पहलगाम त्रासदी : क्या हो अमन की राह?

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कश्मीर के बैसरन में 26 सैलानियों को बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया और कई अन्य घायल हुए। इस त्रासदी को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। यह दावा किया गया है कि हत्यारे आतंकवादी पाकिस्तान की लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े संगठन ‘द रेसिसटेंस फोर्स‘ के थे। इस संगठन ने इस कायरतापूर्ण हमले की जिम्मेदारी भी ली है। हमलावरों ने लोगों का धर्म पूछा और फिर बेरहमी से उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बनाया। मरने वालों में सैयद आदिल शाह नामक व्यक्ति भी था जो पर्यटकों को घोड़ों पर बिठाकर सैर करवाता था।

इस कांड के तुरंत बाद हेलीकाप्टरों के पहुंचने तक हमले के शिकार लोगों की मदद मुख्यतः मुसलमानों ने की। घायलों का इलाज मुस्लिम डॉक्टरों के एक दल ने किया। पूरी कश्मीर घाटी में बंद रहा और ‘हिंदू मुस्लिम भाई भाई‘ के नारे गूंजते रहे।

घटना के समय प्रधानमंत्री सऊदी अरब में थे। वे अपनी यात्रा अधूरी छोड़कर स्वदेश वापिस आए लेकिन घटनास्थल पर जाने के बजाए वे एक चुनावी रैली में शामिल होने बिहार चले गए। प्रधानमंत्री मोदी ने सर्वदलीय बैठक की अध्यक्षता भी नहीं की क्योंकि वे उस समय बिहार में थे और वहां मंच पर भाजपा के सहयोगी दल के नेता नीतीश कुमार के साथ हंसी-ठिठोली करते नजर आए। सभी विपक्षी दलों ने आतंकी हमले के खिलाफ सरकार द्वारा उठाए जाने वाले सभी कदमों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया, जो बिलकुल उचित कदम था।

प्रधानमंत्री का यह रवैया गुजरात के गोधरा में ट्रेन में आग लगने की घटना के बाद के उनके रवैये के एकदम विपरीत था। तब वे घटना के आधे घंटे के अंदर ही घटनास्थल की ओर रवाना हो गए थे और उन्होंने यह निर्देश दिया था कि शवों को अहमदाबाद ले जाया जाए जहां उन्हें एक जुलूस में शहर की सड़कों पर घुमाया गया।

पहलगाम हमले के बाद से सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर ऐसे संदेश पोस्ट किए जा रहे हैं जिनमें आतंकवादियों को ‘मुस्लिम राक्षसों‘ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। आतंकियों ने पर्यटकों की हत्या करने के पहले उनका धर्म पूछा इस बात को मुस्लिमों के प्रति घृणा फैलाने का मुख्य आधार बनाया जा रहा है।

मुसलमानों को कठघरे में खड़ा करने का सिलसिला काफी पहले से चल रहा है।  गाय और लव जिहाद जैसे मुद्दों के बहाने मुसलमानों की लिंचिंग होती रही हैं। उनका नाम पता लगने के बाद उन्हें मकान बेचने या किराए पर देने से इंकार कर दिया जाता है। उन्हें सिर्फ उनके धर्म की वजह से नौकरी नहीं दी जाती है। सरकार और गोदी मीडिया ने आतंकियों के मुस्लिम होने की बात का जिक्र तो खूब किया मगर उन्होंने सुरक्षा व्यवस्था और गुप्तचर संस्थाओं की असफलता के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा।

यह पुलवामा की घटना के बाद के रवैये जैसा ही था। तब भी आतंकी हमले को लेकर जनाक्रोश को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई लेकिन इस मुद्दे की जरा सी भी चर्चा नहीं की गई कि भारी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद आरडीएक्स वहां कैसे पहुंचा। प्राप्त समाचारों के अनुसार इस बात के संकेत थे कि हमला हो सकता है। ऐसे में सरकार ने उसे रोकने के लिए कौन-से कदम उठाए? बैसरन पहुंचने के पहले सेना की बहुत सी निगरानी चौकियों को पार करना पड़ता है। फिर आतंकी वहां पहुंचने में कैसे सफल हो गए?

त्रासदी के बाद स्थानीय मुसलमानों, घोड़े वालों, रिक्शा चालकों और होटलों के मालिकों (जो सभी मुसलमान थे) ने पर्यटकों की मदद की और फैसला लिया कि वे उनसे एक रूपया भी नहीं लेंगे। इसके विपरीत एयरलाइन्स ने आपदा को अवसर में बदलते हुए किराए में अनाप-शनाप बढ़ोत्तरी कर दी। कई कश्मीरी विद्यार्थियों को उनकी होस्टलों में प्रताड़ना झेलनी पड़ी कई से हॉस्टल खाली करने को कहा गया. देश के विभिन्न भागों में कश्मीरियों को परेशानियों का सामना करना पड़ा।

भारत सरकार ने सिंधु नदी के जल के बंटवारे पर भारत-पाक संधि को स्थगित करने की घोषणा की। इस पर पाकिस्तानी नेतृत्व ने कहा कि यह युद्ध की घोषणा के समान है। टकराव और संघर्ष के काले बादल आसमान में साफ नजर आ रहे हैं।

आतंकवाद कश्मीर की गंभीर समस्या बनी हुई है। इस समस्या की जडें बहुत पुरानी हैं। भारत में कश्मीर के विलय की संधि के कई प्रावधानों को कमज़ोर कर दिया गया। इससे कश्मीरियों में असंतोष की शुरूआत हुई। शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला को भी यह ठीक नहीं लगा। उनके मन में यह विचार आने लगा कि क्या कश्मीर का भारत में विलय करना एक गलती थी। यह असंतोष पूरी तरह कश्मीरियत पर आधारित था। कश्मीरियत वेदांत परंपराओं, बौद्ध मूल्यों और सूफी शिक्षाओं के मिलन से बनी संस्कृति है। 

पाकिस्तान ने इस असंतोष को हवा दी। इसने हिंसक रूप ले लिया और हालात और जटिल हो गए। 1990 के दशक में अल कायदा की ताकत बढ़ गई और उसके जैसे अन्य तत्वों ने इस विशुद्ध कश्मीरी प्रतिरोध को साम्प्रदायिक स्वरूप दे दिया। कश्मीरी पंडितों को प्रताड़ित किया गया और वे घाटी छोड़ने को मजबूर हुए। उस समय भाजपा समर्थित वी.पी.सिंह सरकार केन्द्र में सत्ता में थी।

जिस दौर में पंडितों का कश्मीर से पलायन हुआ समय राज्य का कामकाज भाजपा समर्थक जगमोहन संभाल रहे थे। उन्होंने पंडितों को कश्मीर से जाने के लिए सुविधाएं उपलब्ध करवाईं। स्थानीय लोगों द्वारा पंडितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और उन्हें संरक्षण देने के प्रयासों को नाकाम कर दिया गया।

निश्चित ही अटल बिहारी वाजपेयी का ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत‘  का नारा कश्मीर में शांति सुनिश्चित करने की सर्वोत्तम नीति हो सकता है। लेकिन ज्यादातर समय कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित रही है। बल्कि वहां पिछले कई बरसों से बहुमत की इच्छाओं का गला घोंटा जा रहा है। पहले भी कश्मीर में निष्पक्ष चुनाव नहीं होते थे, और आज भी वही स्थिति है।

मोदी के सत्ता में आने के बाद शुरूआती दिनों में नोटबंदी लागू की गई और दावा किया गया कि इससे आतंकवाद काबू में आएगा। नोटबंदी पूरी तरह असफल रही। उसके बाद अनुच्छेद 370 को हटाया गया और उसके साथ ही कश्मीर का दर्जा राज्य से घटाकर केन्द्रशासित प्रदेश कर दिया गया और कहा गया कि इससे आतंकवाद की समस्या समाप्त हो जाएगी। गृहमंत्री अमित शाह ने दावा किया कि आतंकवाद खात्मे की ओर है जिससे पूरे देश के पर्यटक कश्मीर आने लगे।

इस बीच कश्मीरी पंडितों और अन्यों के खिलाफ छिटपुट आतंकी कार्यवाहियां होती रहीं जिनसे कश्मीरी परेशान होते रहे। अब चूंकि कश्मीर केन्द्रशासित प्रदेश है इसलिए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की सुरक्षा व्यवस्था में कोई भूमिका नहीं है। पिछली बार अमित शाह ने एक उच्च स्तरीय सुरक्षा बैठक बुलाई लेकिन उससे अब्दुल्ला को दूर रखा गया। कानून व्यवस्था पूरी तरह से केन्द्र सरकार के हवाले है!

आतंकवाद को कैसे समाप्त किया जा सकता है? स्थानीय लोगों को राज्य के कामकाज से अलग रखना आतंकवाद का मुकाबला करने में एक बड़ी बाधा है। सुरक्षा तंत्र का पहले पुलवामा में और अब पहलगाम में असफल होना, यानि बार बार असफल होना, गंभीर चिंता का विषय है। कश्मीर भारत का अंग है और वहां अमन-चैन रहे, यह पूरे देश का लक्ष्य होना चाहिए। और इसमें वाजपेयी की जम्हूरियत की प्रमुख भूमिका होगी।

कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करना और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त करना आज की जरूरत है। कश्मीर के नागरिकों को, जो हमारे साथी और मित्र हैं, ऐसे माहौल की दरकार है जहां पर्याप्त सुरक्षा हो और पर्यटक बिना किसी भय के वहां आ सकें और घूम सकें। पर्यटन स्थानीय लोगों की रोजी-रोटी का प्रमुख साधन है और कश्मीर के मामले में कोई भी फैसला लेते समय इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

आज देश पूरी मजबूती से सरकार के साथ खड़ा है और सरकार को चाहिए कि वह विपक्ष के सुझावों को पूरी गंभीरता से ले। किसी ने ठीक ही कहा है युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है। वह तो अपने आप में एक समस्या है। 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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