Friday, April 19, 2024

अडानी के कोयला खनन की वजह से भारत में 14 संघर्ष केंद्र बन गए हैं: अडानी वॉच

हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आने के बाद भारत में अडानी ग्रुप चारों तरफ से घिर गया है। लेकिन एक और देश है जहां समूह को खासी मुख़ालफ़त का सामना करना पड़ा था। ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड में कार-माइकल माइन के मामले में पर्यावरण कार्यकर्ताओं का एक बेहद संगठित और मज़बूत आंदोलन दुनिया ने देखा था। उनके विरोध की वजह से अडानी ग्रुप के प्रोजेक्ट की क्षमता सीमित हो की गई थी और वहां ग्रुप अपनी गतिविधियां अब नाम बदलकर कर रहा है। ऐसा ही एक ग्रुप है ‘अडानी वॉच’। अडानी वॉच के को-ऑर्डिनेटर और एडीटर जेफ़ लॉ से जनचौक की कंट्रीब्यूटिंग एडिटर अल्पयू सिंह ने लंबी बात की। पढ़िए पूरी बातचीत...

अल्पयू- अडानी वॉच कैंपेन क्या काम करता है? ये कब और कैसे अस्तित्व में आया?

जेफ़- अडानी वॉच बॉब ब्राउन फाउंडेशन नाम के एक पर्यावरण ग्रुप की ओर से 2019 में बनाया गया था। ये उस अभियान का हिस्सा था जिसके तहत अडानी ग्रुप ऑस्ट्रेलिया में बडी कोयला खान बनाने की कोशिश कर रहा था। हमें इस बात की ज़रूरत महसूस हुई कि हमें ना सिर्फ ऑस्ट्रेलिया बल्कि बाहर भी इसे लेकर जागरूकता फैलानी शुरू करनी चाहिए।

जैसे कि भारत में अडानी ग्रुप की कोयला खान प्रोजेक्ट्स का बड़ा व्यापक असर यहां के पर्यावरण और आदिवासियों पर भी हो रहा है। ग्रुप के भारत में ऑपरेशन्स ना सिर्फ कई तरह के संकटों को जन्म दे रहे हैं बल्कि क्लाइमेट चेंज को भी बढ़ावा दे रहे हैं। इस तरह के स्कैंडल्स की तरफ़ पब्लिक का ध्यान दिलाया जाना ज़रूरी था।

अल्पयू- हमें बताइये कि किस तरह ये ग्रुप क्वींसलैंड के कार-माइकल खान में पारिस्थितिक और पर्यावरण संबंधी संघर्षों को जन्म दे रहा था?

जेफ़- पहली बात तो ये कि प्रारंभिक प्लानिंग ऐसे कोयला खनन प्रोजेक्ट की थी जिससे 50 मिलियन टन सालाना का खनन किया जा सके। हालांकि प्रोजेक्ट के खिलाफ चले विरोध प्रदर्शन और कैंपेन के बाद प्रोजेक्ट को थोड़ा पीछे हटना पड़ा। अब इसकी क्षमता 10 मिलियन टन सालाना है।

लेकिन सालाना 10 मिलियन टन कार्बन डाइ-ऑक्साइड और एसोसिएटेड मीथेन का हवा में जाना भी कम खतरनाक बात नहीं, वो भी तब जबकि दुनिया क्लाइमेट चेंज के मसले से जूझ रही है। इसके अलावा इन प्लांट्स के पास वाले इलाकों में विलुप्त होने वाली प्रजातियों, जल और आदिवासियों के जीवन पर भयंकर प्रभाव पड़ते हैं।

इस तरह के संकट से भारत के लोग रोज़ाना जूझ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगलों में अडानी ग्रुप पहले ही दो बड़े कोयला खनन के प्रोजेक्ट्स को ऑपरेट कर रहा है। वहीं तीसरे प्लांट की प्लानिंग की जा रही है। इन लोगों पर इस तरह के प्रोजेक्ट्स का ऐसा प्रभाव पड़ता है जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते।

लोग अपने पूर्वजों की जमीन से बेदखल होते हैं। ये ऐसे जंगल हैं, जिनसे आदिवासियों का बेहद करीब का रिश्ता है। इससे ना सिर्फ उनके प्रकृति के साथ उनके रिश्ते, बल्कि उनकी जीवनशैली और अजीविका पर भी असर पड़ेगा। जीवन जीने का उनका परंपरागत तरीका खत्म हो जाएगा।

ये वंचित तबके से संबंध रखने वाले लोग हैं। उनके लिए इस तरह के कॉरपोरेट के सामने अपने हक के लिए खड़े होना आसान नहीं है। अडानी वॉच का एक मिशन ऐसे लोगों को आवाज़ देना है ।

अल्पयू- आपने अपने एक आर्टिकल में लिखा है कि अडानी के कोल प्रोजेक्ट्स की वजह से भारत में 14 संघर्ष केंद्र बन गए हैं, ज़रा विस्तार से समझाएं?

जेफ़- हसदेव जंगल की बात तो हमने अभी की ही है, ये इलाका गोंड आदिवासियों का घर है। ओडिशा की तालाबीरा और झारखंड के गोंदुलपुरा में भी ऐसे ही सवाल खड़े हो रहे हैं। स्थानीय लोगों के जीवन पर ये कोयला खान बहुत भारी पड़ते हैं। जंगल तबाह होते हैं, पानी की सप्लाई पर असर पड़ता है और लोगों के पास शहरों में विस्थापन करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता, लोग अपना घर और गांव छोड़कर शहरों के इर्द- गिर्द सिमटते हैं।

ये पूरी प्रक्रिया गांवों के अस्तित्व और वाइल्डलाइफ के लिए हानिकारक है। मध्यप्रदेश से लेकर उडूपी तक, कई जगह स्थानीय लोगों के जीवन पर बुरा असर पड़ रहा है। लेकिन खास बात ये है कि अडानी वॉच के साथ काम करते हुए मुझे ऐसे लोगों के संपर्क में आने का सौभाग्य मिलता है, जो इस शक्तिशाली कॉरपोरेट के सामने खड़े होकर अपने हक़ की बात कर रहे हैं।

वो भी ऐसे समय में जबकि भारत में प्रेस फ्रीडम और दूसरी लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं पर अंकुश है। लेकिन इसके बावजूद लोग खड़े हो रहे हैं, अपने पर्यावरण के लिए, अपने लोगों के लिए और ये कहानियां बेहद प्रेरणादायक हैं।

अल्पयू- आपने हसदेव के जंगलों की बात की, मैं कहीं पढ़ रही थी कि आपने लिखा है कि ‘मैं चाहता हूं कि भारत सरकार और अडानी ग्रुप हसदेव के जंगलों का महत्व समझें और इस इलाके से पीछे हट जाएं’, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?

जेफ़- वनस्पति के लिहाज़ से ये बेहद सृमद्ध जंगल हैं। ये जंगल तरह-तरह की प्रजातियों का घर हैं। हाथी समेत कई तरह के जीव जंतु यहां सदियों से रह रहे हैं। इसके साथ ही ये गोंड आदिवासियों का कई सदियों से घर है। ये लोग इन जंगलों के संरक्षक की भूमिका निभाते रहे हैं।

आदिवासी भोजन, अजीविका, दवा और बाकी सब चीज़ों के लिए जंगल पर निर्भर हैं। इनका अस्तित्व जंगल से जुड़ा है, इनकी संस्कृति, इनका अस्तित्व सब कुछ ये जंगल समेटे हैं। खनन से इन जंगलों की शांत मद्धम गति के जीवन में खलल पड़ता है।

यही वजह है कि सरकार ने साल 2011 में इन जंगलों को कोयला खनन के लिए No Go Zone घोषित किया था। पर खनन के मद्देनज़र ऐसे निर्देशों को कब का भुला दिया गया है। हसदेव के अलावा मध्यप्रदेश, ओडिशा और झारखंड में भी कोयला खनन को लेकर योजनाएं हैं।

ये प्रोजेक्ट वातावरण और धरती पर बड़े बोझ की तरह साबित होते हैं । ये वैसे तो सभी के लिए दुखदायी है लेकिन जो लोग वहां रह रहे हैं उनके लिए ये खासतौर से ज्यादा दिक्कत भरी बात है ।

अल्पयू- आप हिंडनबर्ग रिपोर्ट से उपजे विवाद के बारे में तो जानते होंगे? क्या रिएक्शन है आपका?

जेफ़ अडानी ग्रुप कर्ज़ को आधार बनाकर अपने साम्राज्य को बढ़ा रहा है और इसे लेकर वो हमेशा निशाने पर रहा है। ग्रुप एक के बाद एक बिजनेस का अधिग्रहण कर रहा है। डिफेंस इंडस्ट्री से लेकर मीडिया तक में इसकी गहरी पैठ बन रही है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने इस बात पर नज़र डाली है कि मॉरिशस और साइप्रस जैसे टैक्स हेवेन्स में shady कंपनियों की मदद से स्टॉक मार्केट मैनिपुलेशन की जा रही है।

लेकिन अडानी ग्रुप के बारे में इसके अलावा भी ऐसा बहुत कुछ है जो परतों में छिपाया गया है। अडानी वॉच ने ऐसी कुछ न्यूज़ स्टोरीज़ जुलाई 2020 में दुनिया के सामने रखी थीं।

फ्री लांस जर्नलिस्ट रवि नायर ने इस मामले को बहुत गहराई से इन्वेस्टिगेट किया था। लेकिन इन रिपोर्ट्स की वजह से ये पत्रकार दिक्कत में आ गए। कुछ के ऊपर अडानी ने मानहानि के केस डाल दिए या फिर कई लोगों के ऊपर गैग ऑर्डर जारी कर दिया गया।

अल्पयू- आपने अपने आर्टिकल में लिखा है कि अगर अडानी ग्रुप पर ज्यादा दबाव बनाया जाए, तो वो पीछे हटते हैं, क्या आप ऐसा सोचते हैं?

जेफ़ हमें इस मामले में हसदेव जंगलों के लिए लड़ रहे लोगों और केरल में मछुआरों की हिम्मत की दाद देनी चाहिए। ये लोग वहां अडानी पोर्ट बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं। छिंदवाड़ा के कार्यकर्ता हों या फिर उडूपी के। लोग विरोध कर रहे हैं। अपने हक के लिए खड़े हो रहे हैं। ये सारी ग्लोबल चिंताए हैं।

अल्पयू- आप ऑस्ट्रेलिया में अडानी के खिलाफ विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं के संघर्ष के बारे में क्या कहेंगे?

जेफ़- ये बहुत बड़ा आंदोलन था। लोगों ने कोयला खनन का खुलकर प्रतिरोध किया। नतीजतन कई निवेशकों ने प्रोजेक्ट से हाथ खींचे। लेकिन खनन तो फिर भी हो रहा है। हालांकि उनके ब्रांड को नुकसान तो हुआ है। ऑस्ट्रेलिया में ग्रुप को नाम बदलकर काम करना पड़ रहा है।

हिंडनबर्ग के खुलासे और भारत में कोयला खनन की वजह से पैदा हुए संघर्ष का प्रभाव इनके ग्रुप की साख पर पड़ेगा, ना सिर्फ भारत में बल्कि भारत के बाहर भी।

अल्पयू- ग्रुप ये कहता है कि आप ब्रांड को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं?

जेफ़- हमारी चिंता पर्यावरण को लेकर है, लोगों के विस्थापन को लेकर है। हमारी चिंताए परंपरागत जीवन जी रहे आदिवासियों के साथ है। दिक्कत ये है कि ऐसी चिंताए उठाने वाले पत्रकारों पर कार्रवाई की गई। इसीलिए लोग ऐसे मुद्दे उठाने से हिचकते हैं। लेकिन अडानी वॉच अपना सहयोग करता रहेगा।

अडानी वॉच के को-ऑर्डिनेटर और एडीटर जेफ़ लॉ से जनचौक की बातचीत यूट्यूब के इस लिंक पर सुन सकते हैं…

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