वायनाड से आ रही तस्वीरें किसी को भी विचलित कर देने के लिए काफी हैं। एक पूरा गांव बारिश से हुए भू-स्खलन में दब गया। कल दोपहर तक 50 लोगों के मारे जाने की खबर आती रही। उसके बाद संख्या में बढ़ोत्तरी शुरू हुई। आज सुबह तक मारे गये लोगों की संख्या में 143 पहुंच गई थी। राहत कार्य टीम अब मुख्यतः मलबे में दबकर मर गये लोगों को बाहर ही लाने के काम में जुटी है। मारे गये लोगों के रिश्तेदार और अपने लोगों की पहचान करने, अफसोस और तकलीफ के अलावा और कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है।
वायनाड में हुई त्रासदी के लिए अभी तक आई सूचनाओं में सबसे बड़ा कारण असामान्य बारिश है। यहां सामान्य तौर पर होने वाली बारिश से पांच गुना हुई बारिश एक बड़े कारण की तरह दिख रही है। इस साल केरल में सामान्य से अधिक बारिश की खबर है। पालक्कड़, तिरुवनंतपुरम, मल्लापुरम, किनौर जैसे जिलों में बारिश का स्तर वायनाड से भी अधिक है। वायनाड में बारिश से हुई त्रासदी के लिए उसका भूस्तर विन्यास भी एक बड़ा कारण है। यहां चट्टानों के ऊपर जमी मिट्टी ही वहां की खेती का आधार है। यही जमीन उसकी रिहाइश के लिए भी है। भारी बारिश इस भू-बनावट की कमजोरी को उजागर कर देती है। वायनाड का इलाका भू-स्खलन से प्रभावित क्षेत्र में आता है। निश्चित ही बारिश के अतिरिक्त और कारण भी जमीन की मजबूती को प्रभावित किया होगा। इसमें पानी का बहाव और परिस्थितिकी में छेड़छाड़ भी हो सकता है।
ये कारण निश्चित ही वायनाड के लिए विशिष्ट नहीं हैं। ये कारण भारत के हर हिस्से में दिख सकता है और ये ही कारण अधिक बारिश या अधिक ताप में घातक बन सकते हैं। ये कारण मुख्य मनुष्य और प्रकृति के बीच के संबंधों में आई दरार को दिखाते हैं। जिसका सीधा परिणाम वहां बसे इंसानों के लिए घातक बन रहा है। इनके बीच के संबंधों पर काम करने वाले संस्थान के हस्तक्षेप, सहयोग और प्रबंध की अनुपस्थिति, आगामी त्रासदी की ओर ठेल देने में निश्चित ही एक निर्णयकारी भूमिका में है। लेकिन, इस तरह के संस्थान ‘प्राकृतिक आपदा’ को मुख्य कारक बना देने की वजह से त्रासदी के उत्तरदायित्व से बच निकलते हैं। पिछले कुछ सालों में केरल में असामान्य बारिश से हो रही मौतों की संख्या में तेजी से वृद्धि देखी जा रही है। 2018 में ही केरल में बारिश से लगभग 500 लोगों के मारे जाने की खबर है। जबकि पिछले साल इस प्रदेश में सामान्य से कम बारिश का भी रिकार्ड बना।
वायनाड की खबर के पहले हिमाचल और उत्तराखंड से भी बाढ़, भूस्खलन और मौतों की खबरें लगातार आ रही थीं। महाराष्ट्र के पुणे और मुंबई से बारिश और बाढ़ की दिल दहला देने वाले दृश्य, सोशल मीडिया पर खूब दिखाई दे रहे थे। मध्य प्रदेश के कुछ जिलों से भी ऐसी खबरें दिखाई दे रही थीं। उपरोक्त जगहों की खबरें मुख्यतः असामान्य बारिश से पैदा हुए ‘नजारे’ को दिखा रही थीं। उत्तराखंड और हिमाचल में बारिश की इन खबरों के साथ कुछ और भी छोटी खबरें प्रकाश में आईं, जिसमें बताया गया था कि कुछ जिलों में सामान्य से कम बारिश हो रही है।
मीडिया ज्यादातर मामलों में ‘प्राकृतिक आपदा’ को एक रोमांचक तरीके से दिखाने में लगा रहता है। भू-स्खलन के भयावह दृश्य, जिसमें मकानों का एकदम से बिखरकर बहते हुए नदी में समा जाना, पहाड़ के हिस्से का टूटकर तेजी से नीचे आते हुए गुबार पैदा करना, निचले इलाकों में बारिश और पानी के बहाव से बने दरिया में गाड़ियों के बहते, डूबते जाने के दृश्य आदि को ऐसे पेश किया जाता है, जिसमें त्रासदी कम और मनोरंजन ज्यादा पैदा हो। खासकर, जब एंकर प्रकृति को देवत्व का रूप देते हुए त्रासदी को देव के प्रकोप की तरह पेश करते हैं, तब दर्शक इस भयावह दृश्य का मूक दर्शक बन जाता है। शायद यही कारण है जिसकी वजह से इन बारिशों के भयावह दृश्य के समानान्तर भारत में ही भीषण गर्मी और सूखे के दृश्य को दिखाना प्रासंगिक नहीं मानता।
वायनाड की तस्वीरों के समानान्तर कुछ तस्वीरें कश्मीर से भी सामने आईं। वहां के हजारों पुरूष, महिलाएं और बच्चे चरारे शरीफ की दरगाह पर इकट्ठा हुए और बारिश के लिए मन्नतें मांगी गई। वहां सूखे और गर्मी से खेती तबाही के कगार पर जा रही है। कश्मीर भारत की सबसे ऊंची पहाड़ी वादियों में से एक है। वहां सूखे का अर्थ पेड़ों की जिंदगी और उस पर आने वाले फलों की बर्बादी में अभिव्यक्त होगी। यहां हम याद दिलाना चाहेंगे कि इस बार का जाड़ा भी कश्मीर में सबसे अधिक सूखा गुजरा। पचास सालों में सबसे कम बारिश देखी गई। बहुत देर बाद वहां बर्फबारी हुई जो मई के महीने तक चली। यह एक सामान्य बात नहीं थी। इसके बाद, मई के अंत तक आते-आते गर्म सूखी हवाओं का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसकी झुलस से जम्मू, कश्मीर और लद्दाख जूझते रहे। ये सूखी हवाएं अभी तक मानसून को लाने में सफल नहीं हुई हैं।
कल, 30 जुलाई, 2024 को जब यह खबर वायरल होनी शुरू हुई कि लेह के रिनपोछे हवाई अड्डे पर कई उड़ानें गर्मी की वजह से रद्द हुई हैं, तब जाकर भारत के पर्यावरण का यह हिस्सा भी प्रकाशित हुआ। पिछले हफ्तों से सूखे की वजह से लेह, जो भारत के सबसे ऊंची बसावटों में से एक है, में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जा रहा था। यह जगह इतनी ऊंची है जहां दबाव कम होने से बारिश कम होती है और हवा का घनत्व भी कम रहता है। ऐसे में, वहां हरित क्षेत्र बेहद कम है और सूखी जमीन की अधिकता है।
वहां पानी का मुख्य स्रोत बर्फबारी ही है। इस साल जितनी बारिश होती है, उतनी भी बारिश नहीं हुई है और बर्फबारी में कमी देखी गई है। इसका सीधा असर लद्दाख और लेह के पर्यावरण पर पड़ रहा है। पिछले शनिवार को वहां का तापमान 36 डिग्री सेल्सियस मापा गया जो आने वाले समय में बना रहा। विशेषज्ञों के अनुसार इस ताप में वायुमंडल में हवा का घनत्व कम हो जाता है जिसकी वजह से विमानों के परिचालन में समस्या पैदा होती है। इन कारणों की वजह से वहां से आने और जाने वाली कई उड़ानों को रद्द किया गया।
भारत में बारिश और सूखे का यह परिदृश्य औसत में जरूर खो जाएगा। लेकिन, यदि हम पर्यावरण में आ रहे बदलाव और उसके विशिष्ट परिदृश्य को आंखों के सामने रखें, तब इसे देखना और समझना आसान हो जाएगा। मसलन, उत्तर प्रदेश में आमतौर पर बारिश की स्थिति को सामान्य माना जा रहा है। लेकिन, जिलेवार बारिश की स्थिति सामान्य नहीं है।
दूसरे, यह फसलों की जरूरत के अनुरूप नहीं है। उत्तर-प्रदेश की तराई तक में, नेपाल से उतरने वाली बारिश को हटा देने पर बारिश और पानी की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है। यही स्थिति उत्तर प्रदेश की नदियों की भी है। बारिश के मौसम में आमतौर पर नहरों में पानी की आपूर्ति की मांग किसान नहीं के बराबर उठाते हैं। उत्तर प्रदेश में कई ऐसी खबरें आई हैं, जिसमें किसान सूखी नहरों के सामने खड़े होकर, पानी की आपूर्ति की मांग कर रहे हैं।
इस जुलाई का 21 और 22 तारीख को विश्व तापमान के औसत ने सर्वोच्च शिखर देखा। यह ऐतिहासिक घटना थी। इस बढ़ते तापमान वाले विश्व के मानचित्र पर हमारा भी देश है। इस तापमान से उबलने वाले समुद्री हवाओं का सीधा असर हमारे जीवन, पर्यावरण पर पड़ रहा है। इस पर्यावरण में सिर्फ जंगल ही नहीं शहरों का विस्तार भी पूरे असर के साथ सामने आ रहा है। एक तरफ जंगलों को सरकारें जीव अभ्यारण्य बनाने में जुटी हुई हैं। जंगलों और जीवों के साथ जीवन जीने वाले, उन्हें और अपने जीवन को संरक्षित करने वाले आदिवासी समुदायों को खत्म कर देने वाली नीति में आज भी कोई कमी नहीं आई है।
मध्य भारत में हसदेव जैसे जंगलों को खत्म कर देने वाली नीति धड़ल्ले से पास हो जाती है। वहीं, इसका विरोध करने वाले, इस पर लिखने और अपील जारी करने वालों को खत्म करने वाले ऐसे कानूनों को लाया जाता है, जिसका प्रयोग दमन के लिए मनमाने तरीके से किया जा सके। इस विरोध को ‘नक्सलवाद का ईको-सिस्टम’ बताया जाता है, जबकि भारत के ईको सिस्टम को खत्म करने की रणनीति छुट्टे सांड़ की तरह देश के पर्यावरण को नष्ट करने में लगी हुई है। यह विडम्बनापूर्ण स्थिति आने वाले दिनों में निश्चित ही और भी भयावह परिदृश्य को जन्म देगी। निश्चित ही हमें अपने पर्यावरण के संरक्षण के लिए आना होगा।
(अंजनी कुमार लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)