भारत ने पाकिस्तान पर हमले के मिशन का नाम ‘ऑपरेशन सिंदूर’ रखा है। इस नाम को लेकर कई किंतु-परंतु भी हो सकते हैं। कोई इसे पितृ सत्ता के प्रतीक के तौर पर देख सकता है तो कोई भारतीय सेकुलरिज्म की विरासत को चोट पहुंचाने वाला करार दे सकता है। और कोई एक सीमा तक इसको हिंदू राष्ट्र के घरेलू मॉडल का अंतरराष्ट्रीय विस्तार कह सकता है। अभी तक देश में इससे जुड़ा एक फिल्मी डॉयलाग बेहद चर्चित था जिसे पिछले दिनों किसी भी चौक-चौराहे या फिर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर देखा और सुना जा सकता था। डॉयलाग था- एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू।
अब भारत सरकार और उसके सरबरा पीएम मोदी ने इसको वहीं से लिया है या फिर यह उनकी अपनी कोई मौलिक सोच है कह पाना मुश्किल है। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि मीडिया में यह बात खूब प्रचारित की गयी है कि सेनाध्यक्षों के सामने इस नाम को सुझाने का काम पीएम मोदी ने ही किया था।
अब यह नाम कितना सार्थक है और कितना जरूरी यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन इसको लेकर जो खेल शुरू हो गया है वह ज़रूर काबिलेगौर है। कहा जाता है कि मुनाफा और बाजार पारिवारिक रिश्तों से लेकर घर के किचेन तक में प्रवेश कर गए हैं। फिर भला युद्ध उससे कैसे बच सकता है? लेकिन युद्ध अभी शुरू भी नहीं हुआ हो कि उससे पहले बाजार अपना रंग दिखाने लगे तो फिर किसी के लिए भी अचरज करना स्वाभाविक है। आज सुबह ही यह खबर आयी कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के ट्रेडमार्क का रजिस्ट्रेशन हासिल करने के लिए मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस ने आवेदन कर दिया है।
पहली बात तो यही सबसे बड़ा सवाल उठता है कि एक समय जब पूरा देश युद्ध के मुहाने पर है और जनता से लेकर सैनिक तक एक-एक नागरिक अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार हैं। ऐसे दौर में कोई उससे मुनाफा लेने के बारे में कैसे सोच सकता है? और अगर ऐसा कर रहा है तो फिर उसे कैसे परिभाषित किया जाए? राष्ट्रभक्ति और इस तरह की भावनाओं की बात तो छोड़ दीजिए क्या वह मानवता और इंसानियत की न्यूनतम शर्तों को भी पूरा करने के लिए तैयार है? और वैसे भी एक सरकार द्वारा अपने या फिर देश के लिए दिए गए किसी नाम पर कोई निजी शख्स या फिर कंपनी कैसे दावा कर सकती है?
निश्चित तौर पर उस पर केवल और केवल सरकार का हक बनता है। और सरकार रजिस्ट्रेशन कराये या न कराए उस पर पहला और आखिरी अधिकार जनता का होगा। बावजूद इसके अगर कोई उस पर दावा करता है तो यह न केवल बुनियादी लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है बल्कि अपने किस्म का अपराध है जिसके लिए उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। कल तो फिर अशोक की लॉट के ट्रेडमार्क का भी कोई रजिस्ट्रेशन करवाकर उसे अपना बना ले? और फिर इसी तरह से दूसरे राष्ट्रीय चिन्हों के साथ भी यही किया जा सकता है।
दरअसल यह और कुछ नहीं बल्कि पीएम मोदी से अपनी नजदीकी का फायदा है जिसे मुकेश अंबानी उठाने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी सरकार होती तो ऐसा करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ती। पीएम मोदी की पीठ पर हाथ रखने वाले इन सज्जन की मनमोहन सिंह समेत दूसरे प्रधानमंत्रियों के सामने किस तरह से घिग्घी बंधी रहती थी यह पूरे देश ने देखा है। लेकिन अब तो जैसे सरकार के मालिक यही हैं या फिर पूरी सरकार ही इनकी जेब में है तमाम मौकों पर ये इसी तरह का व्यवहार करते मिलते हैं।
दरअसल इसका रास्ता भी पीएम मोदी ने ही दिखाया है। आपको याद होगा कि उन्होंने पीएम केयर्स फंड नाम का एक ट्रस्ट बनाया है लेकिन वह सरकार का नहीं बल्कि उनका अपना निजी ट्रस्ट है। जिसमें अलबत्ता कई केंद्रीय मंत्री सदस्य हैं लेकिन उसका इस्तेमाल केवल और केवल मोदी जी अपनी जरूरतों और इच्छा के मुताबिक करते हैं। यहां तक कि वह आरटीआई के दायरे में भी नहीं आता है। यानि उसके खर्चे से लेकर तमाम दूसरी चीजों को जानने का किसी को हक नहीं है। ऐसे में यह आसानी से समझा जा सकता है कि मोदी से लेकर अंबानी तक के लिए सरकार केवल और केवल कामधेनु गाय है और उसकी उपयोगिता उतनी ही है कि अपने फायदे के लिए उसे जितना ज्यादा से ज्यादा दुहा जा सके। यही है सरकार और इन साहिबानों के बीच का रिश्ता।
इस ट्रेडमार्क का इस्तेमाल सिर्फ अंबानी तक सीमित नहीं है। राष्ट्रवाद का ढिंढोरा पीटने वाली यह जमात उनसे भी दो कदम आगे है। पाकिस्तान पर हमले को अभी दो दिन नहीं बीते हैं। लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में पीएम मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की तस्वीरें पोस्टरों पर दिखनी शुरू हो गयी हैं। न तो उनमें कहीं इन कार्रवाइयों को अंजाम देने वाले सैनिक हैं और न ही उनके अफसर। कहीं मोदी जी खुद फौजी ड्रेस में दिख रहे हैं तो कहीं किसी दूसरे लबादे में। सेना के शौर्य का श्रेय अभी युद्ध शुरू भी नहीं हुआ है उससे पहले उनके कार्यकर्ता मोदी जी को देना शुरू कर दिए हैं। लेकिन अगर इसी स्थान पर विपक्ष का कोई नेता एक सवाल भर कर दे तो पूरा सत्ता प्रतिष्ठान उसे देशद्रोही करार देते हुए पाकिस्तान की सीमा के पार भेजने के लिए तैयार हो जाएगा।
कोई पूछ सकता है कि क्या वोट की राजनीति सिर्फ आपको ही करनी आती है? बाकी पार्टियां और उनके नेता संत हैं या फिर उन्होंने सन्यास ले रखा है? राष्ट्र के हित को सर्वोपरि रखते हुए उसके प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए वह पूरी मजबूती से सरकार के साथ खड़े हैं। तमाम कमियां-कमजोरियां होने के बावजूद वह सरकार से एक सवाल तक नहीं कर रहे हैं। सर्वदलीय बैठक का मतलब होता है देश के सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की बैठक। यानी एक तरह से पूरी जनता की बैठक। अभी तक इस मसले को लेकर दो बैठकें हो चुकी हैं। लेकिन पीएम मोदी किसी एक बैठक में भी आना जरूरी नहीं समझे।
उनके पास दुबई से लौटकर सीधे बिहार में चुनावी सभा संबोधित करने का समय था लेकिन दलों के नेताओं के साथ दो मिनट बैठने का उन्होंने समय नहीं निकाला। हमले के बाद गुरुवार यानि आज हुई दूसरी बैठक में भी वह नदारद रहे। कोई पूछ सकता है कि आखिर आप क्या कर रहे थे? माना कि आप बहुत व्यस्त हैं लेकिन क्या आपके पास अपने गठबंधन और विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों से मिलने का दो मिनट का भी समय नहीं है? किसी लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और उनके प्रतिनिधियों की क्या अहमियत होती है इसके बारे में किसी को बताने की जरूरत नहीं है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि ये पार्टियां देश के संसदीय लोकतांत्रिक ढांचे की केंद्रीय धुरी हैं। और एक ऐसे मौके पर जबकि देश युद्ध में जा रहा हो तो सरकार के मुखिया की प्राथमिक जिम्मेदारी हो जाती है कि वह सभी दलों को न केवल अपने विश्वास में ले बल्कि उन्हें हर अपडेट से अवगत कराए। लेकिन यहां मोदी जी इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं जैसे वह सारे दलों से ऊपर हैं और उनको समर्थन देना उनकी मजबूरी है। अब कोई पूछ सकता है कि आप की पार्टी और कार्यकर्ता इस राष्ट्रीय भावना को क्यों खालिस वोट में तब्दील कर देने की कोशिश कर रहे हैं? लेकिन विपक्ष द्वारा ऐसा सवाल उठा भर देने से भक्त समुदाय उसे देशद्रोही का तमगा देने उतर पड़ेगा।
इसलिए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का नाम जिन पहलगाम में मारे गए सैलानियों की विधवाओं के नाम पर रखा गया है वह कुछ और नहीं बल्कि सिर्फ दिखावा है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसके बहाने पूरी जनता की भावनाओं का शोषण है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। वरना इस पवित्र नाम का इस तरह से बेजा इस्तेमाल नहीं किया जाता। और अगर कोई कोशिश कर रहा हो तो तत्काल उस पर लगाम लगायी जाती। लेकिन न तो सरकार की तरफ से इस तरह की कोई पहल हुई और न ही उसका इस्तेमाल करने वालों को इसका एहसास हो पाया कि वे समय रहते चेत जाएं। लेकिन जब व्यापार खून में ही हो तो देश को इसके लिए तैयार ही रहना चाहिए।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)