झारखंड: एनडीए व इंडिया गठबंधन दोनों अंदरुनी कलह के शिकार, फिर होगा किसका बेड़ा पार ?

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झारखंड। झारखंड में विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा ने 68 उम्मीदवारों की जो सूची जारी की है, उनमें कई वर्तमान विधायक और कई वरिष्ठ नेताओं को किनारे करके कुछ नये चेहरे तो कुछ पुराने हारे हुए सांसदों व विधायकों को प्राथमिकता दी गई है।

इसके बाद इन किनारे किए गए नेताओं में असंतोष इतना बढ़ गया कि उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा जिसे कोसते उनकी जुबान नहीं थकती थी, में शामिल होने में कोई गुरेज नहीं किया। फिर तुर्रा यह कि झामुमो ने भी इन्हें अपनी गोद में केवल बिठाया ही नहीं बल्कि चुनावी समर में अपना तीर कमान देकर उतार भी दिया है।

बताया जाता है कि झामुमो में शामिल होने वाले इनके कई चेहरे संघ की गोद में पले बढ़े हैं और राज्य के आदिवासी समुदाय को हिन्दुत्व का पाठ पढ़ाते रहे हैं। राजनीतिक गलियारे में यह भी चर्चा है कि इनका झामुमो में आना भविष्य में झामुमो की सेहत के लिए ठीक नहीं है।

ऐसी संभावना जताई जा रही है कि यदि ये लोग चुनाव जीत जाते हैं तो भी अपनी संघी मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकते और भविष्य में जेएमएम को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं।

देखना अब यह है कि ऐसे में ऊंट किस करवट बैठता है।

भाजपा छोड़कर झामुमो में जाने वाले कई पूर्व विधायकों में लुईस मरांडी, कुणाल सारंगी और लक्ष्मण टुडू सहित बीते तीन बार के भाजपा के विधायक रह चुके केदार हाजरा भी शामिल हैं। वहीं भाजपा की सहयोगी आजसू पार्टी के उमाकांत रजक भी सत्तारूढ़ दल जेएमएम में शामिल हो गए हैं। 

मीडिया में अपना दर्द बयान करते हुए कुणाल सारंगी ने कहा है कि मैंने विदेश की नौकरी छोड़ दी और समाज की सेवा करने के लिए भारत आ गया। मैंने सभी महत्वपूर्ण लोगों तक पहुंचने की कोशिश की, लेकिन किसी ने इसकी परवाह नहीं की।

यह पता लगाने की कोशिश भी नहीं की गई कि क्या गलत है। लोकसभा चुनाव के दौरान जमशेदपुर सीट के लिए मुझे शॉर्टलिस्ट किया था, लेकिन अब टिकट देने से इनकार कर दिया गया। बीजेपी में किसी ने भी मुझे फोन करने की भी जहमत नहीं उठाई। 

24 साल तक भाजपा की सेवा करने को लेकर लुईस मरांडी का दर्द यह है कि इतने सालों तक पार्टी की सेवा के बाद उससे अलग होना दुखद तो है, लेकिन इतने वर्षों की सेवा का पार्टी ने जो सिला दिया है वह और भी दुखद है। वे कहते हैं भाजपा ने 2014 में दुमका में ऐतिहासिक जीत दर्ज की, जिसे झामुमो का गढ़ माना जाता था।

अब भाजपा ने उस महिला को सम्मान दिया जो बाहर से पार्टी में लाई गई है (मरांडी का इशारा सीता सोरेन की ओर था) और पूरा जीवन पार्टी के लिए समर्पित करने वाले को किनारे कर दिया गया।

मरांडी ने कहा कि भाजपा चाहती थी कि मैं बरहेट से चुनाव लड़ूं, जो मेरे लिए एक नई सीट थी। मुझे मेरी सीट से वंचित कर दिया गया। 

2019 में कांग्रेस की मंजू कुमारी को हराकर जमुआ सीट जीतने वाले केदार हाजरा का दर्द है कि उन्होंने तीन दशकों तक भाजपा की सेवा की लेकिन उनकी उपेक्षा की गई। 

INDIA गठबंधन के प्रमुख दल, झामुमो और कांग्रेस ने अभी तक 63 सीटों पर प्रत्याशी घोषित किए हैं। इसके अलावा घटक दल राजद ने 6 सीटों की घोषणा की है, जबकि भाकपा (माले) लिबरेशन ने 5 सीटों जमुआ, निरसा, सिंदरी, राजधनवार और बगोदर पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है।

जबकि गठबंधन ने जमुआ और राजधनवार पर अपना उम्मीदवार उतार दिया है। वहीं माले भी इन सीटों अपना उम्मीदवार उतार रहा है। जबकि निरसा और सिंदरी मासस का मजबूत पकड़ वाला क्षेत्र है और मासस का माले में विलय के बाद यह क्षेत्र माले के लिए मजबूत क्षेत्र हो गया है।

वहीं राजधनवार से माले के राजकुमार यादव विधायक रह चुके हैं और बगोदर से विनोद कुमार सिंह माले के वर्तमान विधायक हैं। जमुआ पर भी माले की मजबूत पकड़ है, यही वजह है कि माले इन पांच सीटों पर अपनी दावेदारी कर रहा है।

दूसरी तरफ एक सर्वे से स्पष्ट हुआ है कि गठबंधन के कई विधायकों ने पांच साल जन अपेक्षा अनुसार काम नहीं किया है। कुछ के खिलाफ तो व्यापक आक्रोश भी है। ऐसे कई क्षेत्रों के लोगों की मांग है कि इन्हें बदला जाये।

जनता झारखंड में डबल बुलडोज़र भाजपा राज नहीं चाहती, लेकिन क्षेत्र से कटे और काम नहीं करने वाले विधायकों को गठबंधन द्वारा फिर से टिकट देना जनता की आकांक्षा और उत्साह को कमजोर कर रहा है।

राज्य का खिजरी, सिमडेगा, कोलेबिरा, मनिका, लातेहार, गुमला, बिशुनपुर, सिसई, तमाड़, ईचागढ़, चक्रधरपुर, जग्गनाथपुर, नाला, दुमका जैसे कई क्षेत्रों में वर्तमान गठबंधन के विधायकों के प्रति असंतोष है। ये प्रत्याशी पांच साल तक न तो क्षेत्र में दिखे और न ही क्षेत्र की बुनियादी सुविधाओं पर कोई ख़ास काम किया।

वहीं दूसरी तरफ आम जनता के अधिकारों के उल्लंघन के कई मामले आए लेकिन ये जनप्रतिनिधि जनता के साथ खड़े भी नहीं रहे। सर्वे से पता चलता है कि मनिका और चक्रधरपुर जैसे कुछ जगहों पर इन जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आक्रोश ऐसा है कि इनके विकल्प के रूप में लोग एक मजबूत गैर-भाजपा उम्मीदवार चाहने लगे हैं।

(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं।)

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