21वीं सदी में जन विद्रोह का चरित्र 20वीं सदी से थोड़ा भिन्न दिख रहा है। 20वीं सदी के प्रथम चौथाई के पहले महान रूसी क्रांति ने मजदूरों वर्ग के नेतृत्व बोल्सेविकों ने किसानों नौजवानों का गठजोड़ बनाकर रूस में प्रथम सर्वहारा क्रांति संपन्न की थी। यह प्रथम विश्व युद्ध का आखिरी चरण था और पूंजीवाद साम्राज्यवाद की नई अवस्था विकसित हो जाने के क्रम में युद्धों की श्रृंखलाओं को जन्म दे रहा था। जिससे लेनिन के नेतृत्व में बोल्सेविकों ने साम्राज्यवाद की सबसे कमजोर कड़ी को तोड़कर रूस में सर्वहारा के नेतृत्व में प्रथम राज्य का निर्माण किया। यह विश्व इतिहास की अब तक की सबसे क्रांतिकारी घटना थी।
20वीं सदी के दूसरे दशक में शुरू हुई महामंदी ने वैश्विक पूंजीवाद को यानी साम्राज्यवादी विश्व संरचना को गंभीर संकट में डाल दिया है। जैसे-जैसे आर्थिक मंदी टिकाऊ होती गई। उसके स्वाभाविक परिणाम के वतौर नई राजनीतिक परिघटना भी अस्तित्व में आई थी। इसका केंद्र इटली बना जहां से मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवादी निजाम का उद्भव हुआ। फांसीवाद पूंजी के सबसे क्रूर स्वरूप का राजनीतिक प्रतिनिधि होता है।
फासीवाद की वैचारिकी धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद और नस्लवादी श्रेष्ठता के मिश्रण से निर्मित होती है। जो दुनिया के शासक के रूप में अपने को पेश कर सर्वश्रेष्ठ जाति (नस्ल या धर्म) के गौरवगान के महिमा मंडन द्वारा समाज के बहसंख्यक हिस्से को जहरीले उन्माद से भर देती है। प्रथम विश्व युद्ध में पराजित यूरोपीय देशों में फांसी वाद का आकर्षण तेजी से बढ़ने लगा। तीसरे दशक तक आते-आते जर्मनी में हिटलरी नाजीवाद धूमकेतु की तरह फैला। जिसने धर्म के आधार पर यहूदियों को खलनायक बनकर विनाशक जर्मन राष्ट्रवाद की रचना की।
यूरोप महामंदी में फंसा था। मंदी जाने का नाम नहीं ले रही थी। राष्ट्रीय बाजार संकटग्रस्त थे। इसलिए साम्राज्यवादी पूंजी को संकट से बाहर निकालने के लिए बाजार पर कब्जा के लिए साम्राज्यवादी मुल्कों के बीच युद्ध अनिवार्य था। फासीवाद और नाजीवाद का गठजोड़ इसी संकट के बीच से आकार ग्रहण किया। हिटलर तथा मुसोलिनी के गठजोड़ ने यूरोप के भू राजनीतिक परिदृश्य को बदलकर साम्राज्य विस्तार की योजना ली। परिणाम स्वरुप द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। जिससे दुनिया को भयानक मानव त्रासदी झेलनी पड़ी। युद्ध के परिणाम स्वरूप दुनिया में दो बड़ी सामाजिक राजनीतिक परिघटनाएं अस्तित्व में आई।
एक- उपनिवेशों में मुक्ति संघर्ष का तीव्र होना। भारत के स्वतंत्र होते ही औपनिवेशिक ताकतों की शक्ति कमजोर हो गई और छोटे-छोटे देश भी आजाद होने लगे। दो- विश्व समाजवादी क्रांतियों का नया उभार। दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाले देश चीन में नव जनवादी क्रांति का संपन्न होना।
इसके अलावा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की बादशाहत समाप्त हो गई और संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व साम्राज्यवाद का नेता बना। जिसकी अगुवाई में समाजवादी क्रांतियां की अग्रगति को रोकने के बहु स्तरीय प्रयास किए गए। फिर भी वियतनामी क्रांति तक दुनिया क्रांतिकारी झंझावातों के बीच से गुजरती रही। उपनिवेशोत्तर दुनिया स्पष्टतः तीन खेमों में विभाजित हो गई थी।
एक-अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया। दूसरा -सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी ब्लाक। तीसरा- नव स्वतंत्र देशों का गुटनिरपेक्ष आंदोलन। (अमेरिका या वारसा सैनिक संधियों से बचें देश को छोड़कर)। जिसकी मूल नीतिगत दिशा दोनों शक्ति केन्द्रों से समान दूरी की थी।
इस बीच शीत युद्ध का दौर चला। जिसमें दोनों खेमों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से तीखे राजनीतिक टकराव चलते रहे। एक मंजिल आने के बाद सोवियत क्रांति ने अपना आवेग खो दिया और 1990 तक आते-आते पूर्वी यूरोप में समाजवादी ब्लाक के बिखरने के साथ सोवियत संघ भी ढह गया। चीन ने समाजवादी राज्य को टिकाऊ तथा गतिशील बनाए रखने के लिए बाजार के साथ समायोजन की दिशा ली और आज विश्व का सबसे बड़ा मॉल उत्पादक देश बन गया है। राजनीतिक विश्लेषक वर्तमान जनवादी चीन को एक बड़े कारखाने के रूप में संगठित देश के बतौर परिभाषित करते हैं। जो आर्थिक रूप से साम्राज्यवादी खेमे को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है।
इस समय दुनिया में कोई समाजवादी केंद्र नहीं है। लेकिन विश्व जनगण के साथ मिलकर पिछड़े और विकासशील देश अपनी स्वतंत्रता सार्वभौमिकता और आर्थिक स्वावलंबन को बचाये रखने के लिए साम्राज्यवादी दबाव से लगातार संघर्ष कर रहे है।
पिछड़े और विकासशील मुल्कों में जनता को दो मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ता है। एक तरफ यहां के शासक वर्गों (पूंजीपति सामन्त नौकरशाही गठजोड़) के दमन उत्पीड़ित और लूट तथा दूसरी तरफ विश्व साम्राज्यवादी हस्तक्षेप से मुल्क की स्वतंत्रता सार्वभौमिकता और राष्ट्रीय संसाधन के दोहन को बचाने का संघर्ष। यह संघर्ष अनेक उतार चढ़ाव दमन उत्पीड़न युद्ध और वित्तीय पूंजी के दृश्य अदृश्य हमले के बीच से आज भी जारी है।
1990 के बाद सोवियत ब्लॉक के ढह जाने से अमेरिका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था की शुरुआत हुई।इसके लिए वैश्विक संगठनों आईएमएफ विश्व व्यापार संगठन विश्व बैंक आदि को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। राष्ट्र संघ अमेरिकी ब्लॉक के हाथ की कठपुतली बन चुका है और वह दुनिया भर में अमेरिकी आर्थिक राजनीतिक रणनीतियों का सहभागीदार बन गया है।
इन संस्थाओं को आगे कर पिछड़े और विकासशील देशों की गर्दन दबोचते हुए विश्व साम्राज्यवादी गुट ने दुनियाभर में पिछड़े और विकासशील देशों पर उदारीकरण निजीकरण वैश्वीकरण की नीतियों यानी एलपीजी को थोप दिया। अनेक तरह से इन मुल्कों को अपने देश में व्यापार के दरवाजे खोलने के लिए दबाव बनाया गया। जिन देशों ने इसका विरोध किया उनका आर्थिक प्रतिबंधों राजनीतिक अलगाव और सैनिक शक्ति से दमन किया हुआ। दक्षिण पश्चिम एशिया से लेकर लैटिन अमेरिका अफ्रीका तक इसके उदाहरण फैले हुए हैं।
वर्तमान साम्राज्यवादी दौर को कई रूपों में चिन्हित किया गया। जैसे नियो कॉलोनियलिज्म, अर्ध उपनिवेशवाद और संरक्षित राष्ट्र। सबसे पहले इसका शिकार लैटिन अमेरिकी देशों को होना पड़ा था। जहां अमेरिका के नेतृत्व में सैनिक सत्ता पलट किए गए। (1973 में चिली में चुनी हुई आलिंदें की कम्युनिस्ट सरकार) तथा अन्य देशों के उभरते लोकप्रिय आंदोलनों की आवाज को कुचल दिया गया। अमेरिकी हितों के अनुकूल सरकारें बनाई गई। सैनिक सरकारों को संरक्षण दिया गया और बहुत बड़े पैमाने पर लैटिन अमेरिकी देशों की खनिज प्राकृतिक संपदा का दोहन कर उसे कंगाल बना दिया गया।
पहली बार लैटिन अमेरिका में अमेरिकी लूट और वर्चस्व को नियो कॉलोनिज्म कहा गया। लैटिन अमेरिका में जन्म ले रही जनवादी वामपंथी राजनीति और सरकारों को खत्म करने के लिए क्रूरता की सारी हदें पार की गई। यह सब बीसवीं सदी के आखिरी 30 वर्षों के दौरान हुआ।
अमेरिकी औपनिवेशिक लूट के खिलाफ लैटिन अमेरिका की जनता में जन संघर्षों की नई धाराएं विकसित हुई और बड़े-बड़े लोकप्रिय जन आंदोलन के दौर शुरू हुए। बेनेजुएला के राष्ट्रपति हृयूगो सावेज ने लैटिन अमेरिकी राष्ट्रवादी बोलीबेरियन रिवॉल्यूशन के नायक को आगे रखकर साम्राज्यवाद विरोधी राजनीति की नई धारा 21वीं सदी के शुरुआत में ही खड़ा की। जिसकी बुनियाद में विराट जन गोलबंदी थी। जन उभार स्वाभाविक रूप से लैटिन अमेरिकी देशों में यूनाइटेड स्टेट और उसके सहयोगियों के वर्चस्व और लूट के खिलाफ था। विरोध की तीव्रता बढ़ती गई।
जिस लैटिन अमेरिका को यूनाइटेड स्टेट का उपनिवेश कहा जाता था। उस लैटिन अमेरिकी देशों में अब प्रगतिशील राष्ट्रवाद की हवाएं बहने लगी। यह वेनेजुएला व बोलीविया से शुरू होकर ब्राजील से आगे बढ़ते हुए चिली तक फैल गई। लैटिन अमेरिका में चल रही उदार राष्ट्रवादी धारा ने “वर्ल्ड सोशल फोरम” के रूप में अपने को संगठित किया तथा डब्लूटीओ,आईएमएफ और विश्व बैंक के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी बड़ी जनगोलबंदियां खड़ा करने की कोशिश की। इसके पहले पेरू, अर्जेंटीना बोलिविया, निकारागुआ आदि देशों में हथियारबंद वाम क्रांतिकारी आंदोलन ही मुक्ति की प्रबल धारा थी। जहां विद्रोही संगठन और जन सेनाएं अपना जन आधार बहुत विस्तारित कर चुकी थी।
लेकिन इस धारा के विकास से उनकी अग्रगति को रोक दिया। हालांकि अमेरिकी नेतृत्व में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी धारा पर बार-बार दमन और जुल्म ढाए गए थे। जिसमें महान क्रांतिकारी “चे ग्वेरा” जैसे महान नेताओं की सैनिक तानाशाहियों द्वारा हत्या प्रमुख थी। पेरू के कम्युनिस्ट महासचिव और लीमा यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर को राजधानी लीमा से गिरफ्तार कर पिंजरे में कैद कर अमानवीय यातनाएं दी गई।
लैटिन अमेरिकी जनता में साम्राज्यवाद विरोधी उभार उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए अभी भी अपनी भूमिका में खड़ा है। लेकिन इसकी व्याख्या आप सोवियत या चीनी क्रांति के किसी मॉडल के नजरिए से नहीं कर सकते। क्योंकि लैटिन अमेरिका की नव उपनिवेशवाद विरोधी धारा परिवर्तन का कोई ठोस मॉडल दुनिया के सामने नहीं पेश कर सकी। वर्ल्ड सोशल फोरम का मुख्य आवाहन” एक दूसरी दुनिया संभव है “वस्तुतः वर्ग दृष्टिकोण विहीन आदर्शवादी आवाहन ही है। जो पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत एनजीओ मार्का राजनीति को ज्यादा सूट करता है।
अरब मुल्कों में पेट्रोल डॉलर के महत्व को देखते हुए अमेरिका ने राजशाहियों सैनिक तानाशाहियों और इस्लामी कट्टरपंथियों को प्रश्रय और संरक्षण देकर उन्हें अपने खेमे में 1960 के दशक में ही जीत लिया था। अरब मुल्कों के तेल व प्राकृतिक गैस पर एकाधिकार जमा कर अमेरिका ने विश्व पर वर्चस्व की गारंटी कर ली। लोकतंत्र और राष्ट्र के प्रति कमजोर प्रतिबद्धता के चलते शहंशाहियों को अपने देश के संसाधनों को अमेरिका के हाथ देने में कोई हिचक नहीं हुई। बशर्ते उनकी सत्ता सुरक्षित रहे। इस खेल में सऊदी अरब जॉर्डन से लेकर यमन दुबई यूएई तुर्की ईरान ईराक और पाकिस्तान तालिबान तक सभी शामिल रहे।
अरब मुल्कों के तेल और प्राकृतिक गैस का मालिक बनने के बाद अमेरिकी इकोनॉमी आज तक दुनिया में नम्बर एक बनी हुई है। अरब जगत में 60 के दशक में तेजी से वाम आंदोलन का विकास हुआ था। कई देश वामपंथी क्रांतिकारी बदलाव के दरवाजे परखड़े थे। फिलिस्तीनी जनता के संघर्ष के साथ घुल-मिल कर और लेबनान की भूमि पर बाम क्रांतिकारी आंदोलन की धारा ने जगह पाई। लेकिन शाहंशाहियों को आगे करके अमेरिका ने बड़े पैमाने पर वहां के प्रगतिशील वामपंथी कार्यकर्ताओं का कत्लेआम कराया। अपने वैश्विक हितों के अनुकूल सरकारें बनाई गिराई और अरब जगत में उठ रहे किसी भी तरह के लोकतांत्रिक आंदोलनों का सफाया करने में कामयाब हुआ।
वर्तमान में इजराइल को पूर्ण समर्थन देकर फिलिस्तीनियों को नेस्तनाबूत करने की प्रत्यक्ष अमेरिकी कोशिश के बावजूद अरब जगत के मुस्लिम देशों में आज तक एका नहीं बन पायी है। 80 के दशक में मिस्र के अमेरिका के साथ समझौते करने के बाद अरब जगत में अमेरिका के लिए गम्भीर चुनौती नहीं बची थी।
लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक की शुरुआत में अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया से शुरू हुई गुलाबी क्रांति ने अमेरिकी छतरी के नीचे पलने वाले तानाशाहियों को कड़ी चुनौती दी। एक समय तो ऐसा लगा कि यह जन उभार जिस तेज गति से अरब मुल्कों में फैल रहा है और स्थापित सरकारों को धराशाई करते हुए आगे बढ़ रहा है। वह अमेरिका को भी पश्चिम दक्षिण एशिया और पूर्वी अफ्रीका में गंभीर चुनौती देगा और अमेरिकी वर्चस्व को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा।
लेकिन ठोस और स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के अभाव में एक मंजिल के बाद गुलाबी क्रांति अमेरिकी साम्राज्यवाद के हाथ का हथियार बन गई। जिस हथियार से अमेरिका ने इजिप्ट लीबिया सहित कई देशों में सत्ता परिवर्तन कर नई तानाशाहियां थोप दी। अमेरिकी कोशिश तो सीरिया तक को भी इस उथल-पुथल के दायरे में खींच लाने की थी। लेकिन रूसी मदद के चलते सीरिया की असद सरकार बच गई है। जहां आईएसआईएस नामक आतंकवादी संगठन अमेरिका इजराइल के इशारे पर खड़ा किया गया था।
परिणाम यह हुआ कि एक बार फिर अरब जन उभार साम्राज्यवादी पकड़ को मजबूत कर ठंडा पड़ गया। हालांकि यह गुलाबी क्रांति व्यापक जन आधार पर खड़ी थी। जिसमें जनता की बड़े पैमाने पर भागीदारी थी और जिसके वेग से कई सरकारें उखड़ गई। लेकिन स्पष्ट वर्ग दृष्टिकोण और साम्राज्य वाद विरोधी दृढ़ विचारधारा के अभाव के चलते अंततः अमेरिकी वर्चस्व अरब जगत पर कायम रह गया।
20वीं सदी के मध्य से परिस्थितियों के विकास के चलते जिन कट्टरपंथियों को आगे करके अमेरिका ने अरब मुल्कों में लोकतांत्रिक और प्रगतिशील ताकतों का सफाया किया था आज उन्हें अमेरिका से टकराना पड़ा है। जहां रणनीतिक तौर पर अमेरिका को अफगानिस्तान में पीछे हटना पड़ा है। वहीं वह अरब जगत में इजराइल द्वारा फिलिस्तीनी जनता के कत्लेआम के कारण भारी अलगाव झेल रहा है। ईरान की इस्लामी क्रांति भी अंततोगत्वा अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ खड़ी होने को मजबूर हो गई है। जिससे सभव है आने वाले समय में अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन की नई संभावनाएं भी विकसित हो।
21वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत से ही भारतीय उप महाद्वीप में जन आंदोलनों की हवाऐ चल रही है। जहां उदारीकरण ने उपनिवेशोत्तर काल में विकसित हुए लोकतांत्रिक ढांचे और बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर को निजीकरण द्वारा लगभग पंगुकर दिया है। जिससे औद्योगिक जड़ता रोजगारहीनता तथा अश्लील समृद्धि के बीच विषमता और गरीबी ने अपने पांव फैला लिए हैं। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी से अवाम को निकलने का कोई रास्ता भारतीय उप महाद्वीप के देशों के शासकों के पास मौजूद नहीं है। वे विश्व व्यापार संगठन द्वारा सुझाए गए नुख्से “सब कुछ बाजार के हवाले “कर सिर्फ सत्ता प्रबंधन तक अपने को समेटरहे हैं। जिस कारण यहां समाज के अतल गहराईयों में विछोभ की आग सुलग रही है। जिससे विरोध की भूकंपीय तरंगों के पैदा होने की संभावनाएं इन मुल्कों में प्रबल है।
उदारीकरण ने अगर सबसे अधिक लोकतांत्रिक संस्थाओं को छति किसी खित्ते में पहुंचाई है तो वह है भारतीय उपमहाद्वीप। जैसे-जैसे निजीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ी। वैसे वैसे यहां के देशों में दक्षिणपंथी तानाशाही बढ़ने लगी। भारतीय उपमहाद्वीप धार्मिक भाषाई नस्लीय नृजातीय (एथनिक) सांस्कृतिक सामाजिक भौगोलिक और आर्थिक रूप से विभिन्नताओं वाला उपमहाद्वीप है। इसलिए साम्राज्यवादी ताकतों के नेतृत्व में इन विशिष्टताओं व विभिन्नताओं को आपस में लड़ाकर उनकी आंतरिक एकता को खंडित करने तथा उनके अंदर के जनवादी लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म करने की संभावनाएं हर समय प्रबल रहती हैं।
इसका पहला शिकार श्रीलंका को होना पड़ा। जहां सिंहली और तमिल समाज को जो सदियों से एक साथ रह रहे थे। आपस में लड़ा दिया गया। उग्र सिंहली राष्ट्रवाद के मुकाबले तमिल राष्ट्रवाद पनपा। जिसके परिणाम स्वरुप तमिलों कि जनसंहार और कत्लेआम हुए। सिंहली नस्लवाद की पीठ पर सवार होकर महिंद्रा राजपक्षे नामक तानाशाह श्रीलंका पर काबिज हो गया।
राजपक्षे परिवार ने तमिलों के नरसंहार को सिंहली अंधराष्ट्रवाद की चासनी में लपेटकर श्रीलंका के लोकतांत्रिक ताने-बाने को तहस-नहस कर दिया। आर्थिक ढांचा चरमरा गया। भयानक गरीबी भुखमरी बेरोजगारी महंगाई और विषमता की खाईं ने श्रीलंका को बर्बाद कर दिया। भ्रष्टाचार और प्राकृतिक संसाधनों से लेकर राष्ट्रीय संपदा की लूट ने जनता की चेतना को उन्नत किया। श्रीलंका कंगाली के दरवाजे पर पहुंच गया। नागरिक त्राहि-त्राहि करने लगे।
जिसके परिणाम स्वरूप व्यापक श्रीलंकाई (तमिल और सांगली दोनों) एकता बद्ध हो गए। गोटाबाया राजपक्षे के तानाशाही निजाम के खिलाफ विराट जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ। जिसमें नौजवानों और मजदूरों के साथ नागरिक समाज की अभूतपूर्व एकता देखी गई। अंत में राजपक्षे परिवार को श्रीलंका छोड़कर भागना पड़ा। अभी वातावरण में तूफान के पूर्व की शांति है। लोकतंत्र बहाली की गति धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। भविष्य में क्या परिणाम निकलेंगे। अभी से कुछ भी कहना उचित नहीं होगा।
लेकिन एक तथ्य उभर कर आ रहा है कि उदारीकरण के बाद की दुनिया में साम्राज्यवाद विरोधी लोकतान्त्रिक संघर्ष अब किसी पुराने रास्ते पर चलने के लिए तैयार नहीं है। उसने तानाशाही निजाम को उखाड़ फेंकने का रास्ता 21वीं सदी में ढूंढ लिया है।
धुर दक्षिणपंथी नस्लवादी राष्ट्रवाद और देश की दरिद्रता के सम्मिश्रण से बनी तानाशाही के खिलाफ श्रीलंका से शुरू हुआ लोकप्रिय जन आंदोलन अब बांग्लादेश में अवामी लीग की सरकार की जड़ों को भी हिला दिया है और प्रधानमंत्री शेख हसीना को बांग्लादेश छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी है। बांग्लादेश में भी हालत लगभग श्रीलंका जैसे ही थे। जहां शेख हसीना की 16 साल की सत्ता में लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण हुआ। विपक्ष को कमजोर किया गया। पूर्व प्रधानमंत्री और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बीएनपी की नेता को दंडित पर जेल में डाला गया।
जनता की आवाज को कुचलना के लिए प्रशासनिक तंत्र का निर्मम दुरूपयोग हुआ। विरोध की आवाज को कुचल दिया गया। साथ ही अवामी लीग समानांतर सत्ता चलाने लगी। युवा अवामी लीग के कार्यकर्ता समानांतर सत्ता का अंग बन गए और आंदोलन के दमन में पुलिस-प्रशासन के सहभागी बन गये। असहमत के सारे दरवाजे बंद कर दिए गए तथा राजनीतिक और नागरिक कार्यकर्ताओं के दमन के लिए नए-नए तरीके खोजे गए। पत्रकारों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तथा आंदोलनकारी की हत्या की जाने लगी। इस कारण बांग्लादेश के नागरिक शेख हसीना को फासीवादी शासक कहते हैं। वे शेख हसीना के बांग्लादेश छोड़ने को फासीवाद के पराजय के रूप में देख रहे हैं।
चुनाव को लगभग बेमानी बना दिया गया। फरवरी 2024 के चुनाव का बीएनपी ने बहिष्कार किया और दूसरी बड़ी पार्टी जमाते इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। आर्थिक विकास के बावजूद संपत्ति का कुछ हाथों में केंद्रीकरण शुरू हो गया और व्यापक जनता की दरिद्रीकरण ने रफ्तार पकड़ ली। 17 करोड़ की आबादी में 2 करोड़ से ज्यादा युवा बेरोजगार हो गए। विश्वविद्यालयों कॉलेजों में छात्र-छात्राओं के साथ शिक्षकों तक को अवामी लीग कार्यकर्ता मारने पीटने और अपमानित करने लगे। शेख परिवार के भ्रष्टाचार ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए।
इस बीच सरकारी सेवाओं में भर्ती केलिए बदनाम कोटा प्रणाली को जिसे 2018 में निरस्त कर दिया गया था। कोर्ट के आदेश पर पुनः लागू कर दिया गया। पेपर लीक परीक्षा में भ्रष्टाचार और फिर 1971 के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए 30% कोटा बहाली ने उत्प्रेरक का काम किया। जिससे छात्र युवा आंदोलन पर चले गए। देखते देखते युवाओं छात्रों के साथ मजदूर महिलाएं और नागरिक भी आंदोलन में शामिल होने लगे। जो बांग्लादेश के सभी 66 जिलों में फैल गया। 1 महीने तक आंदोलन शांतिपूर्ण चलता रहा। लेकिन 15 जुलाई तक आते-आते उनका स्वरूप हिंसक हो गया। जिससे छात्रों युवाओं के साथ 200 से ज्यादा महिलाएं और नागरिक भी मारे गए।
2024 के चुनाव के बाद शेख हसीना बांग्लादेश में अवाम का विश्वास खो चुकी थी। अंतरराष्ट्रीय तौर पर भी उनकी सरकार की वैधता को चुनौती मिल रही थी। इस प्रकार जन विश्वास हो चुकी शेख हसीना की तानाशाह सरकार ने ढाका में 4 जून को बर्बरता की सभी हदें पार कर दी। उस दिन टकराव में 15 पुलिसकर्मी सहित 90 से आंदोलनकारी मारे गए और 1200 से ज्यादा लोग घायल हुए। इस नरसंहार के खिलाफ स्टूडेंट अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन ने 5 अगस्त को शेख हसीना के सत्ता छोड़ने की मांग को लेकर प्रधानमंत्री आवास के घेराव की घोषणा कर दी।
5 अगस्त को बांग्लादेश के कोने-कोने से लाखों छात्र, नौजवान, महिलाएं ढाका में निर्दिष्ट जगह पर इकट्ठा होने लगे। छात्रों के नेतृत्व में ज्यों ही मार्च शुरू हुआ। राजनीतिक भूकंप का केंद्र खिसक कर प्रधानमंत्री आवास पहुच गया। प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई में सत्ता के सिर्फ संस्थाओं के अधिकारियों के बीच चले लंबे विचार विमर्श मंथन के बाद प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देकर भारत में शरण लेनी पड़ी। क्योंकि सेनाध्यक्ष और सरकार के सभी अंगों ने इस युवा जन सैलाब पर दमन करने से इनकार कर दिया।
यहां दो गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं। एक -1990- 91 में सोवियत ब्लॉक के ढहने के बाद अमेरिका के नेतृत्व में जिस एक ध्रुवीय दुनिया का निर्माण हुआ था। उसमें उदारीकरण वैश्वीकरण और निजीकरण को मानव सभ्यता के संकट के सभी रोगों का इलाज घोषित कर दिया गया था। क्या 21वीं सदी के प्रथम चौथाई तक आते-आते उसकी क्षमता चुक गई है?
इन नीतियों से विकासशील पिछड़े मुल्कों के साथ ही विकसित देशों में भी जिस तरह की गैर बराबरी बेरोजगारी आर्थिक सामाजिक राजनीतिक और पर्यावरणीय संकट खड़ा किया है। क्या उसका समाधान अब बाजारवादी व्यवस्था यानी कॉर्पोरेट नियंत्रित विश्व व्यवस्था के अंदर संभव नहीं है। इसलिए इसका विकल्प जनता में नीचे से जनविद्रोहों के रूप में फूट रहा है।
दूसरा- क्या विश्व के सभी उत्पीड़ित जनगण बेरोजगार नौजवान छात्र युवा मजदूर किसान महिलाएं नागरिक समाज और उत्पीड़ित देशों ने कॉरपोरेट कंट्रोल्ड विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प ढूंढ लिया है। जिसका प्रतिरोध का बुनियादी चरित्र आम नागरिकों का साझा हितों केलिए साझा संघर्षों के मैदान में विराट जन गोलबंदी का होना है और सामूहिक प्रतिरोध के द्वारा तानाशाह सरकारों को घुटना टेकने के लिए मजबूर कर देना है। यानी विश्व कॉर्पोरेट गिरोह के शोषण व लूट के खिलाफ सभी उत्पीड़ित जन गण के साथ दमित राष्ट्रीयताएं और नव उपनिवेशिक देशों में विराट जनगोल बंदी द्वारा साझा संघर्षों की विरासत को आगे बढ़ना होगा।
क्या उदारवाद की आर्थिकी ने दुनिया के सुदूर पिछड़े इलाकों के प्राकृतिक संसाधनों तक वित्तीय पूंजी के जाल को इस तरह से विस्तारित कर लूट का ऐसा तांडव मचाया है कि वहां की बहुसंख्यक जनता का आर्थिक आत्मनिर्भरता ठहराव और अलगाव टूट कर विश्व साम्राज्यवादी पूंजी की लूट से मुक्ति के लिए अब व्यापक जनगोलबंदी में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो गए हैं।
यानी 20वीं सदी में उत्पीड़ित राष्ट्रों के शोषित पीड़ित जन-गण ने परिवर्तन के जिन हथियारों से (नव जनवादी और समाजवादी क्रांतियों )मानव सभ्यता को अगली मंजिल में पहुंचाया था और एक समाज वादी समाज के सपने दिखाए थे। क्या अब वे सपने व्यापक जन गोलबंदी द्वारा खड़ा किए गए जन उभार के मध्य से नया आकर ले रहे हैं।
क्या कॉर्पोरेट नियंत्रित राजनीतिक सत्ता को ठप कर देने के बाद क्रांतिकारी संघर्षों में विराट जन समूहों की जिजीविषा व बलिदानी संकल्प के द्वारा पूंजी के क्रूर फंदे से मानवता के मुक्ति के सपने पूरा हो सकेंगे।
लैटिन अमेरिका से उठे जनसैलाब ने अरब जगत के रास्ते भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा पूरी कर ली है। श्रीलंका, बांग्लादेश सहित यूरोप में स्पेन फ्रांस इंग्लैंड आदि देशों ने 21वीं सदी के प्रथम चतुर्थांश में उठे जन सैलाब ने परिवर्तन के नए रास्ते का संकेत दे दिया है। इस जन सैलाब में उखड़ रहे दमनकारी सक्ताओं के तंबू से उन दोनों को सीखना चाहिए जो दुनिया को बर्बरता और तानाशाही की तरफ ले जा रहे हैं और दूसरा उनको भी जो लोकशाही में विकसित हो रही तानाशाही बर्बरता और साम्राज्यवादी पूंजी की लूट से दुनिया को सुरक्षित रखना चाहते हैं।
सवाल यह है कि विश्व के वर्ग सचेत नागरिक इस जन उभार में अंतर निहित राजनीतिक क्षमता को समझे, उसे विकसित करें और साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था को ध्वस्त कर समाज को अगली मंजिल में ले जाने के संघर्षों की रहनुमाई करें। आशा है मानव समाज अपने कंधे पर आ पड़ी इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को अवश्य पूरा करेगा। नहीं तो बर्बरता और मानव सभ्यता की विनाशक ताकतें दरवाजे पर खड़ी है।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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