अमेरिका के शहर शिकागो में 1 मई 1886 को घटी घटना और उसके बाद इस अंतरराष्ट्रीय दिवस के प्रचलन में आने तथा बाद में यह सचमुच में पृथ्वी का अनूठा दिन बन जाने के बारे में कई बार लिखा जा चुका है। यहाँ इसके इतिहास का नहीं, बल्कि इसके युगांतरकारी प्रभाव का जायजा लेना है।
सबसे पहली बात तो यह कि इसे सिर्फ मजदूरों का दिन समझने की समझदारी ही सिरे से गलत है। यह विश्व इतिहास की ऐसी परिघटना है, जिसने पूरी दुनिया को बदलकर रख दिया। आठ घंटे की मांग का हासिल किया जाना-और इसी की निरंतरता में हुई समाजवादी क्रांति-एक ऐसा बदलाव था, जिसने मनुष्य को मनुष्य बनाया। इसने उसकी रचनात्मकता और सृजनशीलता को इस कदर मुक्त किया कि उसने इसके बाद के लगभग 140 वर्षों में जितनी तेजी से प्रगति की, उतनी इसके पहले के 10 हजार वर्षों में भी नहीं की थी। कुल मिलाकर, इसने मानव समाज को रहने योग्य बनाया।
इस बार का मई दिवस इसलिए और महत्वपूर्ण तथा प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि इन दिनों ठीक वही हालात नजर आने लगे हैं, जिनके चलते डेढ़ शताब्दी पहले मई दिवस की घटना घटी थी।
मुख्तसर में यह कि 8 घंटे काम की उपलब्धि पर पूंजी के गिद्ध और मुनाफे के भेड़िए लपक रहे हैं। अठारह-अठारह घंटे की बातें की जा रही हैं और इसके लिए सिर्फ माहौल ही नहीं बनाया जा रहा, बल्कि कानून भी बदले जा रहे हैं। कार्यदशाओं को असहनीय और अमानवीय बनाया जा रहा है। रोजगार की नियमितता, जो अधिकार हुआ करती थी, अब ठेका मजदूरी में बदलते-बदलते उससे भी निम्न स्थिति में पहुंचाई जा रही है। महिला कामगारों को मेहनतकश के नाते, नागरिक के नाते और महिला के नाते तिहरे शोषण की चक्की में पिसने की दशा में ला दिया गया है।
लोकतांत्रिक अधिकार तो दूर की बात, ट्रेड यूनियन बनाने और उनके जरिए सामूहिक सौदेबाजी कर मुनाफे में अपना हिस्सा बढ़वाने के मूलभूत अधिकार भी लगभग स्थगित-से कर दिए गए हैं। दमन की तीव्रता सारे मानवाधिकारों का अतिक्रमण कर रही है और मेहनतकश ही नहीं, हर तरह की असहमति और अभिव्यक्ति से निपटने के लिए हिंसक तौर-तरीके आजमाए जा रहे हैं।
शासक वर्गों की बर्बरता की जाहिर वजहें हैं: उनका गुब्बारा पिचक रहा है, शीराजा बिखर रहा है। लाख साजिशों के बाद भी पूंजीवाद का संकट सुलझने में नहीं आ रहा, बल्कि हर गुजरते दिन के साथ और गहरा हो रहा है। अपने आपको बचाने के लिए पूंजीवाद ने जिस वैश्वीकरण की रणनीति को अपनाया था, वह भी इस शोषणकारी निजाम को बचा नहीं पाई है।
पूंजीवाद को गाय की पूंछ की तरह वैतरणी पार करने का पवित्र जरिया बताने वाले पंडित भी अब विलाप कर रहे हैं। उन्होंने भी इस व्यवस्था के दिवालिएपन को कबूल कर लिया है। पूंजीवाद के इस अतार्किक बेतुकेपन से मुक्ति पाने के लिए वे नव-उदारवादी चालबाजी के एक और उतने ही अतार्किक बेतुके रास्ते को आजमाने पर आमादा हुए थे।
मगर यह नवउदारवादी मंत्र भी, जैसा कि होना ही था, चौतरफा विफल होकर चारों खाने चित्त पड़ा है। इसके चलते जो होना था, वही हो रहा है: भारी गरीबी बढ़ रही है, पूरी दुनिया में असमानता की खाई चौड़ी हुई है और दौलत का कुछ हाथों में अश्लीलता की हद तक केंद्रीकरण हो गया है। इस सबने इस निजाम की भंगुरता और अव्यावहारिकता को उजागर कर दिया है।
मौजूदा दरबारी पूंजीवाद ने खुद के लिए मोहलत हासिल करने के लिए धुर दक्षिणपंथी रुझानों को बड़ी मेहनत से पाल-पोसकर बढ़ाया और उकसाया है। भले ही इतिहास में थोड़े समय के लिए, ये ताकतें अपनी शैतानियत को उरूज पर ला रही हैं। ट्रम्प की अगुआई वाला संयुक्त राज्य अमेरिका खुद एक गंभीर संकट में फंसा हुआ है। इससे उबरने के लिए वह अपना बोझ दुनिया पर उतार रहा है और इसके लिए लगातार नए-नए साम्राज्यवादी हमले कर रहा है।
परोक्ष और अपरोक्ष रूप से सारी दुनिया पर साम्राज्यवादी युद्ध थोप रहा है। फिलिस्तीन के गाजा में नरसंहार लगातार जारी है। अब लड़ाई के इस मैदान को ईरान से लेकर एशिया और लैटिन अमेरिका से लेकर कनाडा और यूरोप तक फैलाने की शकुनि योजनाएं बनाई जा रही हैं। यह सब जितनी तेज रफ्तार से हो रहा है, वह अकल्पनीय है-यह दुनिया को जिस मुहाने पर धकेल रहा है, वह भयावह है।
भारत में इस धुर दक्षिणपंथ की राजनीतिक प्रजाति-नव-फासीवादी मोदी सरकार-है, जो देश के आम अवाम की मुश्किलों को हल करने में बुरी तरह विफल रही है। इसी के चलते इसने लोकसभा में बहुमत भी गंवा दिया। पिछले साल हुए चुनावों में मोदी की अपराजेयता को चुनौती मिली और जनता ने इसे जमीन सूंघा दी। मगर, बजाय इसके कोई सबक लेने के, नव-फासीवाद की अगुआई वाली दरबारी पूंजीवाद की यह नस्ल हमलों के नए-नए तरीके और रास्ते ढूंढने में जुटी है।
वक्फ का नया कानून, कश्मीर में आतंकी हमला, कश्मीर के भयावह कांड के बाद उभारा जा रहा नफरती जहर और युद्धोन्माद, जबरन हिंदी थोपने की कोशिशें आदि ऐसी ही तिकड़मे हैं। ये सब मिलकर विभाजनकारी उन्माद की आग में घी की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
मुट्ठीभर लोग आसानी से राज कर सकें, इसके लिए चाणक्य से अरस्तू होते हुए मैकियावली तक ने पड़ोसियों से युद्ध छेड़ देने का रास्ता सुझाया था। अब ऐसे नुस्खे भी पुराने पड़ गए लगते हैं, इसलिए अब देश के अंदर, घर के भीतर ही, अपने नागरिकों के एक हिस्से को बाकियों का दुश्मन बताकर विभाजन की भट्टी सुलगाई जा रही है।
ट्रम्प ने अपने अमेरिका में अपने ही नागरिकों के एक तबके को निशाने पर लिया हुआ है, तो उनके खास दोस्त इधर अपनी ही आबादी के खिलाफ विषैली मुहिम छेड़े हुए हैं। अभी फिलवक्त निशाने पर मुसलमान और ईसाई हैं, मगर बात यहीं तक रुकने वाली नहीं है। जिस एजेंडे को लेकर नव-फासीवादी अगुआई वाला हिंदुत्वी कॉरपोरेटी गिरोह आगे बढ़ रहा है, वह आदिवासियों, दलितों, पिछड़ी जातियों तथा सभी जातियों की सभी महिलाओं को मनु के कारागार में बंद करने की बदनीयती से भरा है।
लूट की यह मुहिम फूट की इस तिकड़म की दम पर ही आगे बढ़ रही है; मगर क्या लुटने वाले इस सच से वाकिफ हैं? लगता तो नहीं है। उन्हें कभी पुलवामा में भुलाया जाता है, कभी पहलगाम में उलझाया जाता है। कभी ‘फुले’ नाम की फिल्म के बहाने ब्राह्मणों के खतरे में होने का रोना रोया जाता है, तो कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर वोट का अंडा सेया जाता है।
यूं भी इतिहास का सच यह है कि लोग अपने आप सब कुछ नहीं जान लेते। राज करने वाले सिर्फ सत्ता के बूते पर राज नहीं करते, बल्कि जिन पर राज करते हैं, उनके सोच-विचार के मुद्दों और तरीकों को भी इस तरह ढालते हैं कि वे अपने असली दुश्मन की शिनाख्त ही नहीं कर पाएं।
सूचना के क्षेत्र में हुई क्रांति और पूंजीवाद के नए दरबारी कॉरपोरेटी रूप में आने तथा कॉरपोरेट मीडिया और इनके गठबंधन के पक्का हो जाने के बाद तो यह काम और आसान हो गया है। इसलिए चेतना पर उगी और उगाई जा रही इस खरपतवार की साफ-सफाई भी एक जरूरी काम हो जाता है। वैसे भी बदलाव के लिए जानना, बूझना और समझना एक अनिवार्य पूर्व शर्त होती है।
2025 का मई दिवस
यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें देश की 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और अनेक स्वतंत्र महासंघों, फेडरेशनों तथा एसोसिएशनों ने मिलकर 20 मई 2025 को देशव्यापी आम हड़ताल का नारा दिया है। यकीनन इस हड़ताल को ऐतिहासिक कामयाबी दिलाकर ही इतिहास को सही दिशा में ले जाने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। ठीक इसलिए यह हड़ताल सिर्फ उस दिन-20 मई को-की जाने वाली कार्यवाही का मामला नहीं है, बल्कि यह आम मजदूरों तक उनके जीवन से जुड़े रोजमर्रा के मुद्दों और उनसे जुड़े हालात तथा उनके समाधान के बारे में संदेश ले जाने का भी एक बड़ा अवसर है।
यह विराट, जुझारू और एकजुट वर्गीय कार्यवाही मजदूर वर्ग के हाथों में ऐसा हथियार बननी चाहिए, जिससे वह पूंजीवाद और उसके राजनीतिक आकाओं के जघन्य हमलों को बेनकाब कर सके, उनके द्वारा फैलाई जा रही धुंध और कुहासे को चीर सके।
मानव समाज का इतिहास प्रमाणित कर चुका है कि अमावसें चिरायु नहीं होती, रात कितनी भी लंबी हो, रात ही होती है, ग्रहण कितना भी समय चले, दीर्घायु नहीं होता। पूर्णिमा आती है, सुबह होती है और मिथकों में बताए जाने वाले राहु-केतु के पाश से सूरज और चांद मुक्त होते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि समझदार और जुझारू समाज ऐसा होने के इंतजार में नहीं बैठता-वह ऐसा जल्दी हो, इसके लिए जी-तोड़ [पूरा वाक्य अधूरा था, इसलिए इसे हटा दिया गया]
(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)
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