मोदी जी, याद रखिए मनमोहन सिंह के लिए आप ने जो रास्ता तैयार किया है, वह आप तक जाता है!

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नेतृत्व जब बौना हो तो फैसले इसी तरह के होते हैं। फिर अन्याय, उत्पीड़न और हर किस्म के अत्याचार के लिए रास्ता खुला रहता है। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के साथ सरकार का रवैया भी कुछ ऐसा ही है।

एक दस साल तक रहा प्रधानमंत्री जिसने नीतियों के स्तर पर पूरे देश के 35 सालों के हिस्से को प्रभावित किया है। और अभी भी सत्ता पक्ष को उसकी कोई काट नहीं दिख रही है। उसको इस बिना पर नजरंदाज कर दिया जाए कि वह किसी दूसरी पार्टी से प्रधानमंत्री हुआ था इससे बड़ा अन्याय कोई दूसरा नहीं हो सकता है।

इस बिना पर तो फिर अटल बिहारी वाजपेयी को भी राजघाट पर अंतिम संस्कार के लिए जमीन नहीं मिलनी चाहिए थी। उनका कार्यकाल ही कुल 6 साल का रहा है। जबकि मनमोहन का उनसे करीब दोगुना था। 

इस तरह से किसी एक काल के प्रधानमंत्री या फिर कुछ दिनों के प्रधानमंत्री की तुलना में मनमोहन का हक तो किसी से भी ज्यादा बनता है।

लेकिन लगता है कि रात भर चली कांग्रेस और सरकार के बीच रस्साकशी और स्मारक की मांग के प्रति जनता में दिखे समर्थन तथा सरकार के खिलाफ बढ़ते रोष को देखते हुए सरकार ने स्मारक बनाने की बात को मान लिया है। अब देखना यह होगा कि स्मारक के लिए सरकार कहां जमीन देती है।

पता चला कि उसे भी पंजाब के किसी हिस्से में देकर निपटा दिया जाए तो वह भी सरकार की उसी चालाकी और अन्यायपूर्ण फैसले का हिस्सा बन कर रह जाएगी। जिसकी वह पहले से ही वकालत कर रही है।

इसको इस रूप में भी देखा जा सकता है कि अभी उसने लोगों के गुस्से को कम करने के लिए एक वादा कर दिया है और बाद में उसको इस तरह से निभा दिया जाएगा कि जिसका होना या फिर न होना दोनों बराबर रहेगा। इस तरह से सरकार चीजों को अपने पक्ष में करने के लिए सांप भी मर जाए लाठी भी न टूटे के रास्ते पर चल रही है।

निगमबोध घाट पर अंतिम संस्कार करने का फैसला लेकर पीएम मोदी ने शायद अपने लिए भी रास्ता खोल दिया है। बीजेपी की सरकार रही तो फिर राजघाट की जमीन आखिरी वक्त में लेटने के लिए उन्हें तो मिल ही जाएगी लेकिन अगर कहीं विपक्ष की सरकार रही और उसमें भी कांग्रेस प्रभावी भूमिका में रही और वह भी उसी तरह से उनके साथ व्यवहार की तब मोदी जी का क्या होगा?

वैसे भी अभी तक देश और समाज को जिस नफरत और घृणा के रास्ते पर मोदी जी ले गए हैं उसमें उनको याद करने की बात तो दूर उनसे लोग नफरत न करने लगें? 

लगता है कि कांग्रेस को इस बात की आशंका पहले ही हो गयी थी कि मनमोहन सिंह को राजघाट के पास यमुना के किनारे अंतिम संस्कार के लिए जगह नहीं मिल रही है।

लिहाजा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कल सुबह ही पीएम मोदी से टेलीफोन पर बात कर ली थी। और उनसे राजकीय सम्मान के साथ राजघाट पर आवंटित किसी स्थान पर उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करने की अर्जी डाल दी थी।

और जब उन्हें लगा कि उस दिशा में सरकार बढ़ती हुई नहीं दिख रही है तब उन्होंने शाम को पीएम मोदी और अमित शाह को बाकायदा पत्र लिखकर इसकी मांग कर डाली। बावजूद इसके सरकार ने जो मन बनाया था उसी दिशा में वह आगे बढ़ी।

और शाम को गृहमंत्रालय की ओर से पूरे राजकीय सम्मान के साथ निगमबोध घाट पर उनके अंतिम संस्कार की प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी गयी। 

उसके बाद सोशल मीडिया से लेकर मीडिया के तमाम प्लेटफार्मों पर उसके खिलाफ अभियान शुरू हो गया और लोगों ने सरकार के इस फैसले का विरोध करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के कई नेताओं ने खुलकर इसके खिलाफ स्टैंड लिया।

अपनी किरकिरी होती देख देर रात सरकार ने उनका स्मारक बनाने के लिए कोई जगह देने की बात कबूल कर ली।

यह अपनी तरह से थूक कर चाटने जैसी बात है। इससे सरकार की इस पूरे प्रकरण में छिपी घृणित मंशा का पूरे देश को पता चल गया। अल्पसंख्यकों के प्रति सरकार का क्या रवैया है उसका भी एक नजारा एक बार फिर देश को देखने को मिला है।

सिख समुदाय से आने वाला एक शख्स जिसे किसी भी स्तर पर दूसरे से कमतर नहीं आंका जाना चाहिए था उसके साथ सरकार ने दोयम दर्जे का व्यवहार करने की कोशिश की। 

सरकार अगर पंजाब या फिर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में खालिस्तान के प्रति बढ़ते समर्थन को भी ध्यान में रखती और देश में अपने इस फैसले से होने वाले किसी नुकसान की आशंका को समझती तो शायद वह ऐसा नहीं करती।

लेकिन सच्चाई यह है कि यह सरकार सब कुछ समझते हुए भी ऐसा करती है। इसको शांति नहीं पसंद है। यह देश में हर तरह की नफरत और घृणा को फैलाने में विश्वास करती है।

इस घटना के जरिये वह अपने कोर हिंदू वोटरों को यह संदेश देना चाह रही होगी कि इतने बड़े मसले पर भी उसने संघ के हिंदू राष्ट्र बनाने के बुनियादी संकल्पों को नहीं छोड़ा और उसी के मुताबिक काम किया। और देश में अल्पसंख्यकों के दोयम दर्जे को कैसे सुनिश्चित किया जाए इसकी गारंटी करने की कोशिश की।

और वह उसके सर्वोच्च फैसलों में परिलक्षित हो रहा है। लेकिन मोदी जी इससे देश नहीं बनता। उसमें टूटन आती है। वह खंड-खंड में अंदर से बिखरने लगता है। 

देश कोई माटी का लोदा नहीं है और न ही दीवार पर टंगा नक्शा। जिसको जैसे चाहो डील कर दो। देश अगर कोई है तो उसके केंद्र में उसके नागरिक हैं और उनका एक दूसरे से भावनाओं के स्तर पर जुड़ाव है।

और विविधता भरे इस देश में हर क्षेत्र, समुदाय, संप्रदाय, जाति, नस्ल, भाषा, बोली, संस्कृति से जुड़े लोगों को कैसे एक दूसरे की इन भावनाओं के स्तर पर बांधे रखा जाए वह किसी घृणा और पाखंड पर आधारित मनुस्मृति के जरिये नहीं किया जा सकता है। जो न केवल भेदभाव पर आधारित है बल्कि किसी एक खास समुदाय के लिए बना हुआ है। देश के संचालन में अगर कहीं भी उसको लागू करने की कोशिश की गयी तो देश खंड-खंड हो जाएगा। खुद हिंदू समुदाय का बहुमत जिसे मानने के लिए तैयार नहीं है उसे पूरे देश पर कैसे थोपा जा सकता है।

दरअसल मनमोहन सिंह को मिले सोशल मीडिया पर समर्थन और प्यार से यह सरकार घबरा गयी। मोदी सरकार और उसके भक्तों के लिए भले ही आजादी 2014 से शुरू होती है।

लेकिन यह किसी को नहीं भूलना चाहिए कि पीएम मोदी मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं। और बहुत सारे मनमोहन सरकार के लिए गए फैसलों और किए गए कामों का श्रेय मोदी को मिला है। और वह अब तक उसी की मलाई काट रहे थे।

लेकिन अब जाकर वह नीतियां ही फंस गयी हैं। और उससे आगे जाने का रास्ता न तो मोदी को दिख रहा है और न ही उनके सिपहसालारों को। ऐसे में बड़े स्तर पर किसानों से लेकर नौजवानों और मध्यमवर्गीय हिस्से में इसके खिलाफ विक्षोभ है।

यह अलग बात है कि सरकार उसको मंदिर-मस्जिद, सांप्रदायिक वैमनस्य और घृणा-नफरत के अपने औजारों से डायलूट कर देना चाह रही है। लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं। 

दरअसल मनमोहन सिंह की जब तारीफ हो रही है तो उसमें मोदी की हार की परछायी दिख रही है। इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मनमोहन ने 10 सालों के अपने शासन में 135 से ज्यादा प्रेस कांफ्रेंस की। और पत्रकारों के कठिन से कठिन सवालों के जवाब दिए।

लेकिन इस खाने में मोदी जी कहीं फिट नहीं बैठते। क्योंकि उन्होंने कोई प्रेस कांफ्रेंस की ही नहीं। ऐसे में जब किसी पत्रकार के हार्ड हिटिंग सवाल का मनमोहन सिंह जवाब देते दिख रहे हैं तो लोग मोदी को भी उसी रूप में देखने की मन में कोशिश करते हैं। लेकिन मोदी ने तो कभी ऐसी कोई प्रेस कांफ्रेंस की ही नहीं।

बल्कि उनके नाम करन थापर के कड़े सवालों का जवाब देने की जगह इंटरव्यू से उठकर भागने का इतिहास है। मोदी और उनके भक्त इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।

उसी का नतीजा था कि कल शाम से ही आईटी सेल को पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के खिलाफ लगा दिया गया। और फिर तो उसने अपने सारे घोड़े छोड़ दिए। और फिर शुरू हो गया मनमोहन के खिलाफ विषवमन का पूरा अबाध सिलसिला।  

इन्हीं सारी चीजों को देखते हुए मोदी सरकार ने मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार कार्यक्रम को कम से कम तवज्जो देने का फैसला लिया। लेकिन आप जैसा सोचते हैं चीजें उसी तरह से आगे नहीं बढ़ती हैं। आपको न केवल उस पर विचार करना पड़ रहा है बल्कि उसका बड़ा खामियाजा भी अब भुगतने के लिए आपको तैयार रहना होगा।

और जैसा कि मैंने ऊपर कहा है आप अपने लिए भी वह रास्ता तैयार करके जा रहे हैं जो आपने मनमोहन सिंह के लिए बनाया है। और खुदा न खास्ता उस समय की सरकार ने अगर ऐसा फैसला ले लिया कि मोदी जी के लिए स्मारक उस रेलवे स्टेशन पर बनेगा जहां उन्होंने चाय बनायी और बेची थी।

फिर तो सरकारी एजेंसियां ढूंढती रह जाएंगी और वह जगह कहीं नहीं मिलेगी। क्योंकि वह जगह कहीं है भी नहीं। और फिर अंत में उस स्मारक के लिए जगह मिलने से भी आप वंचित हो जाएंगे।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।) 

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