संसार में पहले भी और अब भी अनेक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, पंथिक, मजहबी, सुधारवादी, वैज्ञानिक, भक्तिवादी, योगाभ्यास से संबंधित विचारधाराएं, सिद्धांत, वाद, पंथ, मत, संप्रदाय, मजहब, पूजा-पाठ, योग विधियां ऐसी हैं कि जिनके प्रचार प्रसार में उनकी अच्छाई या बुराई की अपेक्षा उनकी धींगामुश्ती, आपराधिक प्रवृत्ति, राजसत्ता, धनसत्ता, मजहब सत्ता आदि का सहयोग अधिक रहा है। कहते हैं ना कि गरीब की जोरु सबकी भाभी। यह बिल्कुल सही कहावत है। बल्कि आजकल इस कहावत को बदलकर गरीब की जोरु, लड़की, बहन, बुआ आदि सभी की भाभी ही नहीं अपितु प्रेमिका, रखैल आदि भी है।
गरीब के पास है ही क्या कि जिससे लोग उसका सम्मान करें? गरीब के पास न धन है, न दौलत है, न नौकरी है, न पद है, न पहुंच है, न सिफारिश है, न लट्ठ की ताकत है, न भाईचारा है तथा न ही जमीन जायदाद है। गरीब के पास मेहनत हो सकती है, लेकिन मेहनत को पूछता कौन है? गरीब प्रतिभाशाली और उच्च शिक्षित भी हो सकता है, लेकिन बिना किसी जुगाड के प्रतिभा और शिक्षा को महत्व कौन देता है?
केवल इसीलिये हर समय पर लोग कुछ भी करके धन -दौलत एकत्र करने का जुगाड करते हैं। यदि धन दौलत का जुगाड हो जाये तो फिर प्रतिभा, गुण, अयोग्यता, अपराध, कुटिलता, चरित्रहीनता, अनपढता, बेवकूफी, मूर्खता और मूढ़ता आदि सभी दोष छिप जाते हैं।धन दौलत है तो सब प्रकार का सम्मान,शक्ति, रुतबा आदि अपने आप ही चले आते हैं।
लगता है कि संसार की यही प्रणाली सर्वत्र लोकप्रिय है। जिनके पास धन- दौलत है, उनके पास अन्य सुविधाएं तो अपने आप दूम दबाकर आ खड़ी होती हैं। नेता भी उनके, धर्मगुरु भी उनके, पूंजीपति भी उनके, शिक्षा संस्थान भी उनके,महल हवेली भी उनके, शासन प्रशासन भी उनका, बढ़िया भोजन भी उनका, भोग विलास भी उनका, इज्जत सम्मान भी उनका और प्रतिष्ठा भी उनकी ही होती है। बाकी तो संसार में ऐसे ही आये और पैर पटकते हुये रोते चिल्लाते वापस चले गये।
संदेश, आदेश और उपदेश-इन तीनों में से साधनहीन गरीब के लिये केवल आदेश पालन ही जीवनयापन का आधार है। गरीब न किसी को कोई संदेश दे सकता है तथा न हीं कोई उपदेश कर सकता है। गरीब के लिये इनका कोई महत्व नहीं होता है। गरीब तो मात्र धन, दौलत, जुगाड़ू, अपराधी, उच्च पदस्थ, राजसत्ता, धनसत्ता और मजहब सत्ता की जी हुजूरी करने को विवश रहता है। पल प्रतिपल गुलामी और दासता का नारकीय जीवन गरीब का भाग्य बना रहता है।
हर कहीं और हर किसी से अपमानित होकर जीना आजीवन गरीब की दिनचर्या बनी रहती है। मुंडी झुकाकर हां जी, हां जी करते रहना गरीब की पूरे जीवन की कमाई होती है।हर परिस्थिति में मर-मरकर जीते रहना गरीब की गरीबी होती है।यह मालूम होते हुये भी कि सिस्टम की क्रूरता की ओर से उसकी मेहनत, दयालुता और निर्दोषता का कोई फल नहीं मिलने वाला, लेकिन फिर भी अपमान,प्रताड़ना, हाड़तोड़ मेहनत का जीवन जीते जाना।
गरीब की प्रतिभा कूड़ेदान में डालकर किसी गटर या कूड़े के ढेर में दफन हो जाना होता है। गरीब की मेहनत का कोई भी फल या परिणाम नहीं होता है। हर सिस्टम गरीब का रक्त चूसकर आह्लाद महसूस करता है। गरीब यदि अपने ऊपर हो रहे ज़ुल्म का विरोध करे तो उसे देशद्रोही घोषित करके जेल में ठूंस दिया जाता है या खुंखार अपराधी कहकर उसका इनकाउंटर कर दिया जाता है।
गरीब यदि प्रतिभाशाली हो तो उसका जीवन हजारों गुना नारकीय बन जाता है। गरीब यदि मूर्ख, उज्जड और संवेदनहीन हो तो उसका गुजारा होना सहज हो जाता है। गरीब का प्रतिभाशाली होना बहुत पीड़ादायक होता है। परमात्मा किसी को ऐसा जीवन न दे। व्यक्ति यदि गरीब हो तो उसे प्रतिभाशाली नहीं होना चाहिये। इससे अच्छा तो यह है कि गरीब पशु समान जीवन जीये। दक्षिणपंथी और वामपंथी आदि दोनों ही सिस्टम में गरीब को न तो पढ़ना लिखना चाहिये तथा न ही उसे प्रतिभाशाली होना चाहिये।एक तरफ तो गरीब को शिक्षित करने पर जोर लगाया जा रहा है और दूसरी तरफ उसको बेरोजगारी के नर्क में ढकेला जा रहा है।
कोई आम गरीब भारतीय 500 रुपये की रिश्वत लेता पकड़ा जाये तो उसे जेल में ठूंस दिया जाता है, लेकिन यदि किसी न्यायाधीश या नेता या पूंजीपति या उच्च अधिकारी या धर्मगुरु के पास सैकड़ों करोड़ अवैध धन मिल जाये, तो बस उसका तबादला कर दिया जाता है या जांच बैठा दी जाती है या सत्ताधारी दल में उसको शामिल कर लिया जाता है। यह है हमारे वरिष्ठ महापुरुषों द्वारा निर्मित दुनिया के सबसे बड़े भारतीय संविधान और कानून का न्याय।
राह चलते या किसी बस या रेलगाड़ी में गलती से किसी लडकी से हाथ पैर लग जाने पर छेड़छाड़ के अपराध में न्यायालय द्वारा लड़कों को जेल में भेज दिया जाता है, लेकिन अनेक धर्माचार्य, सत्ताधारी दल के सांसद, विधायक और मंत्रियों को छेड़छाड़, बलात्कार के आरोप लगने पर भी उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती है। ऐसी संवैधानिक और कानूनी व्यवस्था को निष्पक्ष कहा जायेगा या निष्प्राण और भेदभावपूर्ण? हमारे यहां पर अधिकांशतः न्याय भी गरीबी, अमीरी, हैसियत, पद, प्रतिष्ठा, रंग-रुप, जाति, राजनीति और मजहब देखकर किया जाता है।इसे लोकतंत्र कहें या लट्ठ तंत्र कहें?
हमारे शिक्षा संस्थानों में सूर्य वंश, चंद्रवंश, षड्दर्शनशास्त्र को देनेवाले जैमिनी, कणाद, गौतम, कपिल, पतंजलि,बादरायण आदि तथा महर्षि मनु, श्रीराम, श्रीकृष्ण, विदुर, युधिष्ठिर, वेदव्यास, शंकराचार्य और उन द्वारा स्थापित पीठों के इतिहास,महावीर, सिद्धार्थ,कुमारिल, मंडन मिश्र, आजीवक,चार्वाक आदि तथा निगमागम परंपरा के विशाल समृद्ध, कथासरित्सागर शैली की नैतिक परंपरा और महाभारत से पहले तथा बाद के युधिष्ठिर, परीक्षित, चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, पुष्यमित्र शुंग, समुद्रगुप्त, भोजराज, यवनों -मंगोलों- अफगानों- तातारों -तुर्कों- मुगलों- अंग्रेजों -वामपंथियों – सहजयानी बौद्धों – कपटी मिशनरियों- नवबौद्धों से लड़ने वीर योद्धाओं और संत परंपरा के सैकड़ों संतों, महर्षि दयानंद, आचार्य रजनीश, राजीव भाई दीक्षित जैसे महापुरुषों के साहित्य, जीवन और जीवन- दर्शनशास्त्र पर शोध -कार्य न के समान हो रहा है। यदि नाक भौं सिकोड़कर कुछ काम हो भी रहा है तो वह पूर्वाग्रहवश पूर्वाग्रहवश और मनघड़ंत ढंग से हो रहा है।
धर्म, नीति, राजनीति, शासन प्रशासन, समाज, विज्ञान, खेती-बाड़ी, शिक्षा, अध्यात्म, योग, साधना, युद्ध विद्या, पुरातन शास्त्रों, राष्ट्र रक्षा, चिकित्सा और आचार विचार आदि सभी क्षेत्रों पिछली दो सदियों के दौरान अनेक मनगढंत एवं कपोल-कल्पित विचार जनमानस के मन मस्तिष्क में अंकित कर दिये गये हैं। इस अज्ञानावरण का छिन्न-भिन्न किया जाना आवश्यक है। महर्षि मनु, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि का नाम आते ही अधिकांश शिक्षित जन नाक भौं सिकोड़कर अनर्गल और बे-सिर-पैर की वितंडा करने में लग जाता है।
भारतीय महापुरुषों के संबंध में इस तरह से बनाये गये अज्ञानांधकार के बादलों को हटाकर जनमानस के सम्मुख सत्य को उजागर किया जाना आवश्यक है। लेकिन हरेक क्षेत्र में मुंह देखकर तिलक किया जा रहा है। वीरता को भीरुता, धर्म को अधर्म, नैतिक को अनैतिक, सुशासन को कुप्रशासन तथा शिक्षा को अशिक्षा कहकर प्रचारित किया जा रहा है। जीवन के हर क्षेत्र में अब्राहमिक शैली हावी है। भारतीय जमीन, जीवन और परिवेश को हर प्रकार से हेय, हीन और तिरस्कृत किया जा रहा है। सनातन राष्ट्रीय सांस्कृतिक आध्यात्मिक प्रतीकों का उपहास करना कुछ सिरफिरे लोगों का राजनीति करने का व्यवसाय बन चुका है। ऐसे लोगों को कानून और संविधान का सहारा मिला हुआ है।
(आचार्य शीलक राम, दर्शनशास्त्र -विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय)
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