जब आप गाजीपुर बाॅर्डर से दिल्ली में प्रवेश करेंगे और आप दिल्ली में नये हैं,तो एक दृश्य आपको अचंभित कर देगा और आप सोचने लगेंगे, कि क्या अरावली की पर्वत श्रृंखला यहाँ तक चली आई है, परन्तु इन विशाल पहाड़ों के निकट आने पर दमघोंटू भयानक बदबू और उसके ऊपर उड़ते चील-कौवे देखकर आपको यह पता लगेगा, कि ये विशाल पहाड़ वास्तव में कूड़े के हैं। दिल्ली में इस तरह के तीन और विशाल पहाड़ हैं। चंडीगढ़ से दिल्ली आते समय भलस्वा का कूड़े का पहाड़ तो कुतुबमीनार से भी ऊँचा बताया जाता है। इन कूड़े के ढेरों से ख़तरनाक मीथेन गैस निकलती है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है।
अकसर इसमें आग लग जाती है, तो दम घोंटने वाले धुएँ से आस-पास के लोगों रहना दूभर हो जाता है। दो-तीन वर्षों पूर्व बरसात में एक दिन गाजीपुर के कूड़े के पहाड़ का ढेर अचानक ढह जाने से उसमें दबकर तीन लोगों की मौत हो गई थी। हर बार दिल्ली चुनाव में ये कूड़े के पहाड़ भी एक ज्वलंत मुद्दा बन जाता है। इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने यह घोषणा की थी,कि चुनाव जीतने पर वह दिसंबर तक इस गाजीपुर में स्थित कूड़े के पहाड़ को हटवा देगी अथवा एनटीपीसी से समझौता करके इस कूड़े से बिजली बनाई जाएगी, परन्तु अभी तक तो इसमें कोई ख़ास प्रगति दिखाई नहीं दी है।
लेकिन अगर यह हट भी जाता है,तो क्या यह इसका स्थायी समाधान है? वास्तव में दिल्ली सहित दुनिया भर के विकसित देशों के महानगरों में बड़े-बड़े ये कूड़े के पहाड़ पूँजीवादी उपभोक्तावाद का परिणाम है। कूड़े का विशाल साम्राज्य और उससे पर्यावरण का अत्यधिक विनाश अब केवल दिल्ली जैसे महानगरों की ही समस्या नहीं रह गई है, अब यह छोटे-छोटे शहरों को भी अपने आगोश में ले रही है।
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून एक शान्त खूबसूरत और स्वच्छ शहर माना जाता था,प्राकृतिक सौंदर्य और हरियाली लोगों का मन मोह लेती थी। इसके उत्तराखंड राज्य की राजधानी बनने के बाद यहाँ पर तेज़ी से आबादी बढ़ने लगी,जिसके कारण प्राकृतिक पहाड़ों और जंगलों को काटकर बड़ी-बड़ी बहुमंजिला इमारतें बनने लगीं, जिसके कारण एक ओर तो हिमालय के अतिसंवेदनशील स्थल पर पर्यावरण के विनाश के साथ-साथ कूड़े के बड़े-बड़े पहाड़ खड़े होने लगे।
देहरादून की पछवादून घाटी में एक बेहद खूबसूरत जगह है–बायाखाला। यह आसन नदी के किनारे पर है और इसके ठीक सामने पछवादून की हरी–भरी रसीली पहाड़ियाँ हैं। कुछ सालों पहले तक यह इलाक़ा एक विशाल खूबसूरत पेंटिंग जैसा दिखता था। बरसात के मौसम में बासमती धान की सीढ़ीदार पट्टियाँ इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देती थी, लेकिन कुछ ही सालों में यह इलाक़ा एक बदबूदार नर्क में तब्दील कर दिया गया है।
आसन नदी के खूबसूरत तट से लेकर बायाखाला और शीशमबाडा गाँव की दहलीज़ों तक की कई बीघे जमीन पर कूड़े का पहाड़ खड़ा कर दिया गया है। इससे हर समय इतनी भयानक और ज़हरीली बदबू निकलती रहती है,कि बाहर से आए किसी इंसान के लिए एक मिनट खड़ा होना भी दूभर हो जाता है।
यह बदबू इलाक़े के निवासियों के जिस्म और कपड़ों से लेकर वहाँ की हर चीज में समा चुकी है। बरसात में कचरा रिस-रिसकर जमीन के नीचे के पानी में घुलता जाता है,जिससे पूरे इलाक़े का पानी ज़हरीला और बदबूदार हो गया है। पर्यावरण लोक मंच देहरादून के युवाओं ने कूड़े के पहाड़ से इलाके के आम लोगों की जिन्दगी पर पड़ने वाले प्रभाव की सरसरी जाँच-पड़ताल की है।
यह कचरे का पहाड़ एक ‘सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट’ के नाम पर 2016 से खड़ा किया जा रहा है। इसकी मंजूरी देते समय सरकार ने किसी भी पर्यावरण सम्बन्धी नियम का पालन नहीं किया था। जब कचरा प्लांट के लिए काम शुरू किया तब अधिकारियों ने कहा था, कि यहाँ एक बाल और महिला विकास सेंटर बनाया जाएगा। यह अफ़वाह भी फैलाई गई, कि यहाँ बाँस की फैक्ट्री लगेगी और स्थानीय लोगों को रोज़गार मिलेगा। कभी बताया जाता कि यहाँ बच्चों के लिए स्टेडियम बनेगा। बाद में सरकारी लोग ‘सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट’ और ‘प्लांट’ जैसे शब्द बोलते थे। उनकी बातों से इसकी भनक भी नहीं लगती थी, कि यहाँ देहरादून शहर ही नहीं आसपास के इलाक़ों का भी कचरा जमा किया जाएगा। सरकार नें ऐसा मैनेजमेंट किया,कि इलाक़े के लोगों की ज़िन्दगी नर्क हो गयी है ।
जब लोगों को सच का पता चला,तब उन्होंने इस कचरा प्लांट के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त विरोध किया। इसके बावज़ूद सरकार ने लाठी–गोली के जबरिया तरीक़े से कूड़ा डलवाना शुरू करवा दिया और साथ ही इलाक़े की लोगों की एकता तोड़ने तथा लोगों को इस प्लांट से होने वाले फायदे गिनवाने में लग गयी। दावा किया गया कि ‘कूड़ा प्लांट’ से स्थानीय लोगों को बहुत रोज़गार मिलेगा। इस प्लांट में आने वाले कचरे का इतना शानदार ‘प्रबन्धन’ किया जाएगा,कि आस–पास के लोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी।
बायाखाला के एक शिक्षक भगत सिंह बताते हैं, कि लोगों को यह बताया गया था कि यहाँ कचरे से बिजली बनाई जाएगी और इलाक़े के लोगों को मुफ़्त बिजली मिलेगी । बिजली तो नहीं मिली, पर इस कचरे के पहाड़ से ज़हरीली हवा और ज़हरीला पानी पीने को ज़रूर मिल रहा है। कचरा प्लांट के ख़िलाफ़ इलाक़े के लोग 2016 से ही लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। इस संघर्ष में एक व्यक्ति इमरान पुलिस लाठीचार्ज में शहीद भी हो चुका है। धरना प्रदर्शन के अलावा लोगों ने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया,लेकिन किसी ने उनकी एक न सुनी। लगता है पूरी राज्य मशीनरी इस मुद्दे पर इलाक़े की जनता के ख़िलाफ़ खड़ी है।
सरकार ने इस जनान्दोलन को तोड़ने की भरपूर कोशिश की है। शुरुआत से ही इस जनान्दोलन से जुड़ी उमा देवी ने बताया,कि प्रशासन ने आन्दोलन के अच्छे और सक्रिय नेताओं को आन्दोलन से दूर करने के लिए डर,धमकी,लालच जैसे सारे रास्ते अपनाए। हमारी एक ही माँग है कि इस कचरे के पहाड़ को हमारे घर के सामने से हटाया जाए। क्या सरकारी अधिकारी,जज और शहर के अमीर लोग अपने दरवाजे पर कचरे का ढेर बर्दास्त करेंगे ?
जितेन्द्र एक सचेत नौजवान है और बायखाला से सटे हाईवे पर एक दुकान चलाता है। वह लगातार इस आन्दोलन से जुड़ा रहा है। उसने बताया, कि हम शुरू से ही लोगों को बता रहे थे, कि कचरा प्रबन्धन करना हवाई बात है, यहाँ पूरे शहर का कूड़ा जमा किया जाएगा, लेकिन तब लोगों के दिमाग पर सरकार का झूठा प्रचार हावी था। आज इस कचरे ने आसन नदी में ही नहीं बल्कि हम सबकी ज़िन्दगी में भी ज़हर घोल दिया है,पता नहीं सरकार ने हमें किस गुनाह की सज़ा दी है।
देहरादून वेस्ट मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड की मलिक कम्पनी ‘रेमकी’ है। इस कम्पनी का कचरा प्रबन्धन का काम देश भर में फैला है। पहले यही शीशमबाडा प्लांट का संचालन करती थी। जितेन्द्र ने यह भी बताया, कि प्लांट बनने से पहले रेमकी कम्पनी ने पर्यावरण स्वीकृति रिपोर्ट में झूठा दावा किया था कि परियोजना साइट के आस पास कोई भी आवासीय इलाका नहीं है, जबकि यहाँ दस हज़ार से ज्यादा की आबादी रहती है।
आज कल किसी भी परियोजना को पर्यावरण स्वीकृति दिलाना एक मुनाफ़े का धन्धा हो गया है। देश भर में तमाम प्राइवेट कम्पनियाँ इस काम में कूदी हुई हैं। देहरादून शहर में ही ऐसी कई कम्पनियाँ है, जो झूठी रिपोर्ट बनाकर तरह-तरह की परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी दिला रही हैं। रेमकी इस खेल की धुरन्धर खिलाड़ी थी, न जाने नेता, कितनी सरकारें उसकी जेब में पड़ी हैं, कहा नहीं जा सकत।
जब आन्दोलन ऊँचाइयों पर था,तो लोगों ने रेमकी के फर्जीवाड़े को भी उजागर किया। उसके ख़िलाफ़ कई सारे केस दर्ज़ हुए और आखिरकार जनता ने उसे प्लांट छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया,लेकिन इससे जनता को कोई राहत नहीं मिली और सरकार ने प्लांट के सञ्चालन की जिम्मेदारी एक गुमनाम से एनजीओ पर डाल दी। कचरा प्लांट में लगभग 40 मज़दूर काम करते हैं। हमें वहाँ घुसने पर तीखी बदबू के चलते उबकाई आ रही थी।
अधिकतर मजदूर उसी बजबजाते कचरे की छटाई कर रहे थे। हमारे लिए वहाँ खड़ा होना नामुमकिन हो गया, तो हम वहीं पास में बनी झोपड़ी में चले गए। यह झोपड़ी प्लांट में काम करने वाले एक मज़दूर मानसिंह की थी,जो यहाँ पिछले सात साल से अपने परिवार के साथ रह रहा है। मानसिंह ने बताया कि रेमकी कम्पनी ने कुछ भी काम नहीं किया था। 3 कम्पनी और सरकारी अधिकारी आपस में मिलकर सारा पैसा खा गए। हमने उनसे पूछा “आप यहाँ इस झोपड़ी में कैसे रह लेते हैं, जबकि इस बदबू में हमारे लिए थोड़ी देर रहना भी भारी हो गया।” वे कहते हैं कि “अब इसमें जीने की आदत हो गई है, तुम्हें जरूरत पड़ेगी तो तुम भी रह लोगे।”
मानसिंह के झोपड़े के पास ही प्रेमा का अधबना घर है,जिसमें दो कमरों के लिए पक्की दीवारें खड़ी हैं। एक कमरे की दीवारों पर पत्थर से दबाकर टीन ढक दी गई है,इस कमरे में घर का सारा सामान और रसोई है, दूसरा कमरा बिना छत का है प्रेमा और उसका तीन नाबालिक बच्चों का परिवार रहता है जाड़े बरसात या धूप में यह परिवार कहाँ पनाह लेता होगा? यह हमें समझ नहीं आया। प्रेमा का पति कई साल पहले उसे छोड़कर जा चुका है,पूरा परिवार मज़दूरी करके गुजर–बसर कर रहा है। जिन्दगी ने प्रेमा के व्यवहार में तल्खी भर दी है। हमारे एक–दो सवाल के बाद ही वह तल्ख होकर कहने लगी,कि “बरसात में आकर देखना,कचरे के पहाड़ से निकला नाला मेरे घर में से होकर बहता है।”
प्रेमा ने घर के बाहर लगे हैण्डपम्प को चलाकर दिखाया,उसका पानी पीला और बदबूदार झाग से भरा था। वे वही पानी इस्तेमाल करते हैं और पीने का पानी कहीं दूर से लाते हैं। आस–पास के सभी घरों के हैण्डपम्प का यही हाल है। थोड़ी ठीक हैसियत के घरों में समर्सिबल लगा है, उनसे भी पीला बदबूदार पानी आता है, इसी दौरान प्रेमा की पड़ोसन ममता भी आ गई। उसने कहा कि बदबू के चलते उनके रिश्तेदार और परिचित उनके घर आना पसन्द नहीं करते है। नए आदमी को तो यहाँ खाना खाते के समय उल्टी आ जाती है, आँखों में जलन होती है,साँस लेने में तकलीफ़ होती है। यहाँ की हवा इतनी ज़हरीली है, कि एक रात हवा की जाँच के लिए मशीन लगाई गई थी, सुबह तक मशीन में लगा फिल्टर पेपर पूरी तरह से काला हो गया था।
कचरे के पहाड़ के पास ही सन्तोष का घर है उसने बताया,कि इस साल पूरे देहरादून में सेलाकुई के इलाके से सबसे ज़्यादा लोग डेंगू की चपेट में आए। कचरे की वजह से अजीब तरह के मक्खी-मच्छर पैदा हो गए हैं। उसका बेटा भी डेंगू की चपेट में आ गया था। डॉक्टर ने इतनी तेज़ दवाई दी कि बेटे का लीवर फेल हो गया, अब उसको हर तीसरे दिन अस्पताल ले जाकर डायलिसिस करवाना होता है, शायद यह उसको पूरी ज़िन्दगी तक करवाना पड़े। सन्तोष ने एक उल्टी बात भी बताई कि यह पता होने के बावज़ूद कि यह जगह नरक है फिर भी यहाँ किराये पर कमरा नहीं मिलता।
सस्ते किराए के चक्कर में सेलाकुई में काम करने वाले मज़दूर यहीं कमरा लेना चाहते हैं। पूरा दिन मेहनत करने वाले ये लोग यह भी नहीं सोचते कि वे यहाँ दो घड़ी चैन से आराम भी नहीं कर पाएँगे और अगर बीमार हुए तो इलाज़ भी करवाना उनके बस से बाहर है, इसी दौरान प्रेमा फिर से हमारे पास आ गई। इस बार वह और ज्यादा तल्ख थी, उल्टा हमसे ही सवाल करने लगी–“क्यों भाई ये कूड़ा तो सारे शहर का है, फिर इसे शहर के बीच में घन्टाघर पर क्यों नहीं डालते। या फिर राजपुर रोड और बसन्त विहार में क्यों नहीं डालते? मज़दूर ही इतने फालतू हैं, कि उनके घर के आगे कूड़ा डालो। कैन्ट में मुख्यमंत्री का घर है,वहाँ खूब खाली जगह पड़ी है, वहां कोई कूड़ा डालकर दिखाए…।”
कचरे के ढेर हमेशा गरीबों की बस्तियों के पास ही खड़े किये जाते हैं, कभी भी अमीरों की कालोनियों में नहीं,जो सबसे ज्यादा कचरा पैदा करते हैं। इससे होने वाले पर्यावरण विनाश की कीमत भी हमेशा सबसे ज्यादा गरीब लोग ही चुकाते हैं। वास्तव में पर्यावरण संकट का चरित्र भी पूरी तरह वर्गीय है।
(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक एवं स्वतंत्र टिपप्णीकार हैं)