कल शाम जैसे ही पटना में जातीय जनगणना की खबर सार्वजनिक हुई, पूरे देश भर में अचानक से बहस की दिशा ही मुड़ गई। सभी का ध्यान न चाहते हुए भी इन नतीजों को जानने और साझा करने की होड़ लग गया। कथित गोदी मीडिया के वे पत्रकार तक इसके नतीजों को सार्वजनिक करने से खुद को रोक नहीं पा रहे थे। और तो और 4 राज्यों में भाजपा के चुनावी अभियान का सारा दारोमदार लिए पीएम नरेंद्र मोदी तक को टिप्पणी करने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन उन्होंने जो बात बोली उसके गहरे निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। उन्होंने कहा, “वे तब भी जात-पात के नाम पर समाज को बांट रहे थे, आज भी वही पाप कर रहे हैं।”
क्या पीएम मोदी जातिगत जनगणना को पाप कह रहे हैं? यदि ऐसा है तो यूपी में गृहमंत्री अमित शाह की नई सोशल इंजीनियरिंग की सफलता की जय-जयकार कर उन्हें नया चाणक्य का ख़िताब भाजपा के पंडित क्यों देते रहते हैं? क्या इससे हिंदुत्व की राजनीति पर कोई भारी आघात पड़ने जा रहा है? क्या आगामी विधानसभा चुनावों सहित लोकसभा चुनावों में भी महिला आरक्षण, धारा 370, राम मंदिर जैसे मुद्दों के बजाय मतदाता वर्ग का बड़ा हिस्सा सामाजिक हिस्सेदारी के मुद्दे पर विपक्षी इंडिया गठबंधन के पाले में जाकर भाजपा को ऐतिहासिक पराजय की दहलीज पर ला सकता है?
ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, जो अभी भविष्य के गर्भ में हैं। कल शाम तक सिर्फ जातीय संख्या और कुल आबादी में प्रतिशत के आंकड़े आये हैं। आज 9 राजनीतिक दलों की सर्वदलीय बैठक आमंत्रित की गई है, जिसमें आर्थिक आधार पर क्या वर्गीकरण है, के बारे में संभवतः खुलासा होगा। कई राजनीतिक पर्यवेक्षक पूरी रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा मंगलवार दोपहर 3:30 बजे सीएम आवास पर सर्वदलीय बैठक बुलाई गई है, जिसमें सभी 9 राजनीतिक दलों को आमंत्रित किया गया है। इस बैठक में जातीय गणना में जारी आंकड़ों पर चर्चा की जानी है। ऐसा माना जा रहा है कि सभी राजनीतिक पार्टियों के सामने रिपोर्ट रखने के साथ-साथ आर्थिक सर्वेक्षण में निकले आंकड़ों पर भी चर्चा की जा सकती है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी और बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पहले ही इस बात पर एकमत हैं कि जिनकी जितनी आबादी, उन्हें उतना ही हक मिलना चाहिए। ऐसे में अनुमान लगाया जा रहा है कि चूंकि सर्वेक्षण में साफ़ हो गया है कि पिछड़े और अति पिछड़े समुदाय की संख्या कुल आबादी के 63% हिस्से से भी अधिक है, ऐसे में उनके लिए 27% आरक्षण सर्वथा अनुचित है। इसे तत्काल बढ़ाने की मांग बिहार से यदि उठती है तो इसका राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने और जातीय जनगणना की मांग जोर पकड़ सकती है। इसके साथ ही अनुसूचित जाति के लिए भी आरक्षण में बदलाव की मांग उठ सकती है, जिनकी आबादी बिहार में अब 20% है।
इस जनगणना में सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह निकलकर आ रही है कि सामान्य वर्ग (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, श्रीवास्तव, बनिया) इत्यादि की कुल आबादी 15.5% है। वहीं दूसरी तरफ आरक्षण पाने वाले अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, अति पिछड़ी जातियों की आबादी 84% होने के बावजूद उनके लिए संवैधानिक आरक्षण की सीमा 50% तय कर दी गई है। इसे एक तरह से कहा जाना चाहिए कि जिन्हें सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा माना गया उनके लिए हदबंदी कर दी गई है, लेकिन जिनकी आबादी महज 15% है, उनके लिए 50% आरक्षण की व्यवस्था किस आधार पर की गई है?
बीजेपी ने अभी तक ओबीसी वर्गों का वोट साधकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी। आजतक के एक आंकड़े के अनुसार ओबीसी वर्ग में सामान्य एवं अति पिछड़े समुदाय से वोटों का प्रतिशत कुछ इस प्रकार से था:
1996 में भाजपा को सामान्य ओबीसी समुदाय का 22% और अति पिछड़ी जातियों से 17% वोट हासिल हुए थे। लेकिन 2014 में जब प्रधानमंत्री पद की दावेदारी नरेंद्र मोदी के द्वारा की जाती है तो सामान्य ओबीसी वर्ग का 30% मत और अति-पिछड़े वर्ग से 43% वोट हासिल होते हैं। भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ देश की हुकूमत पर इसी ओबीसी वोटों की मदद से पहुंचने में कामयाब हो सकी थी।
लेकिन 2019 में भाजपा का ओबीसी वर्ग के वोटों में सेंधमारी इतने बड़े पैमाने पर बढ़ जाती है कि 300 से अधिक लोकसभा की सीटें हासिल कर नरेंद्र मोदी की भाजपा को इसके बाद एनडीए गठबंधन की भी जरुरत महसूस नहीं होती। 2019 के चुनाव में भाजपा को सामान्य ओबीसी वर्ग से रिकॉर्ड 40% मत हासिल हुए थे, जबकि अति-पिछड़े वर्गों के बीच यह मत प्रतिशत 48% तक पहुंच गया था। इसका सबसे बड़ा खामियाजा विभिन्न क्षेत्रीय दलों को तो भुगतना ही पड़ा, लेकिन कांग्रेस भी इसके साथ उत्तर भारत से लगभग गायब हो गई थी।
2019 आम चुनाव में कांग्रेस को जहां मामूली बढ़त के साथ सीट संख्या 50 के पार पहुंची थी, जिसमें सबसे बड़ा योगदान दक्षिणी राज्य केरल को जाता है, वहीँ उत्तर-भारत और पश्चिम बंगाल में धमाकेदार शुरुआत कर भाजपा ने 2014 की जीत को 2019 में और मजबूत कर लिया था। 2024 चुनावों में भी कमोबेश यही स्थिति दुहराए जाने की संभावना देखी जा रही थी, लेकिन बिहार में नितीश-तेजस्वी की जोड़ी ने इस बार भाजपा के लिए हालात पूरी तरह से उलट चुके हैं। विशेषकर बिहार में पिछड़ा और अति पिछड़ा समुदाय के साथ मुस्लिम और वामपंथी वोटों को जोड़ दें तो भाजपा के लिए बिहार सबसे बड़ा वाटरलू साबित होने जा रहा है।
2 अक्टूबर के दिन राष्ट्रपिता गांधी के जन्मदिन के अवसर पर जारी इस जनगणना के आंकड़ों को भाजपा ने भ्रम फैलाने वाला आंकड़ा करार दिया है। इसमें अति पिछड़ा 36.01% और पिछड़ा वर्ग 27.1% की आबादी के साथ कुल आबादी के 63% से भी अधिक बैठता है। जबकि यादव 14.26% के साथ सबसे बड़ा जातीय समुदाय बनकर उभरा है। धर्म के आधार पर हिंदू 81.99%, ईसाई 0.087%, मुस्लिम 17.7%, सिख 0.011% और किसी धर्म को न मानने वालों का प्रतिशत 0.006% है।
इंडिया गठबंधन के लिए जातिगत जनगणना एक बड़ा मुद्दा
इंडिया गठबंधन के नेताओं द्वारा भी जातिगत जनगणना के निष्कर्षों के आधार पर वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय को सुनिश्चित कराने के लिए देशव्यापी स्तर पर जातिगत जनगणना की मांग शुरू हो गई है। पिछले कुछ महीनों से विशेषकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के द्वारा इस मुद्दे को विशेष रूप से उठाया जाने लगा था। संसद के भीतर भी महिला आरक्षण बिल के दौरान उन्होंने इस मुद्दे पर जोरदार ढंग से तर्क पेश किये थे, जिसमें उन्होंने बताया था कि कैसे देश के संसाधनों के वितरण के लिए जिम्मेदार केंद्र सरकार के 90 सचिव स्तर के अधिकारियों में से मात्र 3 सचिव स्तर के अधिकारी ही ओबीसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जिनके पास कुल बजट का मात्र 5% हिस्से पर भी अधिकार है।
इस प्रकार मंडल कमीशन द्वारा हासिल 27% आरक्षण के बावजूद अभी तक उच्च पदों पर आरक्षण लागू नहीं किया जा सका है। अब जबकि बिहार में ओबीसी आबादी 63% पाई गई है, ऐसे में 2024 लोकसभा चुनाव में ओबीसी समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए इंडिया गठबंधन के पास एक महत्वपूर्ण हथियार मिल चुका है। इस जनगणना के बाद आरक्षण पर 50% की सीमा को बढ़ाने को लेकर भी दबाव बनना शुरू हो चुका है।
कांग्रेस कार्यकारी समिति ने अपने वक्तव्य में साफ़ तौर पर कहा है कि मोदी सरकार के द्वारा जातीय जनगणना से साफ़ इंकार ने भाजपा की सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की कलई खोलकर रख दी है, और इसका पिछड़ों और आदिवासी वर्ग के प्रति पूर्वाग्रह साफ़ हो गया है।
कांग्रेस के मीडिया प्रमुख जयराम रमेश का कहना है कि सामाजिक सशक्तीकरण एवं सामाजिक न्याय को बड़े पैमाने पर सफल बनाने के लिए राष्ट्रव्यापी जनगणना बेहद आवश्यक है। इसी प्रकार भाजपा के इस तर्क कि जातिगत जनगणना समाज में और विभाजन को ही जन्म देगा, पर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है कि, “जातिगत जनगणना कोई 85:15 की लड़ाई नहीं है, वरन इससे आपसी सहयोग के नए रास्ते खुलेंगे। जो लोग भी समता मूलक समाज में यकीन करते हैं, वे इसका समर्थन करेंगे। प्रत्येक समुदाय की संख्या का खुलासा करने से उनके भीतर एक नए आत्मविश्वास का संचार होगा और इसे सामाजिक जागरूकता बढ़ेगी।”
वामपंथी दलों में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने बिहार सरकार के इस कदम की सराहना करते हुए एक्स पर अपनी पोस्ट में लिखा है, “मोदी दिन-रात इंडिया गठबंधन की पार्टियों को ओबीसी विरोधी के रूप में निरुपित करते रहे हैं और खुद को उनका चैम्पियन बताने से नहीं अघाते। इसके बावजूद उन्होंने जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग को ठुकरा दिया। जातीय हकीकत का सामना करने से डरने वाले मोदी जी ने 2021 जनगणना में भी देरी कर दी है।”
उधर सीपीआई महासचिव डी. राजा के अनुसार, “इन आंकड़ों की मदद से सरकार वंचितों की ठोस समझ के साथ नीतियों को सटीक ढंग से तैयार कर सकती है। अन्य राज्यों में भी वैज्ञानिक एवं तथ्यात्मक नीतियों के निर्माण को संभव बनाने के लिए जातिगत जनगणना की कवायद की जरूरत है।”
भाजपा गठबंधन में खलबली और दुश्चिंता के बादल
आरएलजेडी के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री, उपेन्द्र कुशवाहा के अनुसार इस जातीय जनगणना को लेकर लोगों के बीच में संदेह है कि किसी खास जातीय समुदाय के लोगों की संख्या को बढ़ाकर दिखाया गया है, जिसमें सुधारकर फिर इसे जारी करना चाहिए। खुद अपने बारे में बताते हुए उपेन्द्र ने पत्रकारों को बताया कि मुझसे तो कोई पूछने नहीं आया कि आप किस जाति से हो, इसी प्रकार बहुत से लोग हैं बिहार में, जिनसे कोई सवाल-जवाब किये बिना ही जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी कर दिए गये हैं।
जबकि लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) के नेता चिराग पासवान ने बयान जारी कर जातिगत जनगणना को एक राजनीतिक साजिश करार दिया है। उनके अनुसार एक जाति विशेष को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से उनसे संबंधित आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है, जबकि कई अन्य पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। वे इसे अन्याय करार देकर, दोबारा से सर्वेक्षण कराए जाने की मांग कर रहे हैं।
बिहार भाजपा भी अपने बयानों में एकमत नहीं है। बिहार में कई दशकों से प्रतिपक्ष के नेता और लंबे समय तक नीतीश मंत्रिमंडल में प्रमुख मंत्री सुशील मोदी के अनुसार जातिगत जनगणना का फैसला तब लिया गया था, जब बिहार सरकार में भाजपा की हिस्सेदारी थी। भाजपा अभी आंकड़ों का विश्लेषण कर रही है। लेकिन सांसद गिरिराज सिंह इस जनगणना की रिपोर्ट को ही भ्रामक और विभाजनकारी बता रहे हैं।
लेकिन कल ही पीएम मोदी ने अपने भाषण में बिहार जातिगत जनगणना को लेकर जो कहा, वह स्पष्ट बताता है कि कहीं न कहीं उन्हें एक तगड़ा झटका जरुर लगा है। अपने भाषण में नरेंद्र मोदी ने कहा, “कांग्रेस के पास भी 6 दशक तक सत्ता थी, लेकिन उन्होंने गरीबों के लिए कुछ नहीं किया। वे तब भी गरीबों की भावनाओं से खेलते थे, आज भी वही खेल खेल रहे हैं। वे तब भी जात-पात के नाम पर समाज को बांट रहे थे, आज भी वही पाप कर रहे हैं।”
पीएम मोदी की उलटबांसी
लेकिन आज छत्तीसगढ़ में बस्तर के जगदलपुर में पीएम मोदी ने अपने चुनावी भाषण में एक बार फिर जातिगत जनगणना पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “कल से कांग्रेस ने एक अलग राग अलापना शुरू कर दिया है। जितनी आबादी, उतना हक। मैं पूछता हूँ देश में सबसे बड़ी आबादी गरीब की आबादी है, और मेरे लिए गरीब ही सबसे बड़ी आबादी है, और उसका कल्याण ही मेरा मकसद है। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह कहा करते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यक, और उसमें भी मुसलमानों का है। आज कांग्रेस कह रही है कि जिसकी जितनी आबादी है, उसे उतना हक मिलेगा। क्या कांग्रेस अब अल्पसंख्यक के हक को कम करना चाहती है?”
इसके साथ ही उन्होंने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए आगे कहा, “मैं पिछले काफी समय से कह रहा हूं कि कांग्रेस को अब उसके बड़े-बड़े नेता नहीं चला रहे हैं, वे मुंह पर ताला लगाकर बैठे हुए हैं। अब तो कांग्रेस को आउटसोर्स कर दिया गया है। कांग्रेस को अब पर्दे के पीछे बैठे देश विरोधी तत्वों द्वारा मिलने वाले इशारों पर चलाया जा रहा है। कांग्रेस किसी भी कीमत पर देश के हिंदुओं को बांटकर तबाह कर देना चाहती है। कांग्रेस देश के गरीबों को बांटना चाहती है।”
यहां पर मोदी ने तथ्यात्मक रूप से गलत जानकारी साझा की है। एक बार फिर से उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री के दिसंबर 2006 वाले पूरे वक्तव्य में से सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय को अधिकार संपन्न करने की बात को उठाकर सरासर झूठ बोलने का काम किया है। जबकि इसके उलट मनमोहन सिंह ने देश के विभिन्न संसाधनों पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, महिलाओं और बच्चों का जिक्र किया था। प्रधानमंत्री मोदी आज फिर से एक बार साइबर सेल द्वारा जारी मनमोहन सिंह के एडिटेड भाषण का जिक्र कर झूठ बयां कर रहे थे। दूसरी तरफ जातिगत जनगणना पर भी पहला हक किसका है, और अल्पसंख्यक की हिस्सेदारी खत्म होने वाली है, का डर दिखाकर पता नहीं बस्तर के आदिवासियों के बीच क्या साझा करने की कोशिश में थे, जिन्हें उनके ही कॉर्पोरेट मित्रों का ही डर दिन-रात सबसे अधिक खाए जा रहा है।
जातिगत जनगणना को लेकर राष्ट्रीय बहस शुरू हो चुकी है
इस एक कदम से नीतीश कुमार एक बार फिर से केंद्रीय भूमिका में आ चुके हैं। 2019 चुनाव में पीएम मोदी ने स्वंय को अत्यंत पिछड़ा बताकर सामाजिक न्याय की अलंबरदार क्षेत्रीय पार्टियों के वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी कर खुद को अजेय स्थिति में ला दिया था। यहां पर ध्यान देना होगा कि 2009 और 2019 में कांग्रेस का मत प्रतिशत एक समान था। 2014 के आम चुनाव में उसे 1 करोड़ वोटों का नुकसान हुआ था। लेकिन 2019 में समान वोट पाने के बावजूद कांग्रेस को 2004 की तुलना में करीब 150 लोकसभा सीटों का नुकसान झेलना पड़ा था।
क्षेत्रीय दल यदि ओबीसी एवं अति पिछड़ा समुदाय के अपने पारंपरिक वोट को एक बार फिर से हथियाने में सफल रहते हैं तो इसका सीधा नुकसान भाजपा और नरेंद्र मोदी की अजेय छवि को जायेगा। जातिगत सर्वेक्षण के जारी होने के बाद असल सवाल अब आनुपातिक आर्थिक बराबरी को जाता है।
यदि यह बात आम मतदाता को समझाने में विपक्ष कामयाब रहता है तो निश्चित रूप से व्यापक आबादी गौ भक्त, भगवा गमछा, कलावा और कांवड़ यात्रा या धार्मिक ध्रुवीकरण की रौ में कुर्बान होने के बजाय खुद के सुखमय भविष्य को साकार करने की दिशा में सोचने की ओर उन्मुख होगा। इसे भाजपा की चुनावी हार से अधिक हिंदुत्ववाद की पताका फहराने वालों की वैचारिक हार के रूप में देखा जा सकता है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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