Saturday, April 20, 2024

मजदूर दिवस पर विशेष: अमेरिकी जनतंत्र को सर्वोत्तम समझने वाले सर्वोत्तम ‘अमेरिकन’ के मोहभंग की इतिहास कथा  

[एक आदमी से बारह‌ घंटे काम लो और जितना ख़र्चे के लिए जरूरी हो उसका आधा ही दो और उम्मीद करो कि वह लगन और ईमानदारी से वोट देगा। मैं कहता हूं, अगर बच्चे भूखे मरेंगे तो उसके वोट बेचने पर आश्चर्य कैसा? – पार्सन्स

दुनिया को अमेरिका के माध्यम से जनतंत्र मिला, अमेरिका के ही माध्यम से समाजवाद मिलेगा– उसे वह‌ जीवन मिलेगा जिसके लिए भगवान ने ज़िन्दगी बनाई। – डेब्स]

1914 में जन्मे महान‌ अमेरिकी कहानीकार और उपन्यासकार ‘हावर्ड फास्ट’ के मशहूर उपन्यासों- ‘आदिविद्रोही’, ‘समरगाथा’, ‘मुक्तिपथ’, ‘सिटिजन टाॅमपेन’ के लिए हम जानते हैं परन्तु उनका एक और मशहूर उपन्यास ‘अमेरिकन’ जो मई दिवस की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था, उसके बारे में लोग कम ही जानते हैं, इसका कारण यह है कि यह उपन्यास अमेरिकी जनतंत्र और न्याय व्यवस्था के ढोंग को उजागर करता है। शीत युद्ध के दौरान कुख्यात मैकार्थी काल में अन्य अमेरिकी प्रगतिशील लेखकों के साथ-साथ हावर्ड फास्ट को भी कम्युनिस्ट होने के कारण अमेरिका में जेल जाना पड़ा था।

वे पहले कम्युनिस्ट होने के कारण विवादों में रहे फिर पार्टी छोड़ने के कारण। करीब छः दशकों तक वे कहानियां, उपन्यास, कविताएं, समीक्षा और अख़बारों के लिए लिखते रहे, पर उनको साहित्य में स्थान एक इतिहास-कथाकार के रूप में मिला। उनके महत्वपूर्ण उपन्यास ‘स्पार्टकस’ के बारे में सभी जानते हैं। उन्होंने इस पुस्तक में ईसा से करीब 75 वर्ष पहले रोम में हुए उस ग़ुलामों के विद्रोह को ‌इस तरह प्रस्तुत किया कि वे ज़ुल्म और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने वालों के लिए प्रेरणा का सार्वकालिक स्रोत बन गए।

उन्होंने अमेरिकी समाज के तीन ऐसे समुदायों की जन्मजात वंचनाओं को उजागर किया है, जिनको पूरी तरह अमेरिकन नहीं माना गया- ‘लास्ट फ्रंटियर’ में मूलनिवासी रेड इण्डियन, ‘फ्रीडम रोड’ में अश्वेत और ‘द अमेरिकन’ में ऐसे अमेरिकी, जिनका जन्म अमेरिका में नहीं हुआ था। ऐसा करना उनके साहित्य सृजन के सामान्य लक्ष्य का अंग था। ‘द रैडिकल नावेल इन द युनाइटेड स्टेट्स’ में ‘वाल्टर राइड’ ने लिखा है- “अमेरिका में वाम लेखन की परंपरा में अपटन सिन्क्लेयर के बाद फास्ट ने ही उल्लेखनीय योगदान किया।

दोनों ने‌ ही उपन्यास को संदेश का वाहक बनाया। दोनों ने अपने राजनीतिक विश्वासों और जीवन को लेखन का अंग बनाया और साहित्यिक सृजन की कीमत जेल तक जाकर चुकायी। दोनों को अपने ही देश में नहीं, सारी दुनिया में लोकप्रियता मिली। अपटन सिन्क्लेयर का मुख्य योगदान है समकालीन इतिहास को उपन्यास में स्थापित करना, तो फास्ट ने सिद्ध किया कि इतिहास-कथा जैसी स्थापित विधा को सुविचारित लक्ष्य के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है।”

हावर्ड फास्ट की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द अमेरिकन’ पहली बार 1946 में प्रकाशित हुई थी, जिसकी पृष्ठभूमि 1884 में अमेरिका में शुरू हुआ मज़दूर आन्दोलन था, जिसमें दुनिया में पहली बार “आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम” का नारा दिया गया था। वह संघर्ष जिसमें ‘म‌ई‌ दिवस’ का जन्म हुआ। अमेरिका में 1884 में ‘काम के घंटे आठ करो’ आन्दोलन शुरू हुआ।

18 मई, 1882 में ‘सेन्ट्रल लेबर यूनियन ऑफ न्यूयार्क’ की एक बैठक में ‘पीटर मैग्वार‌’ ने एक प्रस्ताव रखा, जिसमें एक दिन ‘मज़दूर उत्सव’ मनाने की बात कही गई थी। उसने इसके लिए सितम्बर के‌ पहले सोमवार का दिन सुझाया। यह वर्ष का वह समय था, जो‌ ‘जुलाई’ और ‘धन्यवाद देने वाला‌ दिन’ के बीच में पड़ता था। भिन्न-भिन्न व्यवसायों के 30,000 से भी अधिक मज़दूरों ने 5 दिसम्बर को न्यूयार्क की सड़कों पर परेड निकाली और यह नारा दिया कि “8 घंटे काम के लिए, 8 घंटे आराम के लिए तथा 8 घंटे हमारी मर्जी पर।” इसे 1883 में पुनः दोहराया गया।

1884 में न्यूयार्क सेंट्रल लेबर यूनियन ने मज़दूर दिवस परेड के लिए सितम्बर माह के पहले सोमवार का दिन तय किया। यह सितम्बर की पहली तारीख को पड़ रहा था। दूसरे शहरों में भी इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाने के लिए कई शहरों में परेड निकाली गई। मज़दूरों ने लाल झंडे, बैनरों तथा बाजूबंदों का प्रदर्शन किया।

सन 1884 में एफ़ओटीएलयू ने हर वर्ष सितम्बर के पहले सोमवार को मज़दूरों के राष्ट्रीय अवकाश मनाने का निर्णय लिया। 7 सितम्बर, 1883 को पहली बार राष्ट्रीय पैमाने पर सितम्बर के पहले सोमवार को ‘मज़दूर अवकाश दिवस’ के रूप मनाया गया। इसी दिन से अधिक से अधिक राज्यों ने मज़दूर दिवस के दिन छुट्टी मनाना प्रारम्भ किया।

इसी आन्दोलन में 4 मई को रात 8 बजे मज़दूरों के नेता ‘स्पाइस’ और ‘पार्सन्स‌’ ने मज़दूरों का आह्वान किया कि वे एकजुट होकर पुलिस-दमन का सामना करें। तीसरे वक्ता सैमुअल जब बोलने के लिए खड़े हुए, तब रात के 10 बज रहे थे। ज़ोरों की बारिश शुरू हो गई थी, उस समय मज़दूर नेता पार्सन्स अपने परिवार के साथ घर जा चुके थे। मीटिंग करीब-करीब ख़त्म हो गई थी, उसी समय करीब 180 पुलिस वालों का एक जत्था धड़धड़ाते हुए ‘हे मार्केट’ पहुंचा तथा उन लोगों ने मीटिंग में शामिल लोगों को चले जाने का हुक्म दिया।

‘सैमुअल फ़ील्डेन’ पुलिस वालों को यह बताने की कोशिश कर रहे थे, कि यह शान्तिपूर्ण सभा है, इसी बीच किसी ने मानो इशारा पाकर एक बम फेंक दिया। आज तक बम फेंकने वाले का पता नहीं चल पाया है। यह माना जाता है कि बम फेंकने वाला पुलिस का भाड़े का टट्टू था। स्पष्ट था कि बम का निशाना मज़दूर थे, लेकिन शिकार पुलिस भी बनी। कई मज़दूर और पुलिस वाले मारे गए, कई लोग घायल हुए, फिर तो पुलिस का ताण्डव शुरू हो गया।

पगलाये पुलिस वालों ने चौक को चारों ओर से घेरकर भीड़ पर अन्धाधुन्ध गोलियां चलानी शुरू कर दीं। जिसने भी भागने की कोशिश की, उस पर गोलियां और लाठियां बरसाई गईं। ‘हे स्क्वायर’ ख़ून से लथपथ हो‌ गया। छ: मज़दूर मारे गए और 200 से ज्यादा ज़ख़्मी हुए। इलाका चौतरफ़ा मज़दूरों के ख़ून से लथपथ था, लेकिन मज़दूरों का जोश क़ायम था। एक घायल मज़दूर ने अपने ख़ून से रंगे कपड़े को लहरा दिया, जो मज़दूरों का लाल झण्डा बन‌ गया।

उसके बाद की कहानी सभी जानते हैं। पूंजीवादी न्याय का ढकोसला किया गया। मज़दूरों को अराजकतावादी ठहराया गया तथा ‘हे मार्केट’ में बम फेंककर एक पुलिस वाले की हत्या के आरोप में 20 अगस्त 1887 को शिकागो की अदालत ने अपना फ़ैसला दिया। सात लोगों– अल्बर्ट पार्सन्स, आगस्ट स्पाइस, जार्ज एंजेल, एडाल्फ़ फ़िशर, सैमुअल फ़ील्डेन, माइकेल श्वास, लुइस लिंग्ग को सज़ा-ए-मौत और ऑस्कर नीबे को पन्द्रह साल की बामशक्कत क़ैद की सज़ा दी ‌गई।

उस वक़्त स्पाइस ने अदालत में ‌चिल्लाकर कहा‌ था कि “अगर तुम सोचते हो कि हमें फांसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को; ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करने में लगे लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर‌ यही तुम्हारी राय है– तो खुशी से हमें फांसी दे दो, लेकिन याद रखो; आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो, लेकिन यहां-वहां, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने‌ हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी नहीं बुझा पाओगे।”

मज़दूर नेताओं को दी गई यह सज़ा अमेरिकी जनतंत्र और स्वाधीनता की अवधारणा को ख़ारिज़ करती है, जिसका उद्घोष अमेरिका की स्वतंत्रता के घोषणापत्र में किया गया था। ‘द अमेरिकन’ उपन्यास का नामक ‘आल्टगेल्ड’; स्वयं एक‌ जज था तथा उस जूरी का सदस्य था, जिसने इन मज़दूर नेताओं को फांसी दी थी। यह उपन्यास उसी के द्वंद्व की कथा है, जो एक पूंजीवादी समाज में न्याय और जनतंत्र की अवधारणाओं पर गम्भीर प्रश्न खड़ा करता है।

‘आल्टगेल्ड‌’ जो एक प्रवासी अमेरिकन था तथा समाज के एक बहुत निम्न तबके से उच्चवर्ग तक पहुंचा‌ था। यही कारण है कि वह अपनी उपलब्धियों से अमेरिका को अवसरों का देश‌‌ सिद्ध करता है।‌ उसका विश्वास है कि अमेरिकी जनतंत्र मनुष्य द्वारा अब तक आविष्कृत व्यवस्थाओं में सर्वोत्तम है। उसे झटका तब लगता है, जब वह समझ जाता है कि पार्सन्स जैसे निरपराध व्यक्तियों को जानबूझकर षड्यंत्र करके फांसी दी गई। तब भी वह उस व्यवस्था में आस्था बनाए रखता है, जिसने उसको पाला‌-पोसा है।

वह सोचता है कि मतदाताओं को समझाया जा सकता है कि उनके वोट हथौड़े बन सकते हैं। वह डेमोक्रेटिक पार्टी को फिर से जेफर्सन की पार्टी बनाना चाहता है। वह पार्टी पर पूंजीपतियों के प्रभुत्व को ख़त्म करना चाहता है और इसमें एक हद तक सफल भी होता है। वह देश-समाज की समस्याओं का हल जेफर्सन और लिंकन जैसे लोगों में ही ढ़ूंढता है, पर जब वहां उसे राह नहीं दिखती, तो समाजवादी नेता ‘डेब्स’ से मिलता है, परन्तु वह अपनी व्यवस्था में आकण्ठ डूबा रहता है और बार-बार दोहराता रहता है कि वह समाजवादी नहीं है।

फिर भी एक बार मूलभूत सवाल उठा देने के बाद व्यवस्था के कर्णधार उसे माफ़ नहीं करते और उसे नेस्तनाबूद करने के लिए कुछ भी करने से संकोच नहीं करते। पराजयों और वंचनाओं से जूझता ‘आल्टगेल्ड’ खुलकर मेहनतकशों के पक्ष में खड़ा हो जाता है। वह यद्यपि इसे नहीं स्वीकारता है। उसका साथी कहता है,”जो तुम कह रहे हो, वह सोशलिज्म है।”

अमेरिकी व्यवस्था ‌जेफर्सन‌ और लिंकन को तो स्थापित किए हुए है, पर उसने उन्हीं के आजीवन अनुयायी आल्टगेल्ड का तो विध्वंस किया ही, उसके इतिहास पर भी पर्दा डाले हुए है। कारण स्पष्ट है आल्टगेल्ड को जेफर्सन और लिंकन का जनतंत्र अपर्याप्त लगने लगा था और वह आगे जाकर बेहतर व्यवस्था तलाशने लगा‌ था।

मई दिवस की पृष्ठभूमि पर हावर्ड फास्ट का लिखा यह उपन्यास मुझे उनके उपन्यासों में सर्वोत्तम लगता है। दुर्भाग्य से आज यह उपन्यास अमेरिका तक में खोजे नहीं मिलता। इस उपन्यास के हिन्दी अनुवादक ‘लाल बहादुर वर्मा’ ने इसे खोजकर इसका हिन्दी अनुवाद किया। सारे उपन्यास में एक तरह का रचनात्मक तनाव व्याप्त है।

फास्ट ने इसके उपयुक्त ही शैली और विन्यास चुना है, उसे हिन्दी में ज्यों का त्यों रूपांतरित कर पाना बहुत ही कठिन काम है, फिर भी अनुवादक ने बहुत ही कुशलता से इसका अनुवाद किया है, जो कि लगातार पाठक को बांधे‌ रखता है। निश्चित रूप से इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।

(स्वदेश कुमार सिन्हा का लेख)

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