नई दिल्ली। कश्मीर में आतंकी हमले की हृदयविदारक घटना ने पूरे देश को शोक में डुबो दिया है। आतंकियों की गोलियों से गईं 27 जानों के दर्द से हर नागरिक कराह रहा है। ऐसे हालात में उनके परिजनों की पीड़ा का किसी के लिए अंदाजा लगा पाना भी मुश्किल है। ये घटना इसलिए भी बहुत जघन्य हो जाती है क्योंकि निशाना उन पर्यटकों को बनाया गया है जो बेहद मासूम थे तथा सिर्फ और सिर्फ कश्मीर घूमने के नजरिये से गए थे। जिनका न तो देश की राजनीति से कोई वास्ता था न ही उससे इतर किसी दूसरी चीज से लेना-देना।
इस पूरे मसले पर इन पंक्तियों के लेखक की कश्मीर स्थित एक पत्रकार से बात हुई जो कश्मीर से अमेरिका स्थित एक अंतरराष्ट्रीय पेपर को रिपोर्ट करते हैं। उनसे हुई बातचीत के आधार पर कुछ तथ्यों को यहां रखना बेहद प्रासंगिक होगा। मसलन सबसे पहले उस स्थान के बारे में समझ लिया जाए जहां घटना हुई है। घटनास्थल पहलगाम शहर से तीन किमी दूरी पर पड़ता है और उसे मिनी स्विटजरलैंड के तौर पर जाना जाता है। पूरा इलाका बेहद ऊंचाई पर होने के साथ ही पहाड़ियों से घिरा है। और बीच में घास का मैदान है। यहां पहुंचने के लिए सड़क का कोई रास्ता नहीं है। यानी वहां कोई वाहन नहीं जा सकता है। पर्यटक या तो पैदल या फिर घोड़े-खच्चर पर ही सवार होकर यहां जा सकते हैं। पैदल चल कर यहां पहुंचने में तकरीबन आधे घंटे लगते हैं और घोड़े-खच्चर से यह रास्ता 15 मिनट में तय किया जा सकता है।
इसी के एक इलाके से सटा जंगल का बेहद घना क्षेत्र है जो किश्तवाड़ जिले तक जाता है। जहां पहुंचने में तकरीबन एक दिन लग जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यह सघन जंगल बहुत बड़े इलाके में फैला हुआ है। अंतरराष्ट्रीय पेपर के इस रिपोर्टर की मानें तो आतंकी अपनी सारी गतिविधियों को इसी जंगल से अंजाम देते हैं। पिछले चार सालों से इस जंगल में तीन उग्रवादी समूह एक्टिव हैं। और वो लगातार तमाम किस्म की आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। करीब 10 दिन पहले ही इसी इलाके से सटे चात्रू किश्तवाड़ क्षेत्र में उग्रवादियों के साथ सुरक्षा बलों का एनकाउंटर हुआ था। जिसमें सरकार की आकाशवाणी सेवा के मुताबिक तीन उग्रवादी मारे गए थे। यानि पहले से ही ये पूरा इलाका बेहद संवेदनशील बना हुआ था और सरकार को इस पर अतिरिक्त निगाह रखनी थी।
लेकिन कल की घटना का जो ब्योरा सामने आ रहा है वह बेहद परेशान करने वाला है। रिपोर्टर ने बातचीत में बताया कि घटना के समय उस पहाड़ी इलाके में कुल ढाई से तीन हजार लोग मौजूद थे। जिसमें पर्यटक के साथ-साथ स्थानीय दुकानदार, विदेशी पर्यटक और घोडे़-खच्चर वाले शामिल थे। जंगल के इलाके से तीन उग्रवादी आए और आते ही उन्होंने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। जिसमें न केवल पर्यटक बल्कि स्थानीय खच्चर के मालिकों को भी गोलियां लगीं।
और फिर कुछ ही मिनटों में उन्होंने 27 लाशें गिरा दीं। न तो सुरक्षा बलों और न ही किसी दूसरी सरकारी एजेंसी के जवानों द्वारा उनका कोई जवाब दिया गया। वो आए और सबको मार कर चले गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वहां सुरक्षा व्यवस्था का कोई इंतजाम नहीं था। न तो सुरक्षा बल के जवान तैनात थे और न ही स्थानीय पुलिस का वहां कोई आदमी था। अगर कोई रहा भी हो तो उसने कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की। वरना आतंकियों की पहली ही गोली पर अगर सुरक्षा बल के जवान सक्रिय हो जाते तो उनके लिए इतनी जानें ले पाना मुश्किल होता।
उस रिपोर्टर की मानें तो जुलाई महीने में अमरनाथ की यात्रा शुरू होने वाली है। और उससे संबंधित सुरक्षा इंतजामों के लिए प्रशासन के स्तर पर बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया है। अभी एक सप्ताह पहले ही उसकी एक बैठक हुई है। दिलचस्प बात यह है कि यह यात्रा भी इसी इलाके से होकर गुजरती है। ऐसे में बहुत स्वाभाविक है कि इस इलाके की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर भी विचार-विमर्श हुआ होगा। लेकिन क्या ऐसा हो पाया और अगर हुआ तो वह जमीन पर क्यों नहीं दिखा?
और उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि जिस इलाके में इतने ज्यादा पर्यटक इकट्ठे हो रहे हैं। किसी हादसा या फिर दुर्घटना या फिर इस तरह के किसी हमले की स्थिति में घायलों को वहां से निकालने के लिए सरकार के पास न तो कोई वैकल्पिक व्यवस्था है और न ही इंतजाम। जिसका नतीजा यह रहा कि घायलों को स्थानीय लोगों की मदद से पैदल या फिर खच्चर के जरिये पहलगाम लाया गया जिसके चलते उनके ईलाज में न केवल देरी हुई बल्कि कई लोग जो समय पर लाने से बचाए जा सकते थे उनकी जान भी चली गयी। अब यह सरकार और प्रशासन के लिए एक बड़ा सवाल बन जाता है।
एक ऐसे समय में जबकि पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष का हाल में भारत विरोधी बयान आया हो। बलूचिस्तान में हुए ट्रेन पर हमले के लिए पाकिस्तान ने भारत को जिम्मेदार ठहराया हो। और इन सबसे ऊपर जम्मू इलाके में लगातार आतंकी गतिविधियां बढ़ गयी हों तो सरकार को क्या और ज्यादा सतर्क हो जाने की जरूरत नहीं थी? कहां गया डोभाल का जेम्सबांडपन? कहां गयी आतंकियों से निपटने के लिए बनायी गयी एनआईए। यहां इस बात को चिन्हित करना बहुत जरूरी है कि सूबे की सुरक्षा व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी केंद्र सरकार और सूबे में कार्यरत एलजी की है।
क्योंकि पुलिस और सुरक्षा व्यवस्था इन्हीं के मातहत आते हैं। राज्य का दर्जा छिन जाने के बाद सूबे के मुख्यमंत्री की इसमें कोई भूमिका नहीं है। लेकिन हकीकत यह है कि मनोज सिन्हा भले ही सूबे के एलजी हों लेकिन उनका दिमाग यूपी और उसकी राजनीति में ज्यादा लगता है। अभी जब यह घटना हुई तो वह यूपी की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल से मिलकर ही दिल्ली लौटे थे। और जम्मू-कश्मीर नहीं पहुंचे थे तभी यह कांड हो गया। वह कल गृहमंत्री अमित शाह के साथ ही घटना के बाद सूबे में पहुंचे हैं।
और जो अमित शाह गृहमंत्री होने के नाते सूबे की सुरक्षा व्यवस्था के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं वह पिछले कई सालों से यही कहते फिर रहे हैं कि सूबे में स्थिति सामान्य हो रही है। बढ़ती आतंकी घटनाओं का न तो वह संज्ञान ले रहे थे और न ही उसको मानने के लिए तैयार थे। यहां तक कि अभी पिछले संसद सत्र के दौरान राज्य सभा में वह कांग्रेस पर कटाक्ष करते देखे गए। जिसमें उन्होंने कहा कि कांग्रेस के शासन के दौरान रोज कोई न कोई घुसपैठ या फिर आतंकी घटनाओं की सूचना मिलती रहती थी। कभी यहां लोग मारे गए कभी वहां यही खबर रहती थी।
लेकिन बीजेपी के सत्ता में आने के साथ ही सब कुछ समाप्त हो गया। और यह कहकर अपनी पीठ थपथपाने वाले गृहमंत्री को कश्मीर की घाटी में सुलग रही हिंसा की गंध का भान नहीं हो पाया था। जिसका नतीजा इतना भयंकर होगा यह किसी ने सोचा भी नहीं था। जिस सूबे में चार लाख से ज्यादा सैनिक और अर्धसैनिक बल के जवान तैनात हों उसमें सबसे ज्यादा भीड़ भरे स्थान पर किसी सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम न होना कई बड़े सवाल खड़ा करता है। क्या इसका जवाब ढूंढा जाएगा या फिर पुलवामा की तरह इस घटना को भी भुला दिया जाएगा?
(जनचौक के संपादक मिश्र की रिपोर्ट।)