बिहार चुनाव के नाव में महागठबंधन की वामपंथी पतवार!

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कोरोनावायरस महामारी के साथ लागू लॉकडाउन के बाद से भारत आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर काफी कुछ बदल चुका है। 2020 की शुरुआती तिमाही में दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद यह पहली बार है कि एक बड़े राज्य में चुनाव होने जा रहे हैं, और इसके साथ ही मध्यप्रदेश में 28 सीटों पर होने जा रहे उपचुनाव भी किसी स्थिति में कम नहीं हैं। वहां भी सरकार बचाने से लेकर नई सरकार के गठन तक का मामला दांव पर लगा है। लेकिन उत्तर प्रदेश के बाद देश में बेहद महत्वपूर्ण राज्य बिहार में हो रहे चुनाव पर देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर की निगाहें लगी हुई हैं।

कायदे से देखें तो कोरोनावायरस की सबसे अधिक मार यदि किसी राज्य के लोगों पर पड़ी है तो वह बिहार है। यह अलग बात है कि आंकड़ों के लिहाज से वह स्थान महाराष्ट्र के नाम हो, लेकिन जिस मात्रा में लाखों की संख्या में बिहार से बाहर रहकर प्रवासी श्रमिक काम करते हैं, और वापस बिहार में उनके परिवार उस कमाई के एक हिस्से से अपना जीवन यापन एवं शिक्षा इत्यादि ग्रहण करते थे, उस लिहाज से यह कीमत बेहद बड़ी है। 

इसका सरल उपाय बिहार ने अपना लिया था। मार्च, 2020 में कोरोना के चलते देशव्यापी लॉकडाउन के बाद से ही लगता है बिहार सरकार में बैठे लोगों ने अंदाजा लगा लिया था कि हो न हो, अगले 6 महीने बाद जब नई सरकार के चुनाव का वक्त आएगा तो स्वास्थ्य सेवाओं की कलई खुलने की स्थिति में सारा भुगतान वर्तमान नीतीश सरकार को ही करना होगा। इसलिए शुरू से ही कोरोना को लेकर जहां देशभर में आशंका भय और सख्ती बरती गई, बिहार में शुरू के एक डेढ़ महीने बाद से ही इसे उपेक्षित आइटम के तौर पर रखा गया। आंकड़ों को कम से कम करके सामने रखने, कोरोना के प्रति जागरूकता के बजाय इसे मामूली फ्लू की समस्या बताकर अपने रोजी रोटी के जुगाड़ पर लगने की बात आम तौर पर सबसे पहले बिहार में ही सुनाई देती रही, जो आज भी कायम है। अब तो खैर राज्य में चुनाव का मेला ही शुरू हो चुका है। ऐसे में अब बिहार ही वह राज्य है जो केंद्र सरकार की पूर्ण नाकामी को भी गंगा जी में शुद्ध कर हवा करने में कारगर साबित होगा, ऐसा बिहार विधान सभा से एक परोक्ष प्रयोजन भी हासिल करना है।

महागठबंधन का विकल्प और वाम शक्तियां 

जेडीयू-बीजेपी और आरजेडी के साथ लोजपा पर फोकस कर लिखे जाने के जरिये बिहार के आम आदमी के मुद्दे को एक बार फिर से हवा हवाई किये जाने की कोशिश हो गयी है। ऐसे में जरूरी है कि सेंटर से दक्षिण के साथ-साथ वाम पर भी कुछ बात हो जाए, क्योंकि बंगाल के सबसे मजबूत स्थाई किले के ध्वस्त होने के साथ ही वाम शक्तियों के पास भारत में कोई ठौर ठिकाना केरल के बाद बचता है तो वह बिहार ही है।

लेकिन बिहार में सीपीएम के परंपरागत राष्ट्रीय दबदबे से इतर यहां पर सीपीआई एमएल एक तौर पर बदली हुई भूमिका में है। हाल के वर्षों में लगातार चल रहे संयुक्त संघर्षों में भागीदारी का ही यह नतीजा है कि पहली बार न सिर्फ वाम दलों के बीच में साझा चुनावी मोर्चा बना है, बल्कि बिहार में मौजूद सबसे बड़े दल आरजेडी और कांग्रेस के साथ वाम दल महागठबंधन में गए हैं। 

जहाँ तक हालिया रुझान की बात हैं तो वह आशा से भी ज्यादा खुशनुमा दिख रहा है। तकरीबन सभी विधानसभा क्षेत्रों में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ भारी विक्षोभ बना हुआ है। तेजस्वी यादव को नौसिखिया, लालू के अनुभव के बिना नीतीश और बीजेपी के चक्रव्यूह में चारों खाने चित्त हो जाने की आशंका को निर्मूल करते हुए भारी संख्या में सभाओं में जनता का हुजूम लगातार सत्तारूढ़ पक्ष के जी को हकलान किये हुए है। ऊपर से चिराग पासवान के नीतीश विरोधी प्रचार ने इतना अधिक शोर-शराबा मचा रखा है कि बीजेपी के शीर्ष नेताओं को लगातार सफाई देनी पड़ रही है कि उनका चिराग से जुड़ा कोई हिडेन एजेंडा नहीं है। नीतीश कुमार उनके एकमात्र मुख्यमंत्री के चेहरे थे, हैं और रहेंगे। चुनाव परिणाम चाहे कुछ भी हों।

वाम दलों में सीपीआई को 6, सीपीएम को 4 और सीपीआई (एमएल) को 19 सीटें मिली हैं। इसके साथ ही सीपीआई (एमल) के खिलाफ आरजेडी के साथ चुनावी समझौते को लेकर आरोपों की झड़ी सोशल मीडिया में लगनी शुरू हो चुकी है। आरोप लगाने वाले न सिर्फ बीजेपी और जेडीयू जैसे प्रतिद्वंदी दल हैं, बल्कि बहुजन दलों की बौद्धिक नुमाइंदगी करने वाले छात्र-बुद्धिजीवी संगठनों से लेकर बसपा एवं अनेकों स्वतंत्र वाम समूहों से इस आवाज को सुना जा सकता है। 

उनका तर्क है कि आरजेडी ही वह दल है जो एक समय सीपीआई (एमएल) के फ्रंट संगठन आईपीएफ के विधायकों को तोड़ने के साथ-साथ जमीनी स्तर पर मुख्य विरोधी दल था, जिसने उसके जड़ से सफाए की कसम खाई थी। इसके साथ ही उसके बाहुबली एवं माफिया सांसद शहाबुद्दीन ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय एवं जुझारू छात्र नेता, जो लगातार दो बार इसके अध्यक्ष चुने गए थे, की दिनदहाड़े हत्या करवाई थी।

कुल मिलाकर गंभीर आरोप ये हैं कि सीपीआई, सीपीएम के साथ-साथ सीपीआई (एमएल) ने भी संसदीय दलदल में आकंठ डूबने का फैसला कर लिया है, और अब इन तीनों प्रमुख वाम दलों से किसी भी प्रकार की बुनियादी बदलाव की कल्पना करना बेमानी है।

क्या होना चाहिए?

इसमें से अधिकांश आरोप असल में भावुकता में उभ चूभ कर रहे रूमानी क्रांतिकारियों के हैं, जो पवित्रता की कसौटी पर अकादमिक विचार-विमर्श से कभी आगे नहीं सोच पाते। कइयों के लिए यह असल में कैम्पस युद्ध में आवश्यक मसाले के तौर पर है। लेकिन असल में इसकी आलोचनात्मक व्याख्या होनी चाहिए, और जिम्मेदार सवाल उठने चाहिए, क्योंकि आज हम सामान्य दिनों में नहीं हैं। आज 70 वर्षों में कांग्रेस जिस भूमिका में थी, उसमें वह बिल्कुल नहीं है। आरजेडी भी खुद में यादवों के उभार वाली ताकत नहीं रही, जो खुद को स्थापित करने के लिए बिहार में सब कुछ उखाड़ पछाड़ कर रही थी। उसकी तुलना यदि यूपी के आज के योगी राज के ठाकुर वाद से करें तो पुराना समय फीका पड़ सकता है। लेकिन इरादा यह नहीं होना चाहिए कि एक गलत को सही साबित करने के लिए दूसरे गलत को खड़ा कर दिया जाए। 

यदि बदलाव के बारे में जमीनी स्तर पर एवं सैद्धांतिक स्तर पर सोचते हैं तो उसी कसौटी पर कसना चाहिए। यह सही है कि 80 के दशक की धमक आज काफी हद तक फीकी पड़ चुकी है। संसदीय संघर्ष को उत्तरोत्तर वरीयता ने असल में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण कार्य एवं कैडर निर्माण को कहीं बहुत दूर फेंक दिया है। असल में आज सबसे बड़ी जरूरत यदि कुछ है तो वह एक सच्चे अर्थों में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की है। पार्टी बिल्डिंग की। कार्यकर्ता निर्माण की। ग्रासरूट स्तर पर सिद्धांत एवं व्यवहार के द्वंद्वात्मक प्रयोग की एवं इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर एक स्पष्ट लक्ष्य के साथ विकल्प पेश करने की। 

आज तीनों ही दल इन उपरोक्त कामों से काफी हद तक विलग हो चुके हैं। दिन रात आये दिन नव उदारवाद के हमले जिस गति से बढ़ते जा रहे हैं, उसमें एक अदना इंसान क्या इन सभी दलों को भी सोचने समझने की मानो फुर्सत ही नहीं। एजेंडा मानो रात में चुपके से हैदराबाद की बाढ़ की तरह आता है और कल तक जो सोचा था, वह हवा हो जाता है। दिन हो या रात वर्तमान फासीवादी-क्रोनी पूँजी की चेरी सत्ता मीडिया, प्रतिगामी शक्तियों की भस्मासुरी वेग के सामने दूरगामी लक्ष्य हवा हैं। ऐसा शायद उस बुनियादी कमजोरी के चलते लगातार हो रहा है, जो भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के व्यवहार्य में अच्छी तरह से लागू नहीं किया जा सका। 

वरना किसी भी औसत बुद्धि वाले को भी इस बात का अच्छी तरह से भान होना चाहिए कि चुनाव में शामिल होने और बहिष्कार करने का सम्बन्ध असल में एक कार्यनीति का प्रश्न है। किन्हीं भी सही अर्थों में वाम दल के लिए राजनीति को ही सर्वोपरि रखना उसका पहला और प्राथमिक गुण धर्म है। आज के बजाय आरजेडी और कांग्रेस के साथ गठबंधन पर सवाल करने वालों को यह सवाल तब पूछना चाहिए था, जब नीतीश गुट ने आरजेडी को धोखा देकर मोदी सरकार से हाथ मिला लिया था।

उस समय यूपी में सामाजिक न्याय मटियामेट हो चुका था, बिहार में जीतने के बाद भी बिहार की जनता के विश्वास को छलनी करने का काम इसी सामाजिक न्याय की तथाकथित ताकत में से एक ने किया था। आज भी कहीं न कहीं यह खटका मन में बना हुआ है कि बीजेपी यही कार्ड आरजेडी के साथ भी खेल सकती है। अपने आँख, नाक, कान को खुला रखना और हर पल वर्ग संघर्ष को सर्वहारा के हितों के अनुरूप ही ढालना सच्चा मार्क्सवाद है, न कि खोहों में बैठकर वैचारिक चिलम फूंकना। 

असल बात तो यह है कि जो कुछ भी थोड़ा बहुत सकारात्मक काम भी हो रहा है वह इन शक्तियों द्वारा भरसक चलाया जा रहा है, लेकिन उसमें शीर्ष नेतृत्व की आराम तलबी और संसदीय संघर्षों के प्रति मोह ने सामाजिक जनवाद की प्रवृत्ति को मजबूत करने का काम वास्तव में किया है। लेकिन यह भी सच है कि हमारी आपकी आलोचना से यह स्थिति बदलने वाली भी नहीं है। यदि वास्तव में इस स्थिति में बदलाव की कोई गुंजाइश है भी तो वह आज भी सड़क के संघर्ष को सही नजरिये के साथ बढ़ाने, जिसमें स्वतंत्र दावेदारी और वर्गीय संघर्ष को उत्तरोत्तर तेज करने से ही हासिल किया जा सकता है। वरना कहीं न कहीं सिर्फ अपने ही अंग में दोष गिनकर हम उसे ही मजबूत करने की भोली कोशिश में शामिल हैं।

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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