उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के बनारस मॉडल को गंगा में आई बाढ़ निगल गई। भाजपा सरकार ने विकास को नई रफ्तार देने के लिए गंगा पार रेती पर 11.95 करोड़ की लागत से नहर बनवाई थी, जो बाढ़ में मटियामेट हो गई। गंगा के अविरल प्रवाह को दो हिस्से में बांटकर बनाई गई इस नहर को बनारस के लोगों ने “मोदी नहर” नाम दिया था। गंगा ने मोदी नहर को बालू से पाट दिया है। नदी के प्रवाह के खिलाफ बनाई गई नहर के चलते गंगा के पार कई नए स्थानों पर बालू के टीले दिखने लगे हैं। गायघाट से लेकर अस्सी तक गंगा में आधा दर्जन से ज्यादा टीले खतरे का अलार्म बजा रहे हैं और संकेत दे रहे हैं कि अनियोजित विकास बनारस पर भारी पड़ सकती है। पहली मर्तबा गंगा ने घाटों को पहले से ज्यादा मिट्टी से पाटा है, जिसे पाइप लगाकर अब बहाया जा रहा है।

गंगा की बीच धारा में अठखेलियां करने वाले आनंद माझी सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, “करोड़ों रुपये गंवाकर नौकरशाही को क्या मिला? नदी को नाथने की कोशिश की गई तो गंगा ने रेत पर बनाई गई मोदी नहर पाट दी। जहां बालू दिखना चाहिए, वहां नहीं दिख रहा। अलबत्ता गंगा के बीच में अभी से टीले उभरने शुरू हो गए हैं जो नदी के सेहत के लिए बेहद खतरनाक हैं।”
बनारस में आई बाढ़ के दौरान आनंद माझी अपनी नौका लेकर बालू की नहर की तरफ गए थे। जब नहर की चौड़ाई 40 फुट थी, उस समय गहराई पांच फीट ही रह गई थी। बनारस में आमतौर पर गंगा दक्षिण से उत्तर बहती रही, लेकिन नहर बन जाने से उत्तर से दक्षिण की ओर खतरनाक भंवर के साथ बहने लगी है। बालू के पहाड़ गंगा नहर में विलीन हो गए। नहर भी बह गई और पैसा भी।

बनारस में गंगा के पानी का फैलाव करीब 58 मीटर रहता है। बाढ़ के दरम्यान वह 72.4 मीटर हो गया था। मौजूदा समय में पानी का लेबल 65 मीटर है। मोदी नहर की खुदाई के बाद निकाले गए बालू के टीले फिलहाल नहीं दिख रहे हैं। नदी विशेषज्ञों का मानना है कि नगर से निकाली गई बालू बह गई। नदी का लेबल 62 मीटर पर आएगा तब स्थिति पूरी तरह स्पष्ट होगी। पहले सिंधिया घाट के सामने दिखता बालू के ढूहे दिखते थे, लेकिन हरिश्चंद्र घाट पर दिख रहे हैं।”
बनारस के राजघाट पर सैकड़ों लोगों को नदी में डूबने से बचाने वाले गोताखोर दुर्गा माझी कहते हैं, “गंगा में नाव चलाने से नाविक डर रहे हैं। गंगा में अभी तक खतरनाक भंवरें उठ रही हैं। इन भंवरों ने करीब 22 फीट के दायरे में पानी का ऐसा वेग पैदा कर दिया है कि उसके करेंट में अगर कोई फंस गया तो बच पाना मुश्किल होगा। उधर नाव लेकर जाने में हमारे भी पसीने छूट रहे हैं। हमें इंतजार है कि नदी का वेग थोड़ा शांत हो।”

दुर्गा यह भी कहते हैं, “ इंसानों की तरह नदियों का भी घर-आंगन होता है। उन्हें भी अपने मैदान में खेलना-कूदना अच्छा लगता है। हमने दूसरों के घर-आंगन पर नजरें टिकाने का हुनर सीख लिया है। गंगा के घर-आंगन पर जब से इंसानों की बुरी नजर लगी है तब से कई छोटी और सहायक नदियों का दम घुटने लगा है। गंगा में रोज हो रहे खेल तमाशे से इसके किनारे बसे शहरों में पानी पीने लायक ही नहीं रह गया है।”
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने साल 1986 में गंगा को साफ करने के लिए महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी। तब से अब तक कई प्रयास हो चुके हैं, लेकिन अब तक गंगा अपने असली स्वरूप में नहीं आ सकी है।
वाराणसी के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने कहा कि कोई नुकसान नहीं हुआ है। उन्होंने बताया कि तकरीबन 11 करोड़ का प्रोजेक्ट था जो यूपीपीसीएल द्वारा कराया जा रहा था। प्रोजेक्ट का पूरा पेमेंट नहीं हुआ है क्योंकि प्रोजेक्ट विभाग को हस्तांतरित नहीं हुआ था।

गंगा पार रेती में 1195 लाख रुपये की लागत से 5.3 किमी लंबी और 45 मीटर चौड़ी नहर पर काम इस साल मार्च में शुरू हुआ। बाढ़ के आने के पहले सारा काम लगभग पूरा कर लिया गया था। प्रशासन ने दावा किया था कि नहर बन जाने से गंगा के पक्के घाटों पर पानी का दबाव कम होगा और घाटों का क्षरण भी रुकेगा।
आईआईटी बीएचयू के प्रो. विशंभरनाथ मिश्रा कहते हैं, “गंगा पार की रेत नदी का ही हिस्सा है जो बाढ़ में हमेशा डूब जाता है। गंगा का यह गुण है कि वह एक तरफ मिट्टी और दूसरी तरफ रेत छोड़ती है। बिना किसी अध्ययन के गंगा उस पार नहर बनाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। दावा किया गया था कि नहर बनने से पक्के घाटों पर दबाव कम होगा और कटान भी रुकेगा। नहर बन तो गई, लेकिन बाढ़ में वह मटियामेट हो गई। सरकार के 1195 लाख पानी में डूब गए।”
बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर व नदी विज्ञानी प्रो. यूके चौधरी साफ-साफ कहते हैं, “गंगा की रेत पर नहर नहीं, मजाक है। ऐसी नहर दुनिया में आज तक कहीं नहीं बनी। इस नहर के चलते बनारसियों की दुश्वारियां बढ़ जाएंगी। तकनीकी रूप से प्रोजेक्ट सही नहीं है। बाढ़ में पूरी नहर गायब हो गई है। प्राकृतिक नदी के बहाव को कभी भी छेड़ना नहीं चाहिए। बिना स्टडी किए गंगा में नहर बना दी गई और उसका खामियाजा आने वाले वर्षों में भुगतना होगा।”

नदी विशेषज्ञों द्वारा उठाए जा रहे सवाल पर डीएम कौशल राज शर्मा इत्तेफाक नहीं रखते। वह दावा करते हैं, “रेत पर नहर बनने से कोई नुकसान नहीं हुआ है। गंगा नदी को ड्रेजिंग करने का प्रोजेक्ट करीब 11.95 करोड़ रुपये का था, जो यूपीपीसीएल द्वारा कराया जा रहा था। अभी पूरा पेमेंट नहीं हुआ है। कार्यदायी संस्था ने यह परियोजना विभाग को हस्तांतरित नहीं की है।”
शर्मा कहते हैं, “ड्रेजिंग के जरिये नहर से निकाली गई बालू को नीलाम करके सरकार को तीन करोड़ रुपये पहले ही मिल चुके हैं। यह प्रोजेक्ट अभी कांट्रेक्टर की लायबिलिटी में है। जैसे ही गंगा का पानी उतरेगा, वैसे ही नहर से बालू निकालकर दोबारा आकार में लाया जाएगा। प्रोजेक्ट पूरा होने पर ही पूरा भुगतान किया जाएगा। अब आगे का काम बाढ़ उतरने के बाद होगा। संभव है कि प्रोजेक्ट की डिजाइन में कुछ संशोधन कराया जाए, ताकि नहर में कम से कम बालू या मिट्टी भरे।”
गंगा की मझधार में बनारसियों को योग सिखाने वाले छेदी स्वामी कहते हैं, “मोदी नहर का वजूद भले ही मिट गया, पर बालू का धंधा करने वाले और कई अफसर मालामाल हो गए। आज तक यह किसी के समझ में ही नहीं आ सका है कि आखिर यह नहर क्यों बनाई गई। इस नहर में कई ग्रामीण और गंगा के तीरे रहने वालों के कई मवेशी डूबकर मर गए। बालू का धंधा करने वाले गिरोह ने जो खेल खेला है, उससे ग्रामीणों की मुश्किलें बढ़ गई हैं।”

छेदी स्वामी सवाल खड़ा करते हैं कि जिसे नदी में तैरना तक नहीं आता वो भला गंगा पुत्र कैसे हो सकता है। वह कहते हैं, “बनारस आते ही मोदी ने खुद को गंगा पुत्र घोषित कर दिया। बाहर से आकर कोई गंगा का बेटा नहीं बन सकता। किसी का बेटा बनने के लिए उसे साबित करना पड़ता है। वो हमसे मुकाबला कर लें, पता चल जाएगा कि गंगा पुत्र कौन है? जिस इंसान को गंगा के मान-सम्मान का भान नहीं, भला वो कैसे बेटा हो सकता है।”
जिस स्थान पर बालू की नहर बनाई गई है उससे सटा है मोदी का गोद लिया गांव डोमरी। इस गांव की ममता कहती हैं, “रेत किसी विपत्ति से कम नहीं है। पहले हमारे बच्चे रेत पर सैलानियों को ऊंट-घोड़ों पर बैठाकर मनोरंजन कराया करते थे। उसी से गांव वालों की आजीविका चला करती थी, लेकिन मोदी नहर से वह रोजगार भी छिन गया। गंगा ने अब नहर पाट दिया है तो शायद पहले की तरह जिंदगी आसान हो जाए।” कटेसर के किशन कहते हैं, “ मोदी नहर से हमारी रोजी-रोटी छिन गई थी। कारपोरेटरों को मुनाफा कमवाने के लिए भविष्य में सरकार हमारी जमीनें भी छीन सकती है, तब फिर हम कहां जाएंगे?” कटेसर के ग्रामीण नंदलाल बताते हैं, “पहले हम सीधे बनारस पहुंच जाया करते थे। गंगा किनारे जुगाड़ से दुकान भी लगा लिया करते थे। अब न तो खेती बची, न रोजगार।”

मोदी नहर के मटियामेट होने पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बनारस के वरिष्ठ साहित्यकार रामजी यादव कहते हैं, “जो समाज अपने सर्वाधिक कीमती प्राकृतिक खजाने-अपनी नदियों को खो देता है, वह निश्चित रूप से अभिशप्त है। बनारस की अस्सी नदी अब नाले में तब्दील हो गई है, जिसमें पानी नहीं, सिर्फ प्रदूषण बहता है। इससे भी बुरी बात यह है कि बनारस के कई मुहल्लों का मल-जल अस्सी नाले में पड़ रहा है। बहुत समय नहीं हुआ, जब अस्सी नाला एक दरिया था, एक नदी थी, जिसमें निर्मल जल बहता था। केवल एक पीढ़ी के काल में ही इसका हाल और नाम बदल गया है।”
रामजी कहते है, “हमारे इंजीनियरों-डिजाइनरों के पास नदी के प्राकृतिक बहाव के बारे में ऐसी कोई समझ नहीं है कि पर्यावरणीय और सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के बाद भी नदी में पर्याप्त पानी बच सके। गंगा जब मैदानी इलाकों में पहुंचती है तो हम सिंचाई और पेयजल के लिए पानी की एक-एक बूंद सोख लेते हैं। नदियों को पूजते हुए भी हम उनमें कूड़ा-करकट, प्लास्टिक और न जाने क्या-क्या डाल देते हैं। हम यह सब करते हैं और फिर भी विश्वास है कि नदियां पूजा के लायक हैं। इसका अर्थ यह है कि हम एक मरी हुई या मरणासन्न नदी की पूजा करते हैं, उनकी दुर्दशा को नजरंदाज करते हुए। बनारस की गंगा में अब जीवन नहीं है। इनमें सिर्फ हमारा मल बहता है। यूं कह सकते हैं कि गंगा सरीखी नदियां अब हमारे मल-मूत्र को बहाने वाली नहरें हैं।”
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, “गंगा को राजनीति के लिए वोट बैंक बनाने वाले राजनीतिक दलों की नीयत साफ नहीं है और यही कारण है कि गंगा के मुख्यधारा की एक बूंद भी साफ नहीं रह गई है। फिर भी रेत पर नहर बनाकर नदी के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। कोविड काल में गंगाजल का रंग जरूर बदला, लेकिन नदी की रंगत नहीं। बनारस में रेत पर बनाई गई नहर को गंगा ने पाट दिया है। सरकार का करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद अफसर उफ् तक नहीं कर रहे हैं।”
(वाराणसी से वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की रिपोर्ट।)
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