मुर्शिदाबाद हिंसा : कानून के राज में भीड़ के फैसले ?

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जब सत्ताएँ ही दंगों की पृष्ठभूमि रचें और अधिसंख्य लोग उसी जकड़न का शिकार हों, तब निश्चिंतता हर पल खतरे में रहती है। दंगाई चाहे किसी भी समुदाय का हो, उसके साथ बर्ताव एकसमान होना चाहिए। बंगाल में दंगाइयों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए। ममता की महत्वाकांक्षा और अवसरवादिता ने सांप्रदायिकता के खिलाफ साझा मुकाबले की जमीन को कमजोर किया है। सत्तावादी नजरिए ने उन्हें सीमित किया है, वरना ऐसी स्थितियाँ न आतीं।

सांप्रदायिक घटनाएँ उन परिस्थितियों की उपज हैं, जिनमें हिंदुओं को मुस्लिम विरोधी और मुस्लिमों को हिंदू विरोधी मान लिया गया है। यह जहर फैलता ही जा रहा है। अब तो राजनीति का हर पैंतरा बिना हिंदू-मुस्लिम किए पूरा ही नहीं होता। हर बयान समाज में जहर घोलने वाला और मजहबी कट्टरता को बढ़ाने वाला होता है।

हाल ही में सरकार की ओर से ताजा बयान कि यदि कांग्रेस मुस्लिमों की हितैषी है, तो उसका अध्यक्ष मुस्लिम क्यों नहीं? कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप भी और उसे मुस्लिम अध्यक्ष बनाने की सलाह भी। अरे, वहाँ तो पहले भी कई मुस्लिम अध्यक्ष रह चुके हैं, आप स्वयं अपनी पार्टी का अध्यक्ष किसी मुस्लिम को क्यों नहीं बनाते? वक्फ के नाम पर मुस्लिमों का भला करने की दिली इच्छा उनको पार्टी में उचित स्थान देने से क्यों परहेज करती है? इस तरह के बेमानी बयानों ने समाज में तंगदिली भर दी है।

मुर्शिदाबाद की घटनाएँ शर्मनाक हैं। इन दंगाइयों पर सख्ती क्यों नहीं बरती गई? आखिर इन्हें इतनी छूट कैसे मिल जाती है कि लोग मरें और पलायन को मजबूर हों? जिन्हें जेल में होना चाहिए, वे सड़कों पर क्यों हैं? ममता जिस तरह राजनीतिक विरोधियों पर दहाड़ती हैं, वैसे ही इन दंगाइयों से क्यों नहीं निपटतीं? यह राज्य का विफल होना है। सरकारें तमाशबीन क्यों बनती हैं? क्या ये सरकारें इतनी पंगु हैं कि अपने नागरिकों को उचित संरक्षण तक नहीं दे सकतीं? केंद्र सरकार राज्य सरकार को बर्खास्त करने की दिशा में क्यों नहीं बढ़ती?

मुर्शिदाबाद में वक्फ के मामले को लेकर हिंदुओं पर हमले को होने देना और उसे मजबूती से न रोकना, कहीं बाकी राज्यों में इसे ध्रुवीकरण के अवसर के रूप में देखना तो नहीं? कहीं यह आपदा में अवसर तलाशने की दृष्टि तो नहीं? वैसे भी, हत्याओं से कहाँ किसे फर्क पड़ता है? मणिपुर तो लगभग दो साल से जल रहा है।

मुस्लिम बहुल इलाकों और हिंदू बहुल इलाकों में बहुसंख्यकों को यह सब करने की छूट क्यों मिल जाती है? लोकतंत्र में अल्पसंख्यक समुदायों को बहुसंख्यकों की कृपा पर नहीं छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही का नाम नहीं है।

उत्तर प्रदेश में भी नंगी तलवारें लेकर ललकारने का जमावड़ा हुआ था, फिर भी नेतृत्व के स्तर पर चिंता की लकीरें नहीं दिखीं। आखिर इस अराजकता को रोका क्यों नहीं जाता? क्या हम वोट बैंक के लिए समाज को उत्पातियों के हवाले कर देंगे?

कानून के राज में भीड़ द्वारा फैसले करवाने की नीति के गंभीर परिणाम होंगे।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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