हरियाणा की अप्रत्याशित पराजय के बाद महाराष्ट्र में जीतना विपक्ष के लिए बना जीवन-मरण का प्रश्न

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महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों के लिए 20 नवंबर को मतदान होने जा रहा है। नतीजे 23 नवंबर को आयेंगे। कहना न होगा कि देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य, जिसमें देश की आर्थिक राजधानी भी है, में होने जा रहे चुनाव का महत्व बहुत बढ़ गया है, विशेषकर हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत के बाद।

इससे उत्साहित भाजपा और महायुति गठबंधन महाराष्ट्र में युद्धस्तर पर मैदान में उतर चुका है। प्रधानमंत्री के ताबड़तोड़ दौरे हो रहे हैं।

राज्य सरकार तमाम नई लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा करती गई। बताया जा रहा है कि एक महीने के अंदर सौ से अधिक नए फैसले लिए गए। लड़कियों के लिए योजना की धनराशि 1500 रुपये से बढ़ाकर 3000 रुपये कर दी गई है।

मुंबई में प्रवेश करने वालों के लिए टोल टैक्स खत्म कर दिया गया है। दरअसल, हरियाणा के नतीजे आने के पहले तक भाजपा हतोत्साहित थी क्योंकि लोकसभा के नतीजे उसके लिए किसी धक्के से कम नहीं थे।

महाराष्ट्र में भी 48 में से उसके गठबंधन को मात्र 17 सीटें मिलीं थीं जबकि विपक्षी गठबंधन को 30सीटें हासिल हुई।

भाजपा की सीटें पिछली बार के 23 से घटकर केवल 9 रह गईं, जबकि अजीत पवार को केवल एक सीट और शिंदे की शिव सेना को सात सीटें ही मिलीं। जबकि पिछली बार 2019 में शिवसेना से गठबंधन में उसे 41 सीटें मिली थीं।

बीच में यह भी अफवाह थी कि अजीत पवार फिर से एनसीपी में वापस लौट रहे हैं। लेकिन हरियाणा चुनाव से भाजपा और महायुति को मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल हुई है, विपक्ष न सिर्फ हतोत्साहित है बल्कि आपस में आरोप प्रत्यारोप भी तेज हो गए हैं।

दरअसल हरियाणा और महाराष्ट्र में जाहिरा तौर पर एक समानता भी है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने वहां भी अच्छा परफॉर्मेंस किया था। उसने 2019 की तुलना में आधी सीटें भाजपा से छीन ली थीं, इसके बावजूद वह विधानसभा चुनाव में खेत रही।

इसी तरह महाराष्ट्र में MVA लोकसभा में भले बड़ी जीत दर्ज करने में सफल रही लेकिन क्या इस परफॉर्मेंस को वह विधानसभा में दोहरा पाएगी। यह बड़ा यक्ष प्रश्न बना हुआ है।

विपक्ष ने पिछली बार संविधान की रक्षा, आरक्षण, जाति जनगणना को मुद्दा बनाया था जिसका उसे लाभ मिला, दलित समुदाय में उसके पक्ष में अच्छी वोटिंग हुई, वहीं आरक्षण के सवाल पर आंदोलित मराठा समुदाय में भी उसे बड़ा समर्थन मिला।

इस बार क्या इन मुद्दों का लोकसभा चुनाव जैसा ही असर होगा? महायुति पिछड़ों और सवर्णों के कंसोलिडेशन, मराठों के एक हिस्से के समर्थन तथा अपनी लोकलुभावन योजनाओं के बल पर चुनाव फतह करना चाहेगी।

बहरहाल इन चुनावों में शायद और गहराई से इस बात की भी परीक्षा होगी कि जनता किसे असली शिवसेना मानती है और किसे तोड़क, इसी तरह किसे असली एनसीपी मानती है और किसे नकली। कानूनी तौर पर जो हिस्से असली बन गए हैं, देखना रोचक होगा कि जनता उन पर अपने जनादेश की मुहर लगाती है या उन्हें रिजेक्ट करती है।

मुख्यमंत्री के चेहरे का सवाल भी दोनों गठबंधनों में उलझा हुआ है। संभव है दोनों ही गठबंधन चुनाव के पहले इसकी घोषणा से बचें। वैसे विश्लेषकों का मानना है कि एमवीए अगर उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दे तो उसे नेट लाभ हो सकता है।

बहरहाल महाराष्ट्र झारखंड चुनाव और यूपी उपचुनावों की तैयारी केवल उन राज्यों और सीटों पर नहीं हो रही है। देश के अलग -अलग इलाकों में जिस तरह दंगाई माहौल बनाया जा रहा है, वह भी इसी तैयारी का हिस्सा लगता है। जिस तरह मोदी योगी और भागवत लगातार हिंदू एकता के लिए बयान दे रहे हैं, वह बेहद चिंताजनक है।

उनकी भाषा बेहद उत्तेजक है। मोदी ने कहा कि हम बटेंगे तो लोग महफिल सजाएंगे। यह जाहिर तौर पर मुस्लिम समाज और विपक्ष को लक्ष्य करके कहा गया। इसी तरह योगी का यह कहना कि हिंदू बटेंगे तो कटेंगे। कौन काटेगा? क्यों काटेगा? इन सवालों का क्या जवाब है?

आखिर मुख्यमंत्री क्या कहना चाहते हैं? जाहिर है यह जुमलेबाजी एक समुदाय विशेष की ओर इंगित है और बेहद उकसावामूलक है। इसी तरह मोहन भागवत का बारम्बार हिंदू एकता का आह्वान भी उसी नैरेटिव को पुष्ट कर रहा है।

दरअसल भागवत की बातें और योगी मोदी के बयान एक दूसरे के पूरक हैं। ऐसी बयानबाजी ही वह जमीन तैयार कर रही है जिसमें बहराइच जैसी घटनाएं घट रही हैं।

बहराइच के ग्रामीण इलाके में प्रतिमा विसर्जन कार्यक्रम में जिस तरह के उत्तेजक नारे लगाए गए और गाने बजाए गए उन्होंने वहां मुस्लिम आबादी में जिस प्रतिक्रिया को जन्म दिया होगा उसकी कल्पना की जा सकती है।

इसी बीच वहां एक नौजवान का एक मुस्लिम के घर पर चढ़कर उनका झंडा हटाकर अपना झंडा लगाना सारी सीमाओं का अतिक्रमण था। इसी दौरान उस नौजवान की दुखद हत्या हो गई।

आश्चर्यजनक यह है कि यह सब पुलिस की उपस्थिति में हुआ। आखिर पुलिस ने यह सब क्यों नहीं रोका, वह मूकदर्शक क्यों बनी रही? उसके बाद लोगों ने जैसे कानून अपने हाथ में ले लिया। आगजनी होने लगी। अल्पसंख्यक समुदाय के घर और मकान जलाए गए।

हजारों की भीड़ ने हथियारों के साथ प्रदर्शन किया। यह सब कुछ फिर पुलिस की उपस्थिति में हुआ जो पहले की तरह मूकदर्शक ही रही। अब दो लोगों का इनकाउंटर हुआ है और एकतरफा मुसलमानों की गिरफ्तारी हो रही है।

जाहिर है ये वारदातें योगी के कानून व्यवस्था के दावे की धज्जियां उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं। इसी तरह की घटनाएं देश के और इलाकों में भी घट रही हैं। मकसद साफ है आगामी चुनावों में ध्रुवीकरण के यह सब काम आयेगा।

दरअसल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल कहां तक जा सकता है और इसके राजनीतिक नतीजे कितने दूरगामी हो सकते हैं, इसे देश गोधरा के बाद गुजरात और मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उत्तरप्रदेश में देख चुका है।

दोनों के ही लाभार्थी नरेन्द्र मोदी रहे। हालांकि राजनीतिक संदर्भ अलग है। योगी के सामने अपने राज्य में कानून व्यवस्था को बनाए रखने की चुनौती भी है जिसके लिए वे हमेशा अपनी पीठ थपथपाते रहे हैं।

इधर खबर आई है कि यूपी और उत्तराखंड में खाने में थूकने के खिलाफ कानून बनाया जा रहा है। इसका क्या औचित्य है यह कानून बनाने वाले ही बता सकते हैं। अगर कोई ऐसा कृत्य कर रहा है तो क्या पहले से मौजूद कानूनों से उसे दंडित नहीं किया जा सकता?

जाहिर है यह पूरी कवायद समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत पैदा करने के उद्देश्य से प्रेरित है और तमाम अन्य काले कानूनों की तरह इस कानून के दुरुपयोग के माध्यम से लोगों का उत्पीड़न होगा।

ठीक इसी तरह महाराष्ट्र में चुनाव के मद्देनजर वहां के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने वोट जिहाद का शिगूफा छोड़ा है। उन्होंने आरोप लगाया है कि लोकसभा चुनाव में 48 में से 14 सीटें हम वोट जिहाद के कारण हार गए। इस उकसावामूलक बयान के माध्यम से वे निशाना साध रहे हैं कि जेहादी भावना के साथ एकजुट होकर मुसलमानों ने हमें हरा दिया!

लेकिन इसी तरह जब किसी अन्य तबके समुदाय के लोग भाजपा के लिए वोट करते हैं, तो उनके लिए इसे प्रयोग नहीं किया जाता। यह घोर आपत्तिजनक बयान है और यह स्वागतयोग्य है कि चुनाव आयोग ने इसका त्वरित संज्ञान लिया है और ऐसी बयानबाजी पर कानून सम्मत कार्रवाई की चेतावनी दिया है।

इसके पहले लव जिहाद का हल्ला हम सुन चुके हैं। जाहिर है यह सारी कवायद आसन्न चुनाव में ध्रुवीकरण के उद्देश्य से की जा रही है।

जाहिर है हरियाणा की जीत से उत्साहित भाजपा दोनों राज्यों तथा उपचुनावों विशेषकर यूपी में जीतने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखेगी। उसके लिए सोशल इंजीनियरिंग, लोकलुभावन वायदे और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खुल कर खेल होगा। क्या विपक्ष एकजुट होकर ठोस जनपक्षधर नीतियों और कार्यक्रम के आधार पर इस सबकी काट कर पाएगा।

हरियाणा की अप्रत्याशित हार के बाद महाराष्ट्र के चुनावों में जीतना विपक्ष के लिए जीवन मरण का प्रश्न बन गया है, वरना लोकसभा चुनाव से हासिल बढ़त वह पूरी तरह खो देगा और एक बार फिर यह नैरेटिव पुष्ट हो जाएगा कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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