जाति के नाम पर आक्रमणकारी संगठन बनाने की संवैधानिकता पर अविलंब विचार करना आवश्यक हो गया है। करणी सेना जैसे संगठनों की कानूनी स्थिति क्या है, यह सवाल उठाया जाना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर संगठन बनाने तथा विचार फैलाने की स्वतंत्रता है। लेकिन विचार फैलाने या अपनी बात मनवाने के लिए किसी संगठन का आक्रमणकारी व्यवहार कैसे उचित हो सकता है?
क्या किसी के प्रति आक्रमणकारी व्यवहार आपराधिक नहीं है? यह कोई काल्पनिक चिंता नहीं है। करणी सेना जिस प्रकार रामजी लाल सुमन पर बार-बार आक्रमणकारी रुख अपनाती रही है, उसे ध्यान में रखकर यह बात उठाई जानी चाहिए। जातिगत द्वेष और जाति आधारित दुर्व्यवहार की घटनाएँ हिंदी पट्टी में तेजी से बढ़ रही हैं। यह पूरा मामला सुनियोजित और संगठित आक्रमण का है। पहले से सोच-विचार कर बार-बार होने वाले ऐसे दुर्व्यवहारों को रोकने में विफलता, या तो सरकार की शह या पुलिस-प्रशासन की लापरवाही के कारण, संविधान में निहित निष्पक्षता की भावना और संवैधानिक प्रावधानों का सरासर उल्लंघन है।
चुनी हुई सरकार और योग्यतम लोगों के चयन के आधार पर सुगठित शासन, यदि संविधान को निष्प्रभावी करने पर तुला हो, तो एक राष्ट्र के रूप में भारत के भविष्य का अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा। यदि दलित और वंचित समुदाय, बाध्य होकर, सुनियोजित और संगठित रूप से समाज के अन्य समूहों पर आक्रमणकारी रुख अपनाएँ, तो वह दिन भारत और सभ्य समाज के लिए कैसा होगा? स्पष्ट कहें तो तथाकथित सवर्ण समुदाय के लिए कैसा होगा?
संविधान-विरोधी और मानव-विरोधी प्रवृत्तियों के अधिकतर उदाहरण हिंदी पट्टी, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार से जुड़े हैं। ध्यान देने योग्य है कि इस खुराफाती राजनीतिक सोच के नेतृत्व में हिंदी पट्टी के नेता आज अग्रिम पंक्ति में नहीं हैं। मिथ्या गर्व में कोई भले ही कहता रहे कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है, लेकिन राजनीतिक यथार्थ यह है कि अब लखनऊ का रास्ता भी लखनऊ से नहीं जाता।
हिंदी पट्टी के हिंदू-मुसलमान, विशेष रूप से दलित और पिछड़े समुदायों सहित सभी समझदार लोगों को ठंडे दिमाग से सोचना होगा कि आज केंद्र की राजनीति में हिंदी पट्टी का कोई ऐसा नेता क्यों नहीं है, जिसकी अखिल भारतीय पहचान और स्वीकार्यता हो? ऐसी राजनीतिक परिस्थिति क्यों है?
हो सकता है कि मुझसे भूल हो रही हो, लेकिन कोई भी बिना ‘अपने मुँह मियाँ मिट्ठू’ बने इसमें सुधार कर सकता है। यहाँ हिंदी पट्टी की बात किसी विभाजन के इरादे से नहीं, बल्कि राजनीतिक यथार्थ को समझने के लिए की जा रही है। एक कारण जो तत्काल समझ आता है, वह यह कि हिंदी पट्टी में सामाजिक न्याय की जो टूटी-फूटी राजनीतिक विरासत थी, उसे सांप्रदायिक और ब्राह्मणवादी राजनीति का पिछलग्गू बना दिया गया है। हिंदी पट्टी के मिट्टी के नेता अनुयायी बनकर रह गए हैं। यह सही कारण है या नहीं, इस पर बुद्धिजन विचार कर सकते हैं।
सामाजिक न्याय की ऐतिहासिक विरासत का विस्तार केंद्र से, अर्थात् हिंदी पट्टी से, परिधि की ओर होना चाहिए था। लेकिन इस महत्वपूर्ण विरासत को हिंदी पट्टी में ही घेरकर मिट्टी में मिला दिया गया। मिट्टी में मिलाने से जो महत्वपूर्ण है, वह पूरी तरह नष्ट नहीं होता। मृत और निष्क्रिय हिस्सा नष्ट होता है, लेकिन उसका प्राणवंत तत्व अनेक नए प्राणवंत तत्वों को जन्म देता है। यही बौद्ध दर्शन का प्रतीत्यसमुत्पाद है। इसे सरलता से समझाने के लिए एक दीये की लौ से बिना क्षति के अनेक दीयों के जलने का उदाहरण दिया जाता है।
गलत माने जाने के जोखिम पर भी यह कहना जरूरी है कि हिंदी पट्टी की उदार और सहिष्णु अस्मिता भारत की अन्य क्षेत्रीय अस्मिताओं को भारत राष्ट्र से जोड़े रखने की बुनियाद रचती है। इस उदार और सहिष्णु अस्मिता के कमजोर होने से भारत राष्ट्र की नींव कमजोर होती है। टिकाऊ वोट बैंक के जुगाड़ में लगी दक्षिणपंथी राजनीति हिंदी पट्टी की इस अस्मिता को क्षति पहुँचा रही है, जिससे भारत की राष्ट्रीय एकता कमजोर हो रही है।
भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्रशासित प्रदेशों में से 9 राज्य हिंदी भाषी माने जाते हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़, और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, जबकि बिहार में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार है। झारखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन की सरकार है।
करणी सेना की मुख्य राजनीतिक आधारभूमि राजस्थान के राजपूत समाज में है। यह संगठन उत्तर प्रदेश में दलित नेता के विरुद्ध आक्रमणकारी अभियान चला रहा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी राजपूत हैं। शायद इसलिए करणी सेना का यह दुस्साहसिक अभियान उत्तर प्रदेश में बेरोकटोक जारी है और पुलिस-प्रशासन निष्क्रिय बना हुआ है। पुलिस-प्रशासन की निष्क्रियता हमारे संविधान को पंगु बना रही है। संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा के अभाव में यदि इसे लागू नहीं किया जा रहा, तो यह व्यावहारिक रूप से संविधान को बदलने जैसा नहीं तो और क्या है?
हमारे जन-प्रतिनिधि संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा, निष्ठा और राष्ट्र की अखंडता बनाए रखने की शपथ लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से विधायिका का हिस्सा बनते हैं। संविधान के प्रति निष्ठा का अभाव भारत की अखंडता को कमजोर करता है। अयोध्या, काशी, मथुरा, संभल जैसे उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों के नाम हैं, और भी हो सकते हैं।
हनुमान चालीसा पढ़वाकर सौदा करने का आह्वान जिस तरह किया जा रहा है, उससे स्पष्ट है कि मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का इरादा पक्का है। कहना न होगा कि मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार और दलित-पिछड़ों के सामाजिक बहिष्कार के मस्तिष्क की मेधा शक्ति काम कर रही है। आश्चर्यजनक रूप से, बहिष्कारी बुद्धि से संचालित राजनीतिक दल के नेता पूरे रौब के साथ ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा लगाते हैं।
बाबासाहेब ने समझदारी से बुद्ध की शिक्षा ‘धम्म चक्र प्रवर्तन’ को अंकित करवाया और भारत सरकार के प्रतीक के रूप में ‘अशोक चक्र’ को स्वीकृत करवाया। तब न तो बाबासाहेब स्वयं बौद्ध थे, न ही बौद्ध धम्म के अनुयायी बहुसंख्यक थे। फिर भी उन्हें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई सांसदों के विशेष विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। आज की राजनीतिक परिस्थिति में यह असंभव-सा लगता है। यह भी सच है कि हम सत्य, अहिंसा, सहमिलन और सह-अस्तित्व की भावनाओं से बहुत दूर आ चुके हैं।
करणी सेना की कारगुजारियों का उल्लेख यहाँ उदाहरण के रूप में किया गया है, क्योंकि यह ताजा प्रसंग है। हिंदी पट्टी के तमाम लोगों को समझना होगा कि किन-किन लोगों द्वारा, किन-किन राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उनके मानव और भौतिक संसाधनों तथा राजनीतिक संभावनाओं का दुरुपयोग किया जा रहा है। यह सोच-विचार विभाजन की भावना से नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूत करने के लिए जरूरी है। पहलगाम में हुई आतंकी घटनाओं के बाद बनी राजनीतिक परिस्थिति में यह और भी महत्वपूर्ण हो गया है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)