तीसरी बार जीत की हुंकार की हकीकत से वाकिफ़ देश ले रहा राहत की सांस

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कल जैसे-जैसे चुनाव परिणाम आने लगे, भारत का शेयर बाज़ार अपने असली स्वरूप में आने लगा। साढ़े छह घंटे के भीतर बाजार से निवेशकों के 31 लाख करोड़ स्वाहा हो चुके थे। देश में किसके लिए अच्छे दिन थे, जो एक नेता की हार की खबर सुन बदहवासी की हालत में अंधाधुंध बाजार को गिरा रहा था, इसे प्रत्यक्ष प्रमाण के तौर पर देश ने देखा। कुछ ऐसा ही हाल एग्जिट पोलस्टर और गोदी मीडिया का भी था, जिनके चेहरों पर हवाईयां उड़ रही थीं। हालांकि दोपहर होते-होते ओडिशा, तेलंगाना, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के नतीजों ने सत्ता की मलाई चाट रहे नव-कुलीनों के चेहरों पर उड़ रही हवाइयों को काफी हद तक कम करने का काम किया, जो शाम निवर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार जीत के दावे के बाद एक बार फिर से यथास्थितिवाद को लेकर आश्वस्त हो सकी।

देश में अभी भी माहौल बनाने वालों की तूती बोलती है। लोकसभा की 543 सीटों में पूर्ण बहुमत के लिए 272 लोकसभा सांसद चाहिए, जो कि 2014 के बाद पहली बार भाजपा के पास नहीं हैं। 240 सीट पर सिमटने वाली भाजपा के पास 2014 में 282 और 2019 में 303 लोकसभा सीटें थीं। आज के दिन एनडीए की सरकार बन भी जाती है तो क्या इसे ‘मोदी सरकार’ कहा जा सकता है? जनता दल (यूनाइटेड) और तेलगू देशम पार्टी (टीडीपी) नामक दो दलों की बैसाखियों पर टिकी इस सरकार के लिए कॉर्पोरेट परस्त जन-विरोधी नीतियों को पारित करा पाना पहली बार एक कठिन चुनौती होने जा रही है।

नई दिल्ली में आज एनडीए और इंडिया गठबंधन के घटक दलों की बैठक जारी है।16 सांसदों के साथ टीडीपी और जेडीयू अपने 12 सांसदों के बल पर एक ऐसी बीच की कड़ी बनकर उभरे हैं, जो एनडीए और इंडिया गठबंधन में से किसी को भी दिल्ली के तख्त पर बिठा या बेदखल करने की हैसियत रखते हैं। एनडीए के 293 और इंडिया गठबंधन के 233 की संख्या बल में इन 28 सीटों का महत्व कितना अधिक बढ़ जाता है, इस बात को ‘एक अकेला सबपे भारी’ कहने वाले मोदी से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

लोकसभाध्यक्ष की कुर्सी अचानक बन गई है हॉट केक

सूत्रों के अनुसार आज की बैठक में टीडीपी और जेडीयू को पटाने के लिए भाजपा की ओर से पलक पांवड़े बिछाने की तैयारी है। लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि दोनों ही दलों ने लोकसभा अध्यक्ष पद की मांग कर भाजपा और आरएसएस के लिए आने वाले दिनों में अनिश्चित भविष्य की राह दिखा दी है। बॉबी फिल्म का गाना, “ना चाहूं सोना चांदी, ना चाहूं हीरा-मोती, देती है दिल दे-बदले में दिल के” की तर्ज पर लोकसभा के सभापति जैसे महत्वहीन पद को लेकर छीना-झपटी इन दोनों दलों की असल मंशा को बताने के लिए काफी है।

ऐसा माना जा रहा है कि भाजपा की ओर से दोनों दलों को कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों और यहां तक कि राष्ट्रपति पद तक की पेशकश की जा सकती है। लेकिन पिछले 3-4 दशकों के अनुभव से हासिल सफेद बालों के मालिक नायडू और नीतीश असल में भारतीय लोकतंत्र को 2024 से आगे कैसे चलाया जाये, को ही नियंत्रित करना चाहते हैं। 2014 से पहले लोकसभा अध्यक्ष पद शायद ही कभी इतना महत्वपूर्ण रहा हो, क्योंकि 75 के आपातकाल को छोड़, भारतीय लोकतंत्र आमतौर पर भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता की राह पर ही चलता आया था। लेकिन 2014 से निचले सदन में एक के बाद एक पूर्ण बहुमत वाली भाजपा ने जिस प्रकार से मनमानेपूर्ण तरीके से कानूनों को पारित कराया, उसमें क्या विपक्ष और क्या एनडीए के अन्य घटक दल, किसी के लिए कोई भूमिका नहीं बनती थी।

भारत नाम के लिए एक लोकतांत्रिक गणतंत्र रह गया था, जिसे चुनावी तानाशाही से हांकते 10 वर्ष गुजर चुके हैं। आज पहला मौका मिलते ही जेडीयू और टीडीपी ने प्रधानमंत्री पद की मांग तो नहीं की, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष पद की मांग कर असल में ‘एक अकेला सबपे भारी’ की डींग हांकने वाले नेता को ही दरअसल कट-टू-साइज़ कर देने वाले इरादे जाहिर कर दिए हैं। सभी जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों में गिनती पर गिने जाने वाले कुछ कानूनों को छोड़ दें तो एनडीए सरकार की ओर से पारित अधिकांश विधेयक किसान, मजदूर, अल्पसंख्यक विरोधी और अपने चरित्र में विभाजनकारी रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को निरस्त करने का मामला हो या सीएए या किसान विरोधी तीन कृषि कानूनों को पारित कराने का मामला हो, हर बार भाजपा ने लोकसभा के भीतर अपने पूर्ण बहुमत का उपयोग कर सर्व-सम्मति और समावेशी सरकार चलाने का मखौल ही उड़ाया है।

अति-पिछड़ा, महिला और अल्पसंख्यक जनाधार को आधार बनाकर नीतीश कुमार ने पिछले दो दशक से बिहार में सरकार चलाई है। लेकिन पिछले विधान सभा चुनाव और उसके बाद से ही जिस प्रकार भाजपा ने जेडीयू के ही जनाधार पर मट्ठा डालने का सघन अभियान चलाया था, लगभग सभी मान रहे थे कि 2024 लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार को झटक कर भाजपा बेहद आसानी से उस स्थान को हथिया सकती है। लेकिन कहावत मशहूर है, ‘जाको राखे साईंया, मार सके ना कोय’, की तर्ज पर एक बार फिर नीतीश कुमार और उनकी पार्टी मौत के मुंह से बाहर निकल आई है। बिहार में भाजपा से एक सीट कम लड़कर भी 12-12 सीट जीतने वाले नीतीश कुमार असली विजेता बनकर उभरे हैं।

पिछले विधान सभा चुनाव में भाजपा-जेडीयू गठबंधन चुनाव लड़ रही थी, लेकिन खुद को नरेंद्र मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान ने किसके इशारे पर जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ लोजपा के उम्मीदवारों को खड़ा किया था, इस तथ्य से बिहार का हर व्यक्ति परिचित है। इस पूरी प्रकिया में खुद को बर्बाद कर चिराग पासवान जेडीयू को कट-टू-साइज़ करने में सफल रहे थे। यही वजह है कि पल्टू चाचा के नाम से बदनाम नीतीश कुमार को बार-बार पाला बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। आज वे एनडीए के साथ हैं, लेकिन बिहार भाजपा के मुखिया आज भी किसके नाम का मुरैठा बांधे हुए हैं, नीतीश बाबू कैसे भुला सकते हैं? नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को जीते-जी निगल लेने की उतावली दिखाने वाले दल के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में अब बाजी जब इस तपे-तपाये नेता के हाथ में है, तो वह इस मौके को भला कैसे छोड़ दें?

इसी तरह चंद्रबाबू नायडू भी बेहद अनुभवी और महत्वाकांक्षी नेता हैं। आज तेलंगाना देश का सबसे अमीर राज्य है। लेकिन हैदराबाद को साइबराबाद बनाने की नींव चंद्रबाबू नायडू ने ही रखी थी। 2014 में गुजरात मॉडल की धूम भले ही कॉर्पोरेट जगत की मदद से राष्ट्रीय नैरेटिव बनाने में सफल रही हो, लेकिन अपने बलबूते हैदराबाद आज देश का मोस्ट हैप्पनिंग प्लेस बना हुआ है। आंध्र विभाजन के बाद हैदराबाद तेलंगाना के हिस्से चला गया, जिसका खामियाजा कांग्रेस को आजतक भुगतना पड़ रहा है। आंध्र प्रदेश के लोग आज भी राज्य विभाजन में सबसे अधिक अफ़सोस हैदराबाद के छिन जाने पर होते हैं, और इसीलिए आजतक एक मुकम्मल राजधानी के लिए भटक रहे हैं।

चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश की राजधानी के लिए अमरावती का चयन किया था। वे इसे सिंगापुर की तर्ज पर देश का सबसे आधुनिकतम शहर बनाना चाहते थे। इसके लिए बड़े पैमाने पर पूंजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर की दरकार थी, जो राज्य के दोनों प्रतिद्वंदी दलों के लिए नाक का सवाल बना हुआ था। पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने 3 राजधानी की रुपरेखा पेश की थी, क्योंकि उनका मानना था कि अमरावती को राजधानी बनाने का अर्थ है लाखों करोड़ रूपये खर्च कर नए सिरे से एक शहर को बसाना। आंध्र प्रदेश की जनता को कांग्रेस ही नहीं भारतीय जनता पार्टी से भी हिसाब-किताब करना है। उन्हें लगता है कि विभाजन के बाद केंद्र में आसीन मोदी सरकार ने भी उनके साथ अन्याय करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। आज जब पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत के लिए नायडू के आसरे है, तो इसकी वसूली भी निश्चित तौर पर होनी चाहिए। अनुभवी नायडू के लिए यह सुनहरा मौका है, जब वे राज्य विधानसभा में भारी बहुमत के साथ-साथ केंद्र की सरकार को स्थिर या गिराने की भूमिका में सबसे अहम किरदार बन गये हैं।

तीसरी बार नेहरू के बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का झूठा दावा करने वाली भाजपा को बताना चाहिए कि वह तीसरी बार उन बैसाखियों के सहारे टिकी है, जिनके साथ उसका लव-हेट का रिश्ता कोई नया-नया नहीं है। यह भी पहली बार है कि लोकसभा में संख्या के लिहाज से सबसे बड़ी संख्या में सांसद भेजने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में भाजपा की डबल इंजन की सरकार होने के बावजूद उसे सबसे तगड़ा झटका इन्हीं दो राज्यों से लगा है।

उत्तर प्रदेश के सदमे को तो भाजपा अब शायद भुला भी नहीं सकती है। लेकिन महाराष्ट्र में तो उसे जल्द ही विधानसभा चुनाव की तैयारियों से दो-चार होना पड़ेगा, जबकि 48 सीट में से मात्र 17 सीट पर जीत हासिल कर महायुती आज के दिन राज्य की सत्ता पर बने रहने का आत्मबल खो चुकी है। महाविकास अघाड़ी में कांग्रेस को सबसे कमजोर कड़ी माना जा रहा था, लेकिन 17 सीटों में से 13 पर जीत दर्ज कर आज वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। भाजपा मात्र 9 सीटों पर विजय हासिल कर पाई है, जबकि शिवसेना (शिंदे) 7 सीट जीतकर राज्य में शिंदे सरकार को अपरिहार्य साबित करने में कामयाब रही है। शायद यही वजह है कि पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेंद्र फड़नवीस ने उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश करते हुए इस हार की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है।

कुल मिलाकर कहें तो भले ही नरेंद्र मोदी झटपट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को इस्तीफ़ा सौंप अगले 2-3 दिनों के भीतर अपनी सरकार बनाने की कवायद करते नजर आयें, ताकि बीजेपी-आरएसएस के भीतर भितरघात और इंडिया गठबंधन के सरकार बनाने के मंसूबों पर पानी फेर दें, लेकिन बैसाखियों पर टिके इस साम्राज्य को मनमानेपूर्ण ढंग से चला पाने की उनकी सदिच्छा इस बार मुंह की खाने जा रही है। 2047 तक भाजपा के एकछत्र राज का सपना दिखाकर उन्होंने देश में चरम-दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी समर्थकों के जिस हुजूम को खड़ा किया है, उसे कदम-कदम पर अपने ही दावों को झुठलाना कितना महंगा पड़ने जा रहा है, यह तो परत-दर-परत जल्द ही देश देखने जा रहा है।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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