थोड़े से समूहों में केंद्रित होती है, वह इसका प्रयोग प्रकृति और इंसान को बर्बाद करने की ओर ले जाता है। प्राकृतिक आपदा प्रकृति से कई गुना अधिक ऐसे ही सत्ता समूहों द्वारा निर्मित होता है।  एक बराबरी और बेहतरी भरा समाज ही इंसान और प्रकृति के बीच के खूबसूरत रिश्ते को बचा सकता है। अब भी समय है। अंतरिक्ष से पृथ्वी अब नीली कंचे सी दिख रही है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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