वाराणसी स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में 25 दिसंबर को आयोजित ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ की चर्चा के दौरान 13 छात्रों की गिरफ्तारी ने न केवल विश्वविद्यालय बल्कि पूरे शहर को झकझोर कर रख दिया है।
यह घटना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रशासनिक दमन पर गंभीर सवाल खड़े करती है। छात्र समुदाय, प्रबुद्ध नागरिक, और सामाजिक कार्यकर्ता इसे पुलिस और प्रशासन की मनमानी का स्पष्ट उदाहरण मान रहे हैं।
‘भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा’ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का उद्देश्य 1927 में डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा मनुस्मृति जलाने की ऐतिहासिक घटना को याद करना था। इस आयोजन के दौरान, बीएचयू के प्रॉक्टोरियल बोर्ड के गार्ड्स ने छात्रों के साथ दुर्व्यवहार करते हुए उन्हें जबरन प्रॉक्टोरियल बोर्ड ऑफिस ले गए।
शाम करीब 7:30 बजे, इन छात्रों को वहां बंद कर दिया गया। इस कार्रवाई के पीछे बीजेपी और आरएसएस का हाथ है, ऐसा आंदोलनकारी छात्रों का आरोप है।
26 दिसंबर को वाराणसी पुलिस ने भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा के 13 सदस्यों पर गंभीर धाराओं में एफआईआर दर्ज की और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार किए गए छात्रों में तीन लड़कियां भी शामिल थीं। उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।
गिरफ्तारी के दौरान छात्रों के साथ मारपीट की गई। उनके कपड़े फाड़े गए, चश्मे तोड़ दिए गए और उन्हें शारीरिक चोटें पहुंचाई गईं। जो छात्र उनकी मदद के लिए पहुंचे, उन्हें भी पुलिस और गार्ड्स की हिंसा का सामना करना पड़ा। छात्रों ने आरोप लगाया कि उन्हें धमकाते हुए कहा गया कि उनका “भविष्य बर्बाद कर दिया जाएगा।”

गिरफ्तारी में शामिल छात्राओं ने पुलिस पर कानून तोड़ने का आरोप लगाया। उनका कहना है कि शाम के बाद महिलाओं को हिरासत में लेना कानून का उल्लंघन है। उन्हें वकीलों से मिलने की अनुमति तक नहीं दी गई।
1927 में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाकर जातिवाद और लैंगिक भेदभाव के प्रतीक को खारिज किया था। इस घटना का ऐतिहासिक महत्व भारतीय समाज में समानता और न्याय की मांग को बल देता है। लेकिन बीएचयू प्रशासन और पुलिस की यह कार्रवाई उस संघर्ष को दबाने का प्रयास मानी जा रही है।
लंका थाना पुलिस ने एफआईआर की कॉपी देने में आनाकानी की। छात्रों का आरोप है कि इस कार्रवाई में भाजपा, आरएसएस और एबीवीपी की संलिप्तता हो सकती है। पुलिस का यह कहना कि “मामला ऊपर से देखा जा रहा है,” इन आरोपों को और मजबूत करता है।
गिरफ्तार छात्रों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया है। उन्होंने जेल ले जाते समय “मनुस्मृति मुर्दाबाद” और “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे लगाए। छात्रों का कहना है कि यह गिरफ्तारी न केवल गैरकानूनी है, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन भी है। बाद में डिटेन किए गए सभी 13 छात्रों को जेल भेज दिया गया है।

गिरफ्तार किए गए छात्रों में मुकेश कुमार, संदीप जायसवाल, अमर शर्मा, अरविंद पाल, अनुपम कुमार, लक्ष्मण कुमार, अविनाश, अरविंद, शुभम कुमार, आदर्श, इप्सिता अग्रवाल, सिद्दी तिवारी और कात्यायनी बी रेड्डी के नाम शामिल हैं।
इन छात्रों पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं 132, 121(2), 196(1), 299, 190, 191(2), 115(2) और 110 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है, जिनमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है।
गिरफ्तार छात्रों का कहना है कि लंका थाने में उन्हें रातभर बंद रखा गया और पुलिस ने उनके साथ दुर्व्यवहार और मारपीट की। छात्रों को अपने वकीलों और परिजनों से मिलने तक की इजाजत नहीं दी गई।
जब वकीलों ने छात्रों से मिलने की कोशिश की, तो थाने के इंस्पेक्टर शिवाकांत मिश्रा ने उन्हें रोकते हुए कहा, “यह मेरा थाना है और यहां मेरे हिसाब से चलेगा। अपनी वकालत कोर्ट में जाकर करना।”
अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में हालिया घटनाएं न केवल छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शिक्षा के अधिकार पर सवाल उठाती हैं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और संविधान के मूल सिद्धांतों पर भी गहरा आघात करती हैं।
बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों और उनके द्वारा निर्मित संविधान को संरक्षित करने की कसमें खाने वाली सरकार के शासन में, उनकी विचारधारा पर चर्चा करना अब अपराध बन गया है।

भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा की अध्यक्ष आकांक्षा आज़ाद ने इस कार्रवाई को “ब्राह्मणवादी और हिंदुत्ववादी ताकतों के इशारे पर किया गया दमन” करार दिया। उन्होंने कहा, “हम बाबा साहेब अंबेडकर और भगत सिंह के विचारों के अनुयायी हैं। हमारी आवाज़ को दबाने के जितने भी प्रयास होंगे, हम उतने ही मजबूती से खड़े होंगे।”
आकांक्षा ने यह भी आरोप लगाया कि यह पूरी कार्रवाई बीएचयू प्रशासन और पुलिस ने “फासीवादी ताकतों” के दबाव में की। उन्होंने कहा, “मनुस्मृति जैसे ग्रंथ पर चर्चा करने पर छात्रों को जेल भेजा जाना लोकतंत्र का मज़ाक है।
यह ग्रंथ महिलाओं और दलितों को जानवरों से भी बदतर दर्जा देता है, और हमारे विचारों और सपनों को ऐसी दमनात्मक कार्रवाइयों से कुचला नहीं जा सकता।”
छात्र संगठनों की मांगें
भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा ने गिरफ्तार छात्रों की तुरंत रिहाई की मांग की है। उन्होंने झूठी एफआईआर रद्द करने और छात्रों के साथ हिंसा करने वाले पुलिसकर्मियों तथा बीएचयू गार्ड्स पर एफआईआर दर्ज कर सख्त कार्रवाई की मांग की। छात्रों ने कहा, “हमारे हौसले और सपनों को दबाया नहीं जा सकता। अभिव्यक्ति की आजादी पर ऐसे हमले बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे।”

गिरफ्तार छात्रों ने आरोप लगाया कि उनके मोबाइल फोन जब्त कर लिए गए और उनके परिवारों को सूचित करने तक की अनुमति नहीं दी गई। यह मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। 26 दिसंबर को जब छात्रों को रिमांड कोर्ट में पेश किया गया, तो उन्हें सीधे जेल भेज दिया गया।
इस घटना ने बनारस के सामाजिक और शैक्षणिक माहौल में गहरी हलचल पैदा कर दी है। प्रबुद्ध नागरिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने इसे लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर सीधा हमला बताया है।
मनुस्मृति पर चर्चा करना अपराध कैसे?
बनारस के जाने-माने अधिवक्ता प्रेम प्रकाश यादव ने कहते हैं, “मनुस्मृति पर चर्चा करना अपराध कैसे हो सकता है? यह ग्रंथ न केवल महिलाओं बल्कि दलितों और पिछड़ों के खिलाफ भी है। बाबा साहेब अंबेडकर ने इसे नकार दिया था।” उन्होंने इस घटना को “फर्जी मुकदमों और सत्ता की दमनकारी नीति” का हिस्सा बताया।

बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर डॉ. ओमशंकर ने इस घटना पर गहरी चिंता जताई। उन्होंने कहा, “मनुस्मृति पर शोध को संस्थागत मान्यता मिलती है, लेकिन इसके विरोध को असंवैधानिक करार देना लोकतंत्र के सिद्धांतों का मज़ाक उड़ाने जैसा है। बनारस की जनता, जिसने हमेशा से विचारों और संवाद को सम्मान दिया है, अब इस अन्याय के खिलाफ उठ खड़ी हो रही है। सवाल यह है कि क्या यह लोकतंत्र और संविधान की नींव पर हो रहा संगठित हमला नहीं है?”
डा. ओमशंकर ने कहा, यह घटना न केवल छात्रों के अधिकारों पर प्रश्न खड़ा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सत्ता और प्रशासन के द्वारा असहमति की आवाज़ को दबाने के लिए किस हद तक कदम उठाए जा सकते हैं। यह केवल छात्रों का मामला नहीं, बल्कि न्याय, समानता और स्वतंत्रता की मूलभूत लड़ाई का प्रतीक है।
कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक मनीष शर्मा ने सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा, “एक तरफ मोदी सरकार और उनके मंत्री संविधान की रक्षा और बाबा साहेब के विचारों को अपनाने की बात करते हैं।
दूसरी तरफ, जब छात्र मनुस्मृति जैसे ग्रंथ पर चर्चा कर संविधान की मूल भावना को समझने और व्यक्त करने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें संविधान विरोधी बताकर दंडित किया जाता है।” यह विरोधाभास न केवल सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि संविधान के प्रति उसकी कथनी और करनी के बीच के गहरे अंतर को भी उजागर करता है।

मनीष शर्मा ने कहा, “यह हिंदुस्तान है, जहां लोकतंत्र सर्वोपरि है।” लेकिन जिस तरह से छात्रों की आवाज़ को कुचला जा रहा है, वह लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा हमला है। इसे सिर्फ एक घटना के तौर पर नहीं देखा जा सकता। इसे संघ और बीजेपी की नफरत और घृणा की राजनीति के बड़े संदर्भ में समझने की जरूरत है।
मनुस्मृति को फिर से समाज में स्थान देने का प्रयास देश को जातिवाद, पितृसत्ता और असमानता की ओर धकेलने जैसा है। यह हमारे समाज को सदियों पीछे ले जाने की कोशिश है, जिसे हर हाल में रोका जाना चाहिए।
मनुस्मृति पर बखेड़ा क्यों?
आज जब भारतीय संविधान की भावना को बार-बार कुचला जा रहा है, उसे बचाना पहले से कहीं अधिक जरूरी हो गया है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने एक ऐसा संविधान दिया जो समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का प्रतीक है। लेकिन आज उसी संविधान के मूल्यों को खत्म करने की योजनाएं बनाई जा रही हैं।
बीएचयू में छात्रों द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक समरसता के लिए चल रही यह लड़ाई भारतीय समाज के भीतर छिपे गहरे भेदभाव और असमानता के मुद्दों को उजागर करती है।
बाबा साहेब ने अपने जीवन को सामाजिक समानता और न्याय की स्थापना के लिए समर्पित किया। उन्होंने मनुस्मृति को जलाकर यह संदेश दिया कि इस देश को जाति, वर्ग और लैंगिक भेदभाव से मुक्त करना होगा।
मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है, जिसने महिलाओं, दलितों और पिछड़े वर्गों को जानवरों से भी बदतर दर्जा दिया। बाबा साहेब ने इसे नकारते हुए भारतीय संविधान की नींव रखी, जो हर नागरिक को समान अधिकार और सम्मान देता है।
लेकिन आज जब मनुस्मृति के विचारों को पुनर्जीवित करने की कोशिशें हो रही हैं, तो यह स्पष्ट है कि यह लड़ाई केवल विचारों की नहीं, बल्कि संविधान और लोकतंत्र के अस्तित्व को बचाने की है।
बीएचयू की यह घटना केवल छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला नहीं है, बल्कि यह देश के लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों पर सीधा प्रहार है। इसे एक गहरी और संगठित साजिश के रूप में देखना चाहिए, जो हमारे समाज को विभाजित और कमजोर करने के लिए रची गई है।
यह संघर्ष केवल बीएचयू के छात्रों का नहीं, बल्कि हर उस नागरिक का है जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय में विश्वास रखता है।
मनीष का यह भी कहना है, “मैं बीएचयू के छात्रों को जेल भेजने के इस मामले को गंभीरता से लेता हूं। बाबा साहेब ने मनुस्मृति को जलाकर संविधान दिया था। अगर आज वही मनुस्मृति उन विचारों को वापस ला रही है, जिनकी वजह से हमें हजारों साल तक शोषण झेलना पड़ा, तो हम इसका विरोध करते रहेंगे। हम इसकी आलोचना करेंगे।”
मनीष के ये शब्द केवल आक्रोश नहीं हैं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन की स्पष्ट गूंज हैं। यह उस ऐतिहासिक संघर्ष का प्रतीक है, जिसने समानता और न्याय की स्थापना के लिए समाज में बड़े बदलाव लाए।
दूसरी ओर, बीएचयू के विधि संकाय के प्रोफेसर मयंक पाठक ने मनुस्मृति को लेकर हुए हालिया विवाद पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि मनुस्मृति को लेकर देश में पहले भी विवाद हुआ है और बीएचयू में भी इस विषय पर पहले बहस हो चुकी है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि 25 दिसंबर को महामना मदन मोहन मालवीय जी का जन्मदिवस होता है, जिसे बीएचयू में सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है। इसी को ध्यान में रखते हुए यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही थी कि विश्वविद्यालय का माहौल खराब न हो।
प्रोफेसर पाठक ने बताया कि कुछ छात्र मनुस्मृति को जलाने का प्रयास कर रहे थे और ऐसी किसी भी अप्रिय घटना को रोकने के लिए प्रशासन ने कदम उठाए। उन्होंने यह भी कहा कि छात्रों के इस प्रकार के व्यवहार से विश्वविद्यालय की छवि प्रभावित हो सकती है, इसलिए यह जरूरी था कि उन्हें रोका जाए।
उन्होंने यह भी कहा कि कोई भी अपने ही विश्वविद्यालय के छात्रों को परेशान होते हुए नहीं देखना चाहता, लेकिन जिस प्रकार छात्रों ने अनुचित व्यवहार किया, वह निंदनीय है। यह कदम बीएचयू की गरिमा और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए उठाया गया।
महिलाओं के लिए अन्यायपूर्ण प्रावधान
मनुस्मृति के पांचवें अध्याय का 148वां श्लोक महिलाओं की स्थिति को दयनीय ढंग से दर्शाता है। इसमें लिखा गया है, “एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए। शादी के बाद पति उसका संरक्षक होगा, और पति की मृत्यु के बाद वह अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहेगी। किसी भी स्थिति में एक महिला स्वतंत्र नहीं हो सकती।” इस विचारधारा ने सदियों तक महिलाओं को समाज में स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि केवल पुरुषों की छत्रछाया में रहने वाले प्राणी के रूप में देखा।
मनुस्मृति का यह दृष्टिकोण महिलाओं की स्वतंत्रता, शिक्षा और अधिकारों पर गंभीर प्रहार करता है। यह उन्हें बराबरी का दर्जा देने के बजाय, उन्हें एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसकी स्वतंत्रता हमेशा किसी न किसी व्यक्ति या संस्था के अधीन होनी चाहिए। यह विचार आज के आधुनिक और प्रगतिशील समाज के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य है।
वंचित वर्गों पर मनुस्मृति का प्रभाव
मनुस्मृति केवल महिलाओं तक ही सीमित नहीं रही। इसमें वंचित और दलित वर्गों के खिलाफ भी घोर अपमानजनक बातें लिखी गई हैं। इसमें जातिगत भेदभाव को धार्मिक आधार दिया गया, जिससे समाज में ऊंच-नीच की परंपरा को बढ़ावा मिला। यह ग्रंथ समाज को विभाजित करने और वंचित वर्गों को शोषित रखने का एक माध्यम बन गया।
बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस असमानता के खिलाफ संघर्ष किया और संविधान के माध्यम से समाज को समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का संदेश दिया। उन्होंने मनुस्मृति को जलाकर यह स्पष्ट कर दिया कि इस ग्रंथ के विचार भारतीय समाज के लिए हानिकारक हैं।
संविधान और मनुस्मृति के बीच का अंतर स्पष्ट है। एक ओर संविधान समानता, स्वतंत्रता और न्याय की बात करता है, तो दूसरी ओर मनुस्मृति जातिवाद, लैंगिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देती है। मनुस्मृति के विचारों को समाज में वापस लाने का अर्थ है, प्रगति के सभी प्रयासों को नकारते हुए समाज को सैकड़ों वर्ष पीछे ले जाना।
आज जब बीएचयू में छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला किया जा रहा है और मनुस्मृति जैसे विचारों को पुनर्जीवित करने की कोशिशें हो रही हैं, यह जरूरी हो गया है कि समाज संविधान के पक्ष में मजबूती से खड़ा हो। यह केवल छात्रों की लड़ाई नहीं है, बल्कि पूरे समाज की लड़ाई है। यह उस लोकतंत्र और समानता की रक्षा की लड़ाई है, जो भारत की आत्मा है।
एडवोकेट ओमप्रकाश का कहना है, “मनुस्मृति के विचारों का विरोध करना और संविधान के मूल्यों की रक्षा करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। यह संघर्ष केवल आज की पीढ़ी के लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिए है।”
एडवोकेट राम दुलार, राकेश अग्रहरि और राजेश का कहना है कि छात्रों को जेल भेजना न केवल उनका दमन है, बल्कि उनके भविष्य और उनके करियर को खतरे में डालने का प्रयास है।
इतिहासकारों के मुताबिक, “मनुस्मृति केवल एक ग्रंथ नहीं है, बल्कि इसे एक ऐसे धर्मशास्त्र के रूप में स्थापित किया गया, जिसने समाज को असमानता और अन्याय के जाल में बांध दिया। इसके विपरीत, संविधान ने इस जाल को तोड़ने का काम किया और समाज में समानता की नींव रखी।”
आज का समय यह मांग करता है कि समाज के हर व्यक्ति को इस अन्याय के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। संविधान की रक्षा केवल एक कानूनी दायित्व नहीं, बल्कि एक नैतिक और सामाजिक कर्तव्य भी है। बाबा साहेब ने जिस भारत का सपना देखा था, वह तभी साकार होगा जब समाज से असमानता और भेदभाव को पूरी तरह समाप्त किया जाएगा।
बीएचयू के छात्रों का संघर्ष इस लड़ाई का प्रतीक है। यह केवल एक परिसर का मामला नहीं है, बल्कि पूरे देश के लोकतंत्र और संविधान के अस्तित्व की लड़ाई है।
हमें यह याद रखना होगा कि किसी भी समाज की असली शक्ति उसके संविधान और उसकी जनता की स्वतंत्रता में होती है। जब इन पर हमला होता है, तो समाज के हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह इसके खिलाफ आवाज उठाए और अपनी भूमिका निभाए।
शोध और संवैधानिकता पर सवाल
काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के संस्कृत धर्म विज्ञान संकाय (SVDV) में दो साल पहले ‘मनुस्मृति’ पर आधारित एक शोध परियोजना शुरू की गई थी। इस परियोजना का उद्देश्य ‘मनुस्मृति’ को नारी या शूद्र विरोधी नहीं बताना था, बल्कि इसे एक और दृष्टिकोण से देखना था।
इस शोध परियोजना को लेकर विश्वविद्यालय परिसर में बहस और विरोध की लहर उठी। खासकर बहुजन समाज के छात्रों ने इसे संविधान और समानता के सिद्धांतों के खिलाफ बताते हुए तीखा विरोध किया है।
यह परियोजना तब शुरू हुई जब BHU के वर्तमान कुलपति प्रो. सुधीर कुमार जैन ने कार्यभार संभाला। ‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की उपादेयता’ नामक इस शोध परियोजना को IOE (इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस) फंड से वित्त पोषित किया गया। इसे कोविड काल में तैयार किया गया था और इसके नेतृत्व का जिम्मा प्रोफेसर आचार्य शंकर मिश्र को सौंपा गया था।
प्रो. शंकर मिश्र का कहना है कि मनुस्मृति को लेकर समाज में बहुत से भ्रम हैं। उनका तर्क है, “आज लोग मनुस्मृति को स्त्रियों और दलितों के खिलाफ बताते हैं, लेकिन यह गलत है। मनु ने ये बातें किस संदर्भ में कहीं, इसका सही आकलन नहीं किया जाता।” उनके अनुसार, मनुस्मृति का अध्ययन इसलिए जरूरी है ताकि इन भ्रांतियों को दूर किया जा सके।
प्रो. मिश्र ने इस शोध के लिए फेलोशिप की प्रक्रिया भी शुरू की है, जिसमें 40 वर्ष से कम उम्र के आचार्य (PG) डिग्री धारक को 25,000 रुपये से अधिक का वेतन देने की बात कही है। उनका दावा है कि मनुस्मृति नारी विरोधी नहीं है, बल्कि स्त्रियों की स्वतंत्रता का समर्थन करती है। उनका कहना है, “यदि कोई विधवा हो जाती है तो समाज उसे गलत नजर से देखता है। मनुस्मृति ने ऐसी स्त्रियों की गरिमा बचाने की बात की है।”
BHU के बहुजन समाज के छात्रों का मानना है कि मनुस्मृति पर शोध करना संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है। छात्र अजय कुमार भारती कहते हैं, “मनुस्मृति में शूद्रों को पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं दिया गया था।
यह ग्रंथ जातियों में भेदभाव को बढ़ावा देता है। वर्तमान समय में यह पूरी तरह अप्रासंगिक है। संविधान में सभी को समान अधिकार दिए गए हैं, और मनुस्मृति का यह शोध संविधान का अपमान है।”
मनुस्मृति पर बखेड़ा क्यों?
मनुस्मृति पर विरोध करने छात्रों का कहना है कि इस ग्रंथ पर शोध करना उन वर्गों की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है, जो सदियों से इस व्यवस्था के शोषण का शिकार रहे हैं। मनुस्मृति के कुछ श्लोकों को लेकर अक्सर विवाद होता है, खासतौर पर उन श्लोकों पर, जो महिलाओं और निचली जातियों के अधिकारों को सीमित करते हैं।
एक श्लोक के अनुसार, “एक लड़की को हमेशा पिता, पति और पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए। किसी भी स्थिति में वह स्वतंत्र नहीं हो सकती।” ये विचार संविधान द्वारा दिए गए समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों के विपरीत हैं। दलित और पिछड़े समुदाय के छात्रों का यह भी मानना है कि बहुजन समाज के लिए मनुस्मृति का नाम ही एक ऐतिहासिक अन्याय का प्रतीक है। वे इसे उस शोषण और भेदभाव का आधार मानते हैं, जिसने निचली जातियों और महिलाओं को सदियों तक उनके अधिकारों से वंचित रखा।
आज का भारत संविधान के नियमों और समानता के आदर्शों पर खड़ा है। मनुस्मृति पर अक्सर विवाद उठते हैं, खासकर महिलाओं और वंचित वर्गों के संदर्भ में। इसे भारतीय समाज के जाति और लैंगिक भेदभाव का प्रतीक माना जाता है। 1927 में बाबा साहेब अंबेडकर ने इसे जलाकर विरोध व्यक्त किया था।
मनुस्मृति हिंदू धर्म का प्राचीन धर्मशास्त्र है। इसमें कुल 12 अध्याय और 2684 से 2964 श्लोक बताए गए हैं। इसे 1776 में पहली बार अंग्रेजी में अनुवादित किया गया। महर्षि मनु को मानव संविधान का प्रवक्ता माना जाता है। उन्होंने समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दीं, उसे ‘मनुवाद’ कहा गया। दरअसल, मनुस्मृति में महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को लेकर विवादास्पद बातें कही गई हैं।
यह महर्षि मनु द्वारा रचित समाज संचालन के नियमों का संकलन है। महिला को पिता, पति या पुत्र की संरक्षण में रहना चाहिए; किसी भी स्थिति में वह स्वतंत्र नहीं हो सकती (पांचवा अध्याय, 148वां श्लोक)। विवाह के बाद वह पति के संरक्षण में, और पति की मृत्यु के बाद अपने पुत्रों की दया पर निर्भर रहना चाहिए। किसी भी स्थिति में महिला स्वतंत्र नहीं हो सकती। महिलाएं पुरुषों को उत्तेजित करने और बहकाने का स्वभाव रखती हैं। ऐसे में उन्हें सख्त निगरानी में रखना चाहिए। महिलाओं का स्वभाव पुरुषों को बहकाना है।
मनुस्मृति में यह भी लिखा गया है कि, “उस महिला से विवाह न किया जाए जिसके बाल या आंखें लाल हों, जिसके अंग अतिरिक्त हों, जो अक्सर बीमार रहती हो, या जिसकी जाति नीची हो। उस महिला से विवाह न करें जिसका नाम आतंक, नदी, पेड़ या सांप के संदर्भ में हो। ब्राह्मण को भोजन के दौरान रजस्वला महिला, सूकर, कुत्ता या किन्नर को नहीं देखना चाहिए।”
मनुस्मृति में वर्णित ये नियम महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता को नकारते हैं। यह ग्रंथ महिलाओं को पुरुषों के अधीन रखने और दलितों व वंचित वर्गों के अधिकारों को सीमित करने का प्रयास करता है।
यही कारण है कि यह ग्रंथ हमेशा विवादों का केंद्र बनाता आ रहा है। इस पर बहस जारी रहना इस बात का प्रमाण है कि समाज में समानता और स्वतंत्रता के लिए लड़ाई अभी पूरी नहीं हुई है।
तमाम कुरीतियों के चलते डॉ. भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाते हुए कहा था कि यह दलितों और महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ है। दूसरी ओर, कुछ लोग इसे समाज कल्याण का मार्गदर्शक मानते हैं, हालांकि विवादास्पद हिस्सों को नजरअंदाज करने की वकालत करते हैं।
वंचित समुदाय के हितों के लिए काम करने वाले पूर्वांचल के जाने-माने जनवादी नेता अजय राय कहते हैं कि छात्रों की गिरफ्तारी अवैध है। इस मामले में लंका थाना पुलिस की भूमिका लोकतांत्रिक ढांचे को चुनौती देती नजर आई।
पुलिस का कर्तव्य कानून-व्यवस्था बनाए रखना है, लेकिन यहां पुलिस ने भाजपा के जनसंगठन जैसा व्यवहार करते हुए छात्रों की आवाज़ को दबाने का काम किया। छात्रों पर भारतीय दंड संहिता की गंभीर धाराएं लगाई गईं और उन्हें जेल भेज दिया गया। यह कार्रवाई न केवल गैर-कानूनी है, बल्कि समाज में भय और असुरक्षा का माहौल पैदा करने वाली भी है।
इस घटना ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या विश्वविद्यालयों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी सच में मौजूद है? क्या प्रशासन और पुलिस छात्रों की आवाज़ दबाने के लिए शक्ति का दुरुपयोग कर रही है? और क्या यह घटना समाज में बढ़ते असहिष्णुता और दमन का प्रतीक है?
इस पूरी घटना ने बीएचयू के छात्रों और समाज के बीच एक बड़ा संवाद छेड़ दिया है, जो न्याय और समानता की मांग को और मुखर बना रहा है।
(आराधना पांडेय स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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