किसानों से तौबा, कॉर्पोरेट की तरफदारी!

Estimated read time 1 min read

आखिर माज़रा क्या है मोहतरमा?
अरुंधति भट्टाचार्य एसबीआई की मुखिया हैं। सोमवार को मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान एक पत्रकार के किसानों के कर्जे की माफी के सवाल पर इस तरह से भड़क उठीं, मानो पत्रकार ने कोई गुनाह कर दिया हो। इस मामले में उन्होंने बैंक के क्रेडिट अनुशासन के खराब होने की बात कही। साथ ही ये भी कहा कि एक बार कर्जा माफ करने पर किसानों का लालच बढ़ जाएगा और फिर वह अगला कर्जा चुकाने की बजाय चुनाव का मुंह देखने लगेंगे। देश के इस सबसे बड़े बैंक की मुखिया के पास किसानों के कर्जे माफ़ी से बचने का हर तर्क मौजूद है। उन्हें न तो किसानों की समस्याओं से कुछ लेना-देना है और न ही उनकी बदहाली और खुदकुशी से। एक दूसरे बैंक के निदेशक ने भी इससे सम्बंधित सवाल पूछे जाने पर कुछ इसी तरह के जवाब दिए।

आज से कुछ महीने पहले सरकार ने कॉर्पोरेट घरानों के 1 लाख 14 हजार करोड़ रुपये माफ किए थे। क्या उसको माफ करने से पहले या उस दौरान या उसके बाद किसी भी बैंक या उसके चेयरमैन का कोई बयान सुना गया था! या किसी ने इस तरह का कोई बयान दिया था! क्या उस समय क्रेडिट अनुशासन नहीं खराब हो रहा था? या फिर इस तबके के अगले कर्जों की उगाही की गारंटी थी? हकीकत ये है कि तकरीबन 9 लाख करोड़ रुपये का पूंजीपतियों का कर्ज एनपीए यानी डम्प कर्जे में तब्दील हो गया है और बैंकों के ऊपर बोझ बनकर पड़ा हुआ है। अब सरकार के साथ मिलकर बैंक उनकी वसूली की जगह माफ़ी के रास्ते पर बढ़ चुके हैं।

आरबीआई के एक आंकड़े के मुताबिक देश के कुल कर्जे में किसानों के कर्जे की हिस्सेदारी महज 13 फीसदी है। जबकि कॉर्पोरेट और उद्योग घरानों का हिस्सा 70 फीसदी के करीब है। अब बैंकों की पहली प्राथमिकता क्या होनी चाहिए ये कोई अनपढ़ भी बता सकता है।

लेकिन बैंक उल्टी गंगा बहा रहे हैं। 70 फीसदी वाले हिस्से के कर्जे को माफ कर रहे हैं और 13 फीसदी वाले किसानों का कर्जा वसूला जाना सबसे जरूरी माना जा रहा है। जबकि सच ये है कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं और डिफाल्टर पूँजीपति बैंकों को ठेंगा दिखाकर विदेश भाग रहे हैं ।

दरअसल किसानों के कर्जे माफ़ी का मामला इस लिए चर्चा में आ गया है क्योंकि हाल के विधानसभा चुनाओं के दौरान बीजेपी ने इसका वादा किया हुआ है । यूपी में तो उसने बाकायदा कैबिनेट की पहली बैठक में ही इस वादे को पूरा करने की बात कही है। उसके बाद से ही सबकी निगाह सरकार और उसके फैसले पर लगी हुई है। और मामला सीधे बैंकों से जुड़ा होने के चलते वो बहस के केंद्र में हैं ।

किसानों के कर्जे माफ़ी के मामले में बैंकों का सीधे नुकसान नहीं होने जा रहा है। क्योंकि जो भी कर्जे माफ होंगे सरकार उसकी भरपाई करेगी। बावजूद इसके बैंकों की प्रतिक्रिया बेहद तीखी है। इसके उलट कॉर्पोरेट के कर्जे के माफ़ी के मामले में पूरा नुकसान बैंकों को उठाना होगा। उसमें सरकार उनका रत्ती भर भी सहयोग नहीं करने जा रही है। बावजूद इसके उनकी माफ़ी पर बैंक चूं तक नहीं करते। यहां तक कि बैंक उन नामों तक का खुलासा करने के लिए तैयार नहीं हैं जिनके कर्जे एनपीए की कैटेगरी में चले गए हैं।

बैंकों के मुलाजिमों का कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ न बोलने के पीछे एक और वजह दोनों के हितों की एकता है। दरअसल इनमें से कई पूंजीपति निजी बैंकों के मालिक हैं। या फिर उनकी अपनी वित्तीय संस्थाएं हैं। बीमा कंपनियों से लेकर वित्तीय क्षेत्र में इनका काफी दखल रहता है। ऐसे में इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रोफेशनल कर्मचारियों, अफसरों और बैंकरों के निजी हित उनसे जुड़े होते हैं। नौकरी करते हुए मौजूदा किसी संकट या फिर भविष्य में सेवानिवृत्त होने के बाद यही कंपनियां उन्हें अच्छे पैसों पर सलाहकार से लेकर तमाम दूसरे जरूरी पदों के लिए हायर करती हैं। बैंकर अपने इसी वर्तमान और भविष्य की लालच में हमेशा इस तबके के साथ खड़ा रहता है।

इतना ही नहीं कॉर्पोरेट और बैंकरों के बीच गठजोड़ है इसको पूरे देश ने देखा। जब नोटबंदी के दौरान कालाधन धारियों के पुराने नोट रात-रात भर बैंकों में बदले गए। एक्सिस बैंक के कई बड़े मैनेजरों की गिरफ्तारी इसका सबूत है। ऐसे में अगर दोनों के हित इस कदर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं तो उनसे उनके खिलाफ कार्रवाई की उम्मीद करना ही बेमानी है।

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author