23 मई को, मेरी पत्नी मीरा का कोविड का टेस्ट पॉजिटिव आ गया। हमने आनन-फानन में अपनी हाउसिंग सोसाइटी की कार्यकारिणी समिति को सूचित किया और तुरंत अपने को आइसोलेट कर लिया। मीरा को शुरू में केवल हल्का बुखार था, और हम इसे घर पर ही मैनेज कर सकते थे। दो दिनों के बाद, मीरा की बड़ी बहन, गिरिजा का, जो हमारे साथ रहती हैं, और मेरा, दोनों का टेस्ट पॉजिटिव आ गया। गिरिजा को भी उसी तरह कम बुखार था, लेकिन मुझे बाहरी तौर पर कोई लक्षण नहीं थे। मेरे दोस्तों ने इसका श्रेय मेरे नियमित टहलने को दिया। दरअसल मैं दिन में रोज 10 किमी तक टहलता हूं। हालांकि, चौथे दिन, मुझे भी हल्का बुखार हो गया।
तीनों बुजुर्गों वाले हमारे घर में सबके टेस्ट पॉजिटिव हो जाने के साथ, चीजें बदल गईं – और तत्काल चुनौतियां खड़ी हो गईं। हालांकि इस परिस्थिति के बावजूद हमारी देखभाल करने वाले पड़ोसियों के यहां से भोजन और अन्य आवश्यक चीजें आती रहीं और हम अपने आवासीय सोसाइटी के सदस्यों के प्यार और देखभाल की भावना से अभिभूत होते रहे। लेकिन हम अपने प्रति सद्भावना रखने वाले और हमारी चिंता करने वाले मित्रों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए सचमुच “अछूत” बन गए। बाहरी दुनिया के साथ हमारा संपर्क मोबाइल पर चैट और कॉल तक ही सीमित था। हम युवा नहीं हैं: मैं लगभग 74 वर्ष का हूं, मीरा 67 वर्ष की हैं जो एक्यूट अस्थमा की मरीज भी हैं, और गिरिजा 70 वर्ष की है।
कुछ दिनों के बाद मीरा को बुखार के साथ-साथ सांस फूलने लगी; वह घबराने लगीं और अस्पताल में भर्ती होना चाहती थीं। इसलिए, हमने कोच्चि के जाने-माने निजी अस्पतालों में से एक को फोन किया, जहां हम आम तौर पर चेक-अप के लिए जाते हैं, लेकिन उनके पास कोई बेड खाली नहीं था। अंत में, बड़ी झिझक के साथ, हमने सरकार द्वारा संचालित कोविड अस्पताल से संपर्क किया, जहां हमारी दोस्त डॉ. आशा ने मीरा को भर्ती कराया। हमारी सारी आशंकाओं के विपरीत, मीरा जिस अस्पताल में गयीं वहां एक सुखद आश्चर्य की स्थिति थी: प्रवेश सरल था, नौकरशाही के कारण होने वाली कोई देरी या थकाऊ कागजी कार्रवाई नहीं हुई; जैसे ही उसे अपने कमरे में ले जाया गया, कर्मचारी चुपचाप और कुशलता से काम में लग गये- सभी आवश्यक प्रारंभिक जांचें की गईं और रिपोर्टें बिना कोई समय बर्बाद किए प्रभारी डॉक्टरों को भेज दी गईं; भोजन पौष्टिक होता था, और स्वच्छ तरीके से परोसा जाता था और शौचालय बेदाग साफ था।
दो दिन बाद गिरिजा और मेरी हालत चिंताजनक होने लगी। डॉ. आशा ने फिर से हमारी मदद किया और हम दोनों को मीरा वाले कमरे में ही भर्ती करा दिया गया। यह एक बड़ा कमरा था जिसमें तीन बेड लगे थे। इलाज तुरंत शुरू हुआ। नर्सें छह घंटे की शिफ्ट करती थीं। रोगियों की फाइलों को सावधानीपूर्वक रखा जाता था और उनका एक हाथ से दूसरे हाथ में आदान-प्रदान बिल्कुल सहज ढंग से होता था। हम उनके चेहरे नहीं देख सकते थे। वे सभी पूरी तरह से डिस्पोजेबल पीपीई सूट से ढकी हुई होती थीं। वे हमसे बहुत प्यार से बात करती थीं और बेहद सावधानी और सरोकार के साथ हमारी देखभाल करते हुए हमें “आचन” (बापू) और “अम्मा” कहती थीं। दरअसल हमारे साथ उनका व्यवहार ऐसा था जैसे वे अपने बुजुर्ग मां-बाप की देखभाल कर रही हों। उनके नामों से स्पष्ट था कि उनकी टीम में अलग-अलग धर्मों के लोग थे। नर्सों की इस अद्भुत टीम का नेतृत्व एक बहुत जानकार और बेहद विनम्र युवा डॉक्टर, डॉ. शबीरा कर रही थीं। वह धैर्य की प्रतिमूर्ति थीं, और वह दिन भर की आपाधापी के अंत में जब राउंड पर आती थीं तो भी वह हमारे प्रश्नों का समाधान करने से कभी चूकती नहीं थीं।
मीरा और उनकी बहन कुछ ही दिनों में ठीक हो गयीं और उनके टेस्ट निगेटिव आ गये। मैं भी ठीक हो रहा था लेकिन टेस्ट अभी भी पॉजिटिव आ रहे थे। अंत में, मेरा टेस्ट भी निगेटिव आ गया और लगा कि अब अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी, लेकिन मुझे अचानक बुखार हो गया। डॉ. शबीरा ने कुछ और रक्त परीक्षण और छाती के एक्स-रे कराये। उन्होंने अंत में मुझे स्टेरॉयड और एंटीबायोटिक दवाएं चलाने का फैसला किया। अस्पताल में दो दिन और रुकने के बाद, मुझे घर पर अपनी दवाएं लेते रहने और अपनी देखभाल करने के बारे में सावधानीपूर्वक निर्देशों के साथ छुट्टी दे दी गई।
इस कहानी को लिखने का उद्देश्य यह बताना है कि भारत अपने नागरिकों के रहने के लिए एक लाजवाब देश बन सकता है। लेकिन ऐसा न तो राम मंदिर बना कर, न ही अलग हिंदू डिजाइनों के साथ एक नया संसद भवन और अन्य सरकारी भवनों का निर्माण करके, न ही 2000 करोड़ रुपये की मूर्ति लगा कर किया जा सकता है। बल्कि ऐसा केवल चुपचाप अपनी आबादी की विकास की बुनियादी जरूरतों पर ध्यान देकर ही किया जा सकता है। 21वीं सदी के भारत को अपने लिए स्मारक बनाने के लिए मुगल सम्राट शाहजहां के साथ प्रतिस्पर्धा करने की जरूरत नहीं है।
इक्कीसवीं सदी का भारत एक बार फिर एक ऐसा स्थान बन गया है, जहां “जय श्रीराम” के नारे लगाने वाली भीड़ और “गोली मारो” के नारे लगाने वाले राजनेताओं के कारण इसके अल्पसंख्यक सहज महसूस नहीं कर रहे हैं। मुझे केरल वास्तव में रहने योग्य एक ऐसी जगह लगता है जहां सभी समुदायों के लोग कमोबेश सद्भावपूर्वक रहते हैं। (बेशक, सार्वजनिक कचरे के खराब प्रबंधन के अलावा)
आखिर वह कौन सी चीज है जो केरल को एक सभ्य जगह बनाती है? केरल में भी अल्पसंख्यकों से घृणा करने वाले थोड़े लोग हैं, लेकिन जैसा कि हाल के चुनावों ने दिखाया है, उनका प्रतिशत काफी कम हो गया है। ऐसा क्यों? ऐसा उच्च साक्षरता और निम्न गरीबी के कारण संभव हुआ है। यही कारण है कि केरल का एक सामान्य सरकार संचालित कोविड अस्पताल इतना अनूठा प्रतीत होता है।
क्या भारत अधिकांश उत्तर-औपनिवेशिक राज्यों की दुर्दशा से बच सकता है? हां, लेकिन ऐसा केवल तभी हो सकता है जब पूरा भारत उच्च साक्षरता और निम्न गरीबी का आनंद उठाए। जब तक भारत में “गोली मारो” का नारा लगाने वाले धार्मिक कट्टरपंथियों का प्रदर्शन जारी रहेगा, तब तक हम इस्लामवादी पाकिस्तान का हिंदू संस्करण बने रहेंगे। अगर हम इस धार्मिक बदसूरती के खिलाफ सतत सतर्कता नहीं बरतते हैं तो केरल भी जानलेवा कट्टरवाद के एक कुंड में बदल सकता है।
(के. पी. शंकरन का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था। वहां से साभार लेकर इसका अनुवाद स्वतंत्र टिप्पणीकार शैलेश ने किया है।)
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