क्या सच में भारत की जनता मुफ्तखोर है? ये एक ऐसा सवाल है जिस पर भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों का एक समूह यकीन करता है और वो जनता को इस बात के लिए ताने भी मारता है। इन समर्थकों में अनपढ़ ग्रामीणों से लेकर उच्च-शिक्षित शहरी तक सभी शामिल हैं।
इसी तरह आज ये भी एक नया फैशन हो गया है कि भारतीय जनता को निकम्मा कहा जाये और सलाह दी जाए कि सप्ताह में 70, 80, 90 घंटे तक काम करो। इन दोनों प्रवृत्तियों को समझने के साथ ही उस सियासत को भी समझने की कोशिश करते हैं जिसमें शासक वर्ग अपने ही देश की जनता को असम्मान या घृणा की नज़र से देखता है या कि आम लोगों को बेहद तुच्छ प्राणी समझता है।
प्रह्लाद पटेल जो कि मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्री हैं, उन्होंने कहा कि लोगों को सरकार से भीख मांगने की आदत हो गयी है। उन्होंने इस पर नाराज़गी जताई कि लोग मंच पर आते हैं माला पहनाते हैं और कागज़ पकड़ा जाते हैं, उन्होंने ये भी कहा कि भीख मांगने की ये आदत ठीक नहीं है, ये भी कि भिखारियों की फौज़ इकट्ठी करना समाज को कमज़ोर करना है।
भाजपा सरकार में ही पहली बार ये भी हुआ कि देश का प्रधानमंत्री अगर देश की जनता के लिए कुछ कर रहा है तो जनता उन्हें धन्यवाद दे, ये अपने आप में कोई ख़ास बात नहीं है लेकिन जब जनता को धन्यवाद देने के लिए प्रेरित किया जाए तो ये प्रधान मंत्री के काम और लोकतंत्र दोनों की गरिमा के अनुकूल नहीं रह जाता, आप याद करें कि पिछले साल रूस और उक्रेन के बीच जंग छिड़ने के बाद जब उक्रेन से भारतीय छात्रों को लाया गया तो उनसे प्रधानमंत्री के लिए नारे लगाने के लिए कहा गया, इसके बाद जो हुआ वो आप जानते हैं।
इसी तरह भाजपा सरकार की हुकूमत में निःशुल्क को मुफ़्त कहा गया है, दोनों का अर्थ सामान नहीं है, निःशुल्क का अर्थ बस इतना है कि जो सुविधा दी जा रही है, उसका खर्च देश का राजकोष उठा रहा है जो कि देश के ही लोगों का पैसा है, जबकि मुफ़्त का अर्थ है कि देने वाला आप पर दया कर रहा है, अहसान कर रहा है या ये उसकी करुणा है। यानि आप देश की जनता के रूप में अपने प्रधानमंत्री, उनके दल, उनके दलों के नेताओं या समर्थकों से पूछ सकते हैं कि उन्हें जो कुछ “मुफ्त” मिल रहा है क्या उसका भुगतान ये लोग अपनी जेब से करते हैं?
अगर सच में देश की जनता भिखारी है और वो अपने नेताओं से अपने लिए भीख मांग रही है तो फिर दोष किसका है, भारतीय जनता पार्टी का ये तीसरा टर्म है, मोदी जी ने हर साल 2 करोड़ रोज़गार देने का वादा किया था, अगर दिए होते तो आज कम से कम 20 करोड़ लोगों के पास रोज़गार होता और एक व्यक्ति पर अगर तीन लोगों की ही निर्भरता का अनुमान किया जाए तो कम से कम 80 करोड़ लोगों के पास जीने के ज़रूरी साधन होते, अगर भारतीय जनता पार्टी ये नहीं कर पायी और लोग भीख मांगने के लिए मजबूर हुए हैं तो ये भाजपा का दोष है जनता का नहीं।
यहीं पर एक और ज़रूरी पहलू पर सोचिये, लोकतंत्र में सत्ता जनता में निहित होती है, जनता अपना प्रतिनिधि चुन कर उन्हें देश का मैनेजमेंट सौंपती है। यानि जनता के वोटों से चुने गये लोग देश के आन्तरिक बाहरी जरूरतों को पूरा करने के लिए जनता के चुने हुए मेनेजर्स हैं देश के मालिक नहीं, लेकिन नेताओं की जनता के लिए इस्तेमाल होने वाली भाषा से ये भान होता है कि वो देश के राजा हैं। बड़े अफ़सोस की बात है कि भारतीय जनता पार्टी की हुकूमत में ये प्रवृत्ति और बढ़ी है।
नीति आयोग के CEO रहे अमिताभ कान्त ने कहा कि अगर देश को 30 ट्रिलियन डॉलर की अर्थ व्यवस्था बनानी है तो लोगों को सप्ताह में 90 घंटे तक काम करना पड़ेगा, इससे पहले भी दो महानुभावों ने यही उपदेश दिया था।
इस पहलू पर दो एंगल से सोचने की ज़रूरत है, सबसे पहले तो अमिताभ कान्त ने नीति आयोग के मुखिया के तौर पर कितने घंटे काम किया, इस काम का परिणाम क्या निकला, इससे देश को कितना लाभ हुआ, ये सब उन्हें बताना चाहिए, उसके बाद ही देश के लोगों को उपदेश देना चाहिए। यहीं पर ये भी देख लेते हैं कि इस तरह सोचना क्यूँ ज़रूरी है।
देश की जनता अपनी हैसियत के मुताबिक़ शिक्षा और चिकित्सा की सुविधा खरीदती है, शिक्षा और चिकित्सा कब का सेवा के क्षेत्र से निकल कर उत्पाद की जगह ले चुके हैं। इसी तरह दुगना कीमत देकर पेट्रोल और डीज़ल खरीदती है, रोड पर चलने का पैसा देती है, इसी तरह बाकी की सुविधाएँ भी हैं, उसके बाद भी अपनी कमाई का लगभग आधा तरह तरह के टेक्स के रूप में सरकार को देती भी है।
अब सोच कर देखिये को जो लोग देश की जनता को मुफ्तखोर कहते हैं या जो लोग 90 घंटे काम करने का उपदेश दे रहे हैं क्या सच में उन्हें देश और देश की जनता की सही समझ है! याद रहे अभी कॉर्पोरेट को दिए गये या माफ़ किये पैसों की बात नहीं हुई है उस NPA की भी बात नहीं हुई है जो लाखों करोड़ में है। यहीं पर इस पहलू पर भी सोचना ज़रूरी है कि कॉर्पोरेट और सियासत की दुनिया से जुड़े हुए लोग देश की 140 करोड़ की जनता को संबोधित करते हुए इतने गैरजिम्मेदार कैसे हो जाते हैं! इस सवाल पर बार बार सोचने की जरूरत है।
अभी मैंने कहा कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सत्ता जनता में निहित होती है और जनता कुछ लोगों को चुनती है जो देश का मैनेजमेंट सँभालते हैं, यानि अगर जनता अपने मेनेजर्स से खुश नहीं है तो उन्हें सत्ता से हटा भी सकती है। लेकिन ये सिर्फ़ किताबी बातें हैं, आज चुनावी सियासत में देशहित या लोकहित पर बहस के लिए जगह ही नहीं बची है, अब अगर जनता ही अपने हितों के प्रति लापरवाह हो तो शासक वर्ग भी उनकी चिंता क्यूँ करेगा, दूसरे चुनाव सिर्फ़ वोट से ही हो रहा है इसमें भी अब संदेह है, आज चुनाव जिताने के लिए मशीन से लेकर चुनाव आयोग तक पर आरोप लग रहे हैं।
इन सबके बावजूद चाहे प्रह्लाद पटेल हों या अमिताभ कान्त इनके जैसे लोग देश की जनता को बार बार उकसा रहे हैं कि जनता लोकहित के प्रति जागरूक बने, क्या हमारे देश की जनता लगातार अपमान सहते हुए स्वाभिमान के लिए जागेगी, ये भविष्य बताएगा।
(डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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