मोदी राज में केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में 40% स्थायी नौकरियां घट गईं

जैसे-जैसे 2024 लोक सभा चुनाव की सरगर्मियां बढ़ रही हैं, सतह पर बैठ चुके बुनियादी मुद्दे उभरकर सामने आने लगे हैं। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने बिहार और उत्तर प्रदेश में एक बार फिर रोजगार के मुद्दे को उठा दिया है। दोनों ही राज्यों के पिछले विधानसभा चुनावों में बेरोजगारी का मुद्दा सबसे अहम बना हुआ था। बिहार में तो तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन लगभग जीत की दहलीज पर पहुंच चुका था, जिसके बारे में चुनाव से ठीक पूर्व किसी को अंदाजा तक नहीं था। इसी प्रकार उत्तरप्रदेश में भी अखिलेश यादव की सभाओं में बेरोजगार युवाओं की उमड़ती भीड़ और भाजपा की सभाओं में बेहद फीके प्रदर्शन को देख तमाम राजनीतिक पर्यवेक्षक जमीनी संगठन एवं बूथ लेवल मैनेजमेंट को भुलाकर समाजवादी पार्टी की जीत के दावे करने लगे थे।

निश्चित रूप से मोदी राज में बेरोजगारी आज के दिन सबसे बड़ा मुद्दा है, लेकिन देश में विभिन्न आयु वर्ग, काम में संतुष्टि, उम्र बढ़ने के साथ अपनी उम्मीदों से समझौता, ग्रामीण एवं शहरी बेरोजगारी, पुरुष एवं महिलाओं में बेरोजगारी की स्थिति, नई तकनीक के अनुरूप कामगारों के लिए कौशल विकास के अवसर इत्यादि सवालों की गहराई में गए बिना देश में छिपी हुई बेरोजगारी का पता नहीं लगाया जा सकता है। चीन की तुलना में भारत में श्रम उत्पादकता मात्र 40% है, अर्थात अगर देश श्रम उत्पादकता में चीन की बराबरी का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तो हम इतने ही लोगों से ढाई गुना उत्पादन/जीडीपी वृद्धि कर सकते हैं।

लेकिन यह होना ही नहीं है, क्योंकि हमारे नीति-नियंताओं की प्राथमिता में यह मुद्दा है ही नहीं। बहरहाल, आज हम लोग सिर्फ सार्वजनिक उपक्रमों में रोजागर की स्थिति पर चर्चा को सीमित रखते हैं।

देश के सार्वजनिक उपक्रमों, नौकरशाही पर निगाह रखने वाली वेबसाइट पीएसयूवाच.कॉम की 17 जून 2023 को प्रकाशित रिपोर्ट में पब्लिक इंटरप्राइजेज सर्वे रिपोर्ट 2022-23 से कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े जुटाए गये थे, जिसमें 2012-13 से लेकर 2021-22 के दौरान भारतीय सार्वजनिक निगमों के उपक्रमों में नौकरियों में लगातार हो रही कमी का आंकड़ा निकलकर सामने आया है।

इन आंकड़ों को केंद्रीय वित्त मंत्रालय के तहत जारी किया गया है, और स्वंय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा दिसंबर 2023 में हस्ताक्षर के साथ जारी किया है। इस रिपोर्ट से कुछ चौंकाने वाली जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार से है;

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 10 वर्षों के कार्यकाल से पहले मार्च 2013 तक केंद्रीय सार्वजनिक उद्यमों में कुल 17.3 लाख लोग कार्यरत थे। मार्च 2022 में यह संख्या घटकर 14.6 लाख रह गई थी। इस सर्वे में शामिल कुल 389 पीएसयू में से अभी 248 उद्यम ही संचालन में हैं।

यहां पर बता दें कि ये सभी सार्वजनिक उपक्रम केंद्र सरकार के मातहत आते हैं, और इनमें सरकार की 50% से उपर की हिस्सेदारी होती है।

केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में तेजी से बढ़ती दिहाड़ी एवं ठेका कर्मचारियों की तादाद

इससे भी चौंकाने वाला तथ्य यह है कि पिछले 10 वर्षों के दौरान इन सार्वजनिक उपक्रमों में स्थायी रोजगार की तुलना में दिहाड़ी एवं ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।

मार्च 2013 में, कुल श्रमशक्ति में ठेका कर्मचारियों की हिस्सेदारी 17% तक थी, जबकि आकस्मिक/दिहाड़ी पर काम करने वालों की हिस्सेदारी मात्र 2.5% तक सीमित थी।

लेकिन 2022 आते-आते ठेका श्रमिकों की हिस्सेदारी बढ़कर 36% तक पहुंच चुकी थी, वहीं दिहाड़ी श्रमिकों की संख्या में भी वृद्धि हुई है, और कुल श्रम शक्ति में उनका अनुपात बढ़कर 6.6% हो चुका है। इसका अर्थ हुआ कि वर्ष 2013 में जहां सिर्फ 19% लोग ही ठेका या दिहाड़ी पर इन केंद्रीय उपक्रमों में कार्यरत थे, वह अनुपात मार्च 2022 तक बढ़कर 42.5% तक पहुंच चुका था।

मार्च 2013 तक देश के केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में 13,92,650 कर्मचारी स्थायी नौकरियों में थे, जिनकी संख्या मार्च 2022 में घटकर 8,38,040 हो चुकी थी। इसका अर्थ है पिछले 10 वर्ष के मोदी शासनकाल में कुल 5.54 लाख स्थायी नौकरियां सिर्फ केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में हो चुकी हैं।

यह सिलसिला रुका नहीं है, बल्कि इसमें बढ़ोत्तरी ही हुई है। मात्र 10 वर्षों के भीतर इन उपक्रमों में 40% स्थायी नौकरियों को खत्म किया जा चुका है। यही कारण है कि शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में बेहिसाब इजाफा होता जा रहा है। केंद्र सरकार न तो स्पष्ट रूप से बेरोजगार युवाओं को बता ही रही है कि उसने सार्वजनिक उपक्रमों में स्थायी रोजगार पर लगभग पूर्ण रोक लगा दी है, उन्हें 8-10 वर्षों तक एक के बाद के परीक्षाओं के लिए फॉर्म भरने की जरूरत नहीं है।

ऐसा भी नहीं है कि ये सभी सार्वजनिक उपक्रम घाटे में चल रहे हों, और देश पर आर्थिक बोझ बने हुए हों। वर्ष 2022-23 में इन्हीं सार्वजनिक उपक्रमों में से 10 चोटी की मुनाफा कमाने वाली कंपनियों का आंकड़ा पेश किया गया है, जिन्होंने कुल 2.41 लाख करोड़ रूपये का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया था। कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी के मद में भी सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी कहीं से भी कॉर्पोरेट से कम नहीं है।

वर्ष 2022-23 के दौरान पीएसयू की ओर से 4,128 करोड़ रुपये सीएसआर के तौर पर आवंटित किये गये थे। इतना ही नहीं केंद्र सरकार के खजाने में भी इन उपक्रमों का योगदान कहीं से भी कम नहीं है। वर्ष 2022-23 में एक्साइज ड्यूटी, कस्टम ड्यूटी, जीएसटी, कॉर्पोरेट टैक्स और ब्याज के तौर पर पीएसयूज ने केंद्र सरकार के खजाने में 4.58 लाख करोड़ रुपये का योगदान किया था।

7 सार्वजनिक उपक्रमों में 20,000 से अधिक नौकरियां कम हुई हैं

पिछले एक दशक के दौरान जिस एक सार्वजनिक उपक्रम में सबसे अधिक नौकरियों का नुकसान देखने को मिला है, वह है बीएसएनएल, जिसमें करीब 1.80 लाख से अधिक संख्या में नौकरियां गई हैं। एक दशक पहले तक देश में दूरसंचार सेवाओं में अग्रणी बीएसएनएल को घाटे में कैसे लाया गया, और आज तक जिसे 4जी मोबाइल सेवाओं को मुहैया कराने से वंचित रखा गया है, की कहानी स्पष्ट करती है कि कैसे निजी कॉर्पोरेट के हितों की सेवा के लिए खुद हमारे देश के नीति-नियंता सार्वजनिक उपक्रम का गला घोंट रहे हैं।

पिछले वर्ष से भारत में एक बार फिर मोबाइल, इंटरनेट की दरें बढ़ने लगी हैं, क्योंकि अब इस बाजार में कोई प्रतिस्पर्धा रही ही नहीं। एयरटेल और जिओ का बाजार पर लगभग पूर्ण नियंत्रण हो चुका है, वोडाफोन और बीएसएनएल तेजी से मर रही हैं। अभी से आशंका जताई जा रही है कि 2024 आम चुनाव के फौरन बाद ही मोबाइल, इंटरनेट की दरों में बड़ा इजाफा होने जा रहा है। दो दिन पहले ही खबर आई थी कि पिछले कई वर्षों से 4जी सेवाओं को मुहैया कराने के इंतजार में बैठी बीएसएनएल को अब दिसंबर 2024 तक इंतजार करना होगा।

बीएसएनएल के बाद स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया और एमटीएनएल का नंबर आता है, जिनमें से प्रत्येक में 30,000 से अभी अधिक नौकरियां कम हुई हैं।

इसमें टॉप 10 नेट वर्थ में स्थान रखने वाली स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया से भी नौकरियों को कम क्यों किया गया, यह बात समझ से बाहर है। वर्ष 2022-23 में चौथे स्थान पर काबिज सेल 51,987 करोड़ रूपये का विनिर्माण कर रही थी।

यही नहीं ओएनजीसी तक में नौकरियां बढ़ने के बजाय कम हुई हैं, जिसका रिकॉर्ड बेहद शानदार रहा है। ओएनजीसी ने वर्ष 2022-23 में 2.44 लाख करोड़ रूपये का उत्पादन किया था, और खनन क्षेत्र में यह देश की अग्रणी कंपनी थी। सरकार के खजाने में भी इस सार्वजनिक उप्रकम ने रिकॉर्ड 32,061 करोड़ रुपये का योगदान दिया था, जो पिछले वर्ष की तुलना में 90% अधिक था।

इसी प्रकार लाभांश देने के मामले में भी यह अपने क्षेत्र में अग्रणी कंपनी थी, और उसकी ओर से 17,612 करोड़ रूपये का लाभांश दिया गया था जो पिछले वर्ष की तुलना में 54% अधिक था। यह बताता है कि किस प्रकार सरकार खुद ही सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को हलाल करने पर तुली हुई है, जिसका असल मकसद निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी को लगातार बढ़ाने के सिवाय कुछ नहीं है।

सबसे अधिक रोजागर देने वाले पीएसयू ही निशाने पर

सिर्फ इंडियन आयल कारपोरेशन ही एकमात्र सार्वजनिक उप्रकम है, जिसने पिछले 10 वर्षों के दौरान बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार देने का काम किया है। पिछले दस वर्षों में आईओसीएल ने करीब 80,000 नई नौकरियां सृजित की हैं। इसके अलावा 10 और उपक्रम हैं, जिन्होंने 10,000 या उससे उधिक नौकरियां सृजित की हैं, जबकि 13 पीएसयू ऐसे हैं जिन्होंने 10,000 या इससे अधिक संख्या में नौकरियों में कमी की है।

केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की बैलेंस शीट बताती है कि घाटे के बजाय लाभ का प्रतिशत अभी भी बरकरार है, और इसमें वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं। लाभ कमाने वाली कंपनियों ने वर्ष 2022-23 की ओर से कुल 2.6 लाख करोड़ का मुनाफा कमाया गया था, जबकि घाटे पर चल रहे पीएसयू का कुल घाटा 1.5 लाख करोड़ रुपये था। देश में एक समय लाभ कमाने वाली एयर इंडिया के साथ इंडियन एयरलाइन्स के विलय और फिर उसे घाटे में डाल बाद के वर्षों में टाटा समूह को लगभग मुफ्त में बेच देने के सिलसिले को देश ने देखा है। यही हाल बीएसएनएल के साथ किया जा रहा है, और आम लोगों के बीच में इस धारणा को मजबूत किया जा रहा है कि सार्वजनिक उपक्रम घाटे का सौदा हैं, जिन्हें हर हाल में कॉर्पोरेट घरानों को बेचकर पीछा छुड़ाने में ही देश का भला होने वाला है। जबकि हकीकत यह है कि जिन क्षेत्रों में निजी कॉर्पोरेट समूह एकाधिकार की स्थिति में होंगे, वहां से मुनाफा वसूली का सीधा खामियाजा देश की 142 करोड़ जनता पर होगा। सार्वजनिक उपक्रम अपने लाभांश के एक बड़े हिस्से को अपने कर्मचारियों, सरकार, सरकारी खजाने को टैक्स और सीएसआर में चुकाते आये हैं।

प्रतियोगी परीक्षा के झांसे में करोड़ों युवाओं की बर्बाद होती जवानी

अभी कल रविवार के दिन ही प्रयागराज में सिपाही भर्ती की परीक्षा देने के बाद रेलवे स्टेशन पर परीक्षार्थियों से खचाखच भरे प्लेटफार्म पर तिल रखने की जगह नहीं थी, यह दृश्य आज वहां के स्थानीय समाचार पत्रों में सुर्खी बना हुआ है। पूरे प्रयागराज से नैनी और फाफामऊ में दिनभर भयंकर जाम की स्थिति रही। बड़ी देर में रेलवे प्रशासन जागा, और अंत में बिहार, झांसी और दिल्ली रूट के लिए 5 स्पेशल ट्रेन का इंतजाम कर भीड़ को कम किया जा सका। पूरे पूर्वांचल के लिए चलने वाली सार्वजनिक परिवहन की बसों ने अतिरिक्त फेरे लगाकर परीक्षार्थियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाया।

लेकिन यह तो सिर्फ एक बानगी है। देश में प्रतियोगी परीक्षाओं को संचालित करने वाले केंद्रीय और राज्य बोर्ड एक-एक फॉर्म से करोड़ों रुपयों की वसूली कर रहे हैं। परीक्षा के साथ ही पेपर लीक, पुनः परीक्षा और कई-कई साल बाद परिणाम, ज्वाइनिंग लेटर और उसके साथ ही परीक्षा परिणामों में धांधली को लेकर मामला कोर्ट में लंबित होने के किस्सों को सारा देश आये दिन देख रहा है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments