इसी 21 मई को बस्तर के नारायणपुर के माड इलाके के गुंडेकोट जंगल में हुई मुठभेड़ में सशस्त्र बलों ने माओवादियों के शीर्षस्थ नेतृत्व को मार डाला। स्वयं माओवादियों की ओर से जारी की गयी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार इस मुठभेड़ में कुल 27 लोगों की मौत हुई जिनमें सीपीआई (माओवादी) के महासचिव नम्बला केशव राव उर्फ़ बसवा राजू (74वर्ष) सहित कुछ युवतियां एवं महिलायें भी शामिल हैं।
इस प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया गया है कि बसवा राजू को सशस्त्र बलों ने जिंदा गिरफ्तार कर लिया था, बाद में हिरासत में उनकी मौत हुई। उधर सशस्त्र बलों की तरफ से कहा गया है कि 21 अप्रैल से चला यह अभियान, जिसे ऑपरेशन कगार का नाम दिया था, 21 मई को माओवादी नेतृत्व के ‘सफाये’ के साथ कामयाबी के साथ पूरा हो गया है।
कोई 10 दिन पहले इसी इलाके की एक पहाड़ी पर 32 लोग मारे गए थे, जिन्हें माओवादी बताया गया था। ‘बताया गया’ कहना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि जून 2024 से कोई 350 माओवादियों के मारे जाने का दावा किया गया, इनमें इसी वर्ष 2025 के पहले 3 महीनों में मारे गए 140 भी शामिल है और इनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिनका माओवादी होना अभी तक साबित नहीं किया जा सका है।
माओवादियों की विज्ञप्ति के अनुसार उनके महासचिव सहित बाकी मौतें खुद उनके दल के अनेक लोगों द्वारा ‘गद्दारी’ किये जाने के कारण भी हुई हैं। इनमें उनकी यूनिफाइड कमांड के एक सदस्य सहित कई ऐसे वरिष्ठ भी शामिल हैं जो बसवा राजू के घनिष्ठ थे। बताया गया है कि घेराबंदी के बीच वे उनका साथ छोड़कर सशस्त्र बलों के साथ मिल गए।
कुटिल इरादों से किए निंदनीय एनकाउंटर्स
बहरहाल जो भी हो ये मुठभेड़ें और कथित एनकाउंटर्स निंदनीय है खासतौर से तब जब हाल का समय वह समय है जिसमें कोई टकराव नहीं हुए थे। माओवादियों की ओर से सीजफायर की घोषणा की जा चुकी थी और पिछले 40 दिन से कोई भी बड़ी घटना नहीं घटी थी। बार-बार बातचीत की अपीलें जारी की जा रही थीं। सिर्फ माओवादियो ने ही नहीं अनेक राजनीतिक दलों, संगठनों, नागरिकों के अलावा तेलंगाना की महिला तथा बाल कल्याण मंत्री सीधक्का ने भी बातचीत शुरू करने का सुझाव दिया था।
इन सबके साथ जमीनी सच्चाई यह भी थी कि हाल के दिनों में हुए नुकसानों से माओवादी काफी कमजोर हो चुके थे। और यह बात कोई दबी छुपी नहीं थी, सब को पता था। ऐसे में उनके साथ संवाद शुरू कर रास्ता निकलने की सम्भावनाएं तलाशने से कोई आसमान नहीं टूट जाता। उनके रास्ते से सहमति-असहमति अलग प्रश्न है, तथ्य यह है कि वे भारत के ही नागरिक हैं और लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाले हर देश में संवाद से सुलह और समाधान को प्राथमिकता देनी चाहिए, दी भी जाती रही है।
भारत में भी संवाद के जरिए समाधान निकलने के अनगिनत उदाहरण हैं। असम, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा सहित सभी पूर्वोत्तर राज्यों में ही नहीं आजादी के बाद जम्मू कश्मीर से पंजाब तक, बंगाल के गोरखा बहुल क्षेत्र आदि अनेक इलाकों में आज जो स्थिति है वह बन्दूक की नोंक पर नहीं वार्ताओं की टेबल पर बैठकर हासिल हुई है। उसके पीछे, कई मामलों में तो दशकों तक, धीरज के साथ किये गए संवाद है।
मोदी सरकार के गृहमंत्री अमित शाह और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के बातचीत न करने के बयान शुद्ध फासिस्ट मानसिकता का परिचायक है। यही फासिस्टी जेहनियत थी कि 800 वर्ग किलोमीटर इलाके में सीआरपीएफ, विशिष्ट कोबरा दल, डीआरजी, एसटीएफ, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की पुलिस के कुल जमा 24 हजार का सशस्त्र बल इस ऑपरेशन कगार में लगाया गया और इसके पूरा होने के बाद इस इलाके में 612 पुलिस थाने कायम करने की भी बात कही जा रही है। इससे साफ़ हो जाता है कि इरादा वह नहीं था जो बताया गया है, इरादा वह था जिसे छुपाया जा रहा है।
माओवादी बहाना है, बस्तर और आदिवासी निशाना हैं
मोदी की अगुआई वाली केंद्र सरकार की मंशा लोकतांत्रिक तरीकों से समाधान की नहीं है क्योंकि उसका इरादा राजनीतिक वातावरण बनाने का नहीं अडानी और उसके जैसे कारपोरेट की लूट के लिए रास्ता हमवार करने के लिए रेड कारपेट बिछाने का है। बस्तर और ऐसे प्राकृतिक संपदा समृद्ध भू-भागों का कोलंबस बनकर आदिमकाल से उनमें रहने वाले आदिवासियों और परम्परागत वनवासियों को बेदखल कर खनिज, जंगल, जल स्रोतों और विराट संपदा का दोहन करने का है।
हाल के वर्षों को ही देख लें तो बस्तर की मुख्य लड़ाई अडानी जैसे कॉर्पोरेट्स के लिए अबूझमाड़ सहित घने जंगल खाली करवाने, फोर और सिक्स लेन के सुपर एक्सप्रेस हाईवेज बनाने और यह सम्भव हो सके इसके लिए हर ढाई किलोमीटर पर सशस्त्र बलों का एक कैम्प खड़ा कर देने के खिलाफ था; आदिवासी हथियार नहीं उठा रहे थे शांतिपूर्ण तरीके से धरना दे रहे थे, अनेक उकसावों यहां तक कि अनावश्यक गोलीचालन कर हत्याएं किए जाने के बाद भी शांति का रास्ता नहीं छोड़ रहे थे।

बीजापुर और सुकमा के बीच सिलगेर में यह प्रतिरोध आन्दोलन चार पांच साल से लगातार चल रहा है। इन पंक्तियों के लेखक ने तत्कालीन छग किसान सभा अध्यक्ष संजय पराते के साथ अखिल भारतीय किसान सभा के प्रतिनिधि के रूप में पहले 26 नवम्बर 2021 और उसके बाद एक बार और जाकर इस धरने में भाग लेकर जो अनुभव किया वह ताजा है। एकदम दुर्गम जंगल में दसियों हजार आदिवासी यह मांग करने के लिए इकट्ठा हुए थे कि हर ढाई किलोमीटर पर सीआरपीएफ कैम्प-पुलिस छावनियां और थानों का जाल बिछाने के बजाय हर ढाई किलोमीटर पर स्कूल और अस्पताल बनाने चाहिए, ताकि मलेरिया और कुपोषण जैसी टाली जा सकने वाली हजारों मौतों से आदिवासियों को बचाया जा सके; ताकि उनकी संताने पढ़ लिख सकें।

बस्तर की खनिज और वन सम्पदा का निर्दयता से दोहन करने और बस्तर को आदिवासी और परम्परागत वनवासी विहीन बनाने के लिए फोर-सिक्स लेन हाईवे की बजाय उनके गांवों तक छोटी सड़कें बिछाई जाएं। मगर बजाय उनकी सुनने के बिना किसी वजह के सीआरपीएफ आयी और उसने चार आदिवासी मार डाले। 17 मई 2021 को चली पुलिस और सीआरपीएफ की गोली में चार युवा उयका पांडु, कोवासी वागा, उरसा भीमा, मिडियम मासा, गर्भवती युवती पूनम सोमली और उसका गर्भस्थ शिशु शहीद हुए थे। इनमें से किसी का भी माओवादी कनेक्शन आज तक साबित नहीं हुआ। उस समय पूरे बस्तर में इस तरह के 32 धरने चल रहे थे।
फर्जी मुठभेड़ें; जांच आयोग की रिपोर्ट्स पर भी कार्यवाही नहीं
सिलगेर की मौतें एक बानगी है। भाजपा राज में बस्तर ने ऐसी न जाने कितनी ज्यादतियां झेली हैं। नारियों के साथ जघन्यता और बलात्कारों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती। यहां हत्याकांडों के सिर्फ दो ऐसे उदाहरण देखना ही काफी होगा जिनके लिए बने जांच आयोगों ने भी माना कि मारे गए लोग न माओवादी थे न लड़ाके थे, निरपराध आदिवासी थे।
भाजपा राज में 28 जून 2012 की रात सुरक्षाबलों ने बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा गांव में 17 आदिवासी ग्रामीणों को माओवादी बताकर गोलियों से भून डाला। इस दौरान गांव वालों की ओर से किसी प्रकार की गोलीबारी नहीं की गई थी। ग्रामीणों के मुताबिक मारे गए लोग नक्सली नहीं थे, वे बुआई करने से पहले मनाया जाने वाला अपना पारंपरिक त्योहार बीज पंडुम मना रहे थे। इन मौतों को लेकर तत्कालीन राज्य सरकार ने एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था। इस एक सदस्यीय जांच आयोग के अध्यक्ष जस्टिस विजय कुमार अग्रवाल बनाए गए। करीब सात साल की सुनवाई के बाद यह रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंपी गई थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक भी मारे गए लोग नक्सली नहीं बेकसूर ग्रामीण आदिवासी थे। उन्हें पुलिस बलों ने बिना किसी उकसावे या वजह के यूं ही मार डाला था।
इसी तरह का हत्याकांड 17-18 मई 2013 की रात में बीजापुर के एडसमेटा गांव में हुआ। यहां भी ग्रामीण आदिवासी त्यौहार बीज पंडुम मनाने के लिए जुटे हुए थे। तभी नक्सल ऑपरेशन में निकले जवानों ने इन ग्रामीणों को नक्सली समझ कर गोलीबारी कर दी थी। इस गोलीबारी में चार नाबालिग समेत कुल आठ लोग मारे गए थे।
इसकी जांच के लिए बनी मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति वीके अग्रवाल की कमेटी ने इस हास्यास्पद तर्क कि यह घटना “सुरक्षा बलों द्वारा ग्राम एडसमेटा के समीप आग के इर्द-गिर्द एकत्रित हुए व्यक्तियों को देखने के बाद उन्हें संभवत: गलती से नक्सली संगठन के सदस्य समझकर घबराहट की प्रतिक्रिया के कारण गोलियां चलाने से हुई है।” यह माना कि “मारे गए सभी लोग ग्रामीण थे। उनका नक्सलियों से कोई कनेक्शन नहीं था।”
ध्यान रहे कि इन दोनों ही हत्याकांडों को उस वक़्त छत्तीसगढ़ में विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने उठाया भी, मुद्दा भी बनाया। जांच आयोगों की रिपोर्ट्स आने तक कांग्रेस सरकार में आ चुकी थी, मगर इन दोनों ही जांच रिपोर्ट के आधार पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। दोषियों को सजा देने, मारे गए निर्दोषों के परिजनों को मुआवजा देने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा। मामला अडानी का था और कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री देश भर, यहां तक कि खुद अपने नेता राहुल गांधी के विरोध को भी अंगूठा दिखाते हुए हसदेव के जंगल को अडानी को सौंप रहे थे।
इस तरह पहले नक्सलवादी और अब माओवादी तो बहाना है असली नीयत यहां की आबादी को डरा धमका कर उस हैसियत में पहुंचाना है कि वे चूं तक न कर सकें। आज वे कगार के नाम पर आये हैं, इसके पहले पहले नक्सली और बाद में माओवाद के नाम पर बिना कगार का नाम धरे ही आदिवासियों पर गोलियों का अंगार बरसाते रहे है। इस सबको उजागर करने वाली आवाजें भी बुरी तरह कुचली जाती रही, सोनी सोरी के साथ हुई जघन्यता और अभी पिछली साल ही मार डाले गए पत्रकार मुकेश चंद्राकर की अत्यंत निर्ममता के साथ की गयी हत्याएं, एक और ईमानदार पत्रकार कमल शुक्ला पर बार-बार किए जाने वाले हमले इसी के उदाहरण हैं। इस बीच एक और मुहिम धर्म के नाम पर आदिवासियों को आपस में लड़ाने की भी आजमाई जा चुकी है।
माओवाद ; वैचारिक दिवालिएपन और अवसरवाद की कथा
माओवादियों के राजनीतिक आकलन, वैचारिक नजरिए और उस पर टिकी उनकी रणनीति और कार्यनीति से सहमत होने का सवाल नहीं उठता। उनके वैचारिक दिवालिएपन ने कब-कब, कैसे-कैसे करतब दिखाए हैं और ऐसा करते हुए जिनसे लड़ने का वे दावा करते हैं उनका ही औजार बनकर देश के वास्तविक वाम और जनतांत्रिक जनआंदोलनों को कितना नुकसान पहुंचाया है इसके उदाहरणों की कमी नहीं है।
पश्चिम बंगाल में टीएमसी और भाजपा के साथ मिलकर बुद्धदेब भट्टाचार्य की अगुआई वाली वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ कथित मुक्तियुद्ध छेड़ने और इस ‘क्रान्ति’ के बाद ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनाने का नारा देने वाले यही माओवादी थे। यह अलग बात है कि ममता ने जीतने के बाद इन्हीं के प्रमुख किशन जी का एनकाउंटर करवा दिया। 25 मई 2013 में बस्तर की झीरम घाटी में छग कांग्रेस की लगभग समूची लीडरशिप का सफाया ही कर दिया और इस शून्य का लाभ उठाकर भाजपा के रमन सिंह तीसरी बार मुख्यमत्री बन गए।
यही नारायणपुर था जहां नए-नए बने छत्तीसगढ़ की विधान सभा के लिए 2003 में हुए पहले चुनाव में एन आख़िरी वक़्त पर भाजपा से सौदा करके अपने नियंत्रण वाले पोलिंग बूथ्स के वोट बेचकर मामूली अंतर से सीपीएम के संजय पराते की जीत को रोक दिया। छत्तीसगढ़ के लोकसभा विधानसभा के हर चुनाव में किसी न किसी एवज में कभी इसके लिए तो कभी उसके लिए अपने प्रभाव क्षेत्र में वोट शिफ्ट करवाने का इनका एक भरापूरा रिकॉर्ड है। बहरहाल इस सबके बावजूद रास्ता राजनीतिक समाधान निकालने का ही है, नरसंहार करके हल नहीं निकलते; विचारधाराएं विचारधाराओं से सुधारी जा सकती हैं।
इसका बड़ा उदाहरण ज्योति बसु के मुख्यमंत्रित्व में 1977 में बनी वाम मोर्चे की पहली सरकार ने अमल में लाकर दिखाया था जब उसने सबसे पहला फैसला सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने का लिया। नतीजे में वे नक्सली भी रिहा हुए जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय के अर्धफासिस्ट आतंक के 5 वर्षों में शहीद हुए कोई 1200 सीपीएम कार्यकर्ताओं की हत्याओं में प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका निबाही थी। बाद में कोई ढाई दशक तक यह दुराग्रही भटकाव जहां जन्मा था उस नक्सलबाड़ी सहित बंगाल से गायब हो गया। कुछ हद तक इस तरीके को अविभाजित आंध्रप्रदेश में भी अपनाया गया। नागी रेड्डी से लेकर बसवा राजू तक के गृह प्रदेश, वहां भी यह हाशिए तक पर नहीं बचा।
मृत देहों के साथ अमानुषिकता और फूल गोभी में छुपे संकेत
बहरहाल महीने भर तक चलकर 21 मई को चरम पर पहुंचे ऑपरेशन कगार की मंशा और नीयत राजनीतिक समाधान की नहीं है। मुठभेड़ के बाद मारे गए लोगों के शवों के इर्द-गिर्द जश्न जैसा मनाना एक अमानुषिक जेहनियत की अभिव्यक्ति है, उनकी मृत देहों को अंतिम संस्कार के लिए उनके परिजनों को न सौंपना अमानवीयता की हद है। यह सोच कितना विकृत है इसका नमूना खुद भाजपा की कर्नाटक इकाई ने माओवादियों की खबर के साथ हाथ में गोभी का फूल थामे नक्सलवादियों की कब्र पर खड़े अमित शाह का मीम जारी करके जाहिर कर दिया है। याद रहे कि 1989 के भागलपुर दंगों में मारे गए मुस्लिमों को खेत में एक साथ दफनाकर गोभी की फसल लगा दी गयी थी।

ऑपरेशन कगार के साथ इसे जोड़ना सिर्फ मीम नहीं है, यहां माओवादियों के बहाने पूरे बस्तर पर अडानी के मुनाफों की फसल लहलहाने का एलान है। इसी को नवफासीवाद कहते हैं और अमित शाह की अप्रैल 2026 तक देश को नक्सलवाद और उसकी विचारधारा से मुक्त कराने की घोषणा बस्तर की कार्रेगुट्टा-काली पहाड़ियों-तक नहीं रुकेगी; इस नव फासीवाद के हिसाब से भाजपा और कॉरपोरेट और उसके मनुवादी हिंदुत्व से असहमति रखने वाला हर व्यक्ति अर्बन नक्सल है।
जाहिर है कि इस बदनीयती के खिलाफ लड़ने की नीयत उन सबको बांधनी होगी जो कानून के विधिसम्मत राज, लोकतंत्र और संविधान को बचाए रखना जरूरी समझते हैं।
(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)