Friday, April 26, 2024

यूपी का उभरता राजनीतिक परिदृश्य: जरूरी नहीं भाजपा का मिशन 80 सफल हो

विपक्षी एकता की तेज होती कवायद के बीच देश की निगाहें यूपी के राजनीतिक परिदृश्य की ओर लगी हैं, जो पिछले 9 सालों से संघ-भाजपा की ताकत का सबसे बड़ा स्रोत और उसके सबसे आक्रामक मॉडल की प्रयोगभूमि बना हुआ है।

2024 की ओर बढ़ते हुए भाजपा चौतरफा संकट से घिरती जा रही है। बिहार, महाराष्ट्र और पंजाब के मजबूत allies के अलग होने के बाद व्यवहारतः NDA खत्म हो चुका है और भाजपा अकेली पड़ चुकी है। दक्षिण का मजबूत, इकलौता राज्य उसके हाथ से निकल चुका है। दक्षिण और पूर्व के किसी भी राज्य में क्षेत्रीय दलों पर बरतरी हासिल करना दूर, सब जगह पहले की तुलना में उसकी स्थिति में और गिरावट के ही संकेत हैं।

कर्नाटक, असम तथा मध्य व पश्चिमोत्तर भारत के राज्यों में जहां उसकी राहुल-खड़गे की नई resurgent कांग्रेस से मुठभेड़ होनी है, वहां पहले से ही उसके पास 152 में 145 सीटें हैं, जाहिर है इन राज्यों में उसे नुकसान होना तय है और यह नुकसान काफी substantial हो सकता है।

इन हालात में 2024 के लिए यूपी संघ-भाजपा की आखिरी उम्मीद है, जहां सीटों में कोई कमी वह afford नहीं कर सकती, यहां गिरावट होते ही उसकी सत्ता में पुनर्वापसी असम्भव हो जाएगी।

इसीलिए, यूपी में अपना सबसे अच्छा performance पहले ही दे चुकी भाजपा मिशन 80 के तहत अपनी सीटें 2014 के 71 और 2019 के 62 से बढ़ाने की जीतोड़ कोशिश में लगी है।

7 जून को उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा नोयडा में कार्यकर्ताओं के साथ टिफिन बैठकों की श्रृंखला शुरू करने जा रहे हैं तो 21 से 30 जून तक पार्टी घर-घर जन सम्पर्क अभियान चलाने जा रही है जिसमें उसके कार्यकर्ता प्रदेश के 1.70 लाख बूथों तक पहुंचकर 4 करोड़ परिवारों को मोदी सरकार की उपलब्धियां बताएंगे।

बहरहाल देश में बनाई जा रही यह धारणा कोई foregone conclusion नहीं है कि यूपी में BJP हर हाल में स्वीप करेगी। हालिया निकाय चुनावों में भाजपा को मिले मतों और सीटों के विश्लेषण से यह साफ है कि इन चुनावों में उसकी बहुप्रचारित जीत किसी लोकप्रिय जनसमर्थन की नहीं बल्कि first-past-the-post system में विपक्ष के बिखराव का परिणाम थी। सही बात यह है कि उसको मिले मत जनता के आकर्षण नहीं, नाराजगी की अभिव्यक्ति हैं।

दरअसल पूरा दारोमदार इस बात पर है कि यूपी में विपक्षी एकता के मोर्चे पर क्या होता है तथा विपक्ष मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार के खिलाफ जनता के विभिन्न तबकों की बढ़ती नाराजगी को articulate करते हुए सशक्त counter-offensive लांच कर पाता है या नहीं।

यूपी निकाय चुनाव नतीजों का negatively positive अच्छा नतीजा यह हो सकता है कि तमाम विपक्षी दल आपसी एकता के लिए मजबूर हों।

दरअसल निकाय चुनाव के नतीजे यूपी के विपक्षी दलों के लिए अलार्म बेल हैं। इनका सन्देश  बिल्कुल स्पष्ट है कि विपक्ष यदि एक न हुआ तो UP में भाजपा विरोधी मतों का जो भारी बिखराव है और जैसा रुझान उभर रहा है, उसमें सारी एन्टी-इनकंबेंसी के बावजूद भाजपा अपने committed वोट बैंक, संगठित तंत्र और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए विपक्ष का सफाया कर देगी। यह गलतफहमी किसी को नहीं होनी चाहिए कि विधानसभा चुनाव की तरह फिर सारे भाजपा विरोधी मतों की गोलबंदी एक दल के पक्ष में हो जाएगी।

इसीलिए यूपी में व्यापक एकता के लिए सारे विपक्षी दलों पर नीचे से उनके जनाधार का जबरदस्त दबाव है।

कर्नाटक से जो अनेक सन्देश हैं, उनमें शायद सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भाजपा के विनाशकारी राज के खिलाफ आम जनों, गरीबों, महिलाओं, युवाओं, हाशिये के तबकों की नीचे से एकता और ध्रुवीकरण होता जा रहा है और जो दल इसमें villain बनते दिखेंगे वे देवगौड़ा पिता-पुत्र के JDS की तरह लड़ाई के मैदान से बाहर हो जाएंगे।

खबर है कि सपा, कांग्रेस, RLD विपक्षी दलों की शिखर बैठक में शामिल हो रही हैं। वे एक मंच पर आते हैं तो यूपी में भाजपा विरोधी formidable pole खड़ा हो जायेगा।आज़ाद समाज पार्टी के चन्द्रशेखर भी लगातार इन्हीं दलों के साथ सक्रिय हैं। अपने तेवर और सक्रियता से उन्होंने प्रदेश में, विशेषकर पश्चिम यूपी में दलित युवाओं को आकर्षित किया है। मायावती के पराभव का भी उन्हें लाभ मिल रहा है।

उधर विपक्षी एकता की उम्मीद जगाती संभावना, विशेषकर इसमें नीतीश कुमार के बड़ी भूमिका में आने से UP के पिछड़े-अतिपिछड़े समुदाय की राजनीति में भी हलचल पैदा होना तय है। ओमप्रकाश राजभर जैसे नेता इस आशय के सार्वजनिक बयान भी दे चुके हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव में राजभर के साथ आने से पूर्वांचल के कई जिलों में पलड़ा विपक्ष की ओर झुक गया था।

लेकिन चुनाव के बाद से उनके सपा से दूर भाजपा की ओर फिर बढ़ने के संकेत थे। नई परिस्थिति में उनके जैसे अनेक पिछड़े नेता नीतीश-सपा-कांग्रेस के साथ गोलबंद हो सकते हैं। इतना ही नहीं नीतीश कुमार के केंद्रीय भूमिका में आने पर कुर्मी समुदाय की अस्मिता की राजनीति करने वाले नेताओं और दलों पर भी (जिनमें से बड़ा हिस्सा अभी भाजपा के साथ है) विपक्ष के साथ आने का भारी दबाव होगा। यह सब हुआ तो UP की राजनीति में बड़ा फेर बदल हो सकता है।

2024 के चुनाव में अलग-थलग रहने पर विपक्ष की जिस पार्टी को 2024 में खोने के लिए सबसे ज्यादा है और जिसका शायद अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा, वह बसपा ही है। याद रखना होगा कि 2019 में सपा के साथ गठबंधन में बसपा ने 10 संसदीय सीटें जीती थीं, लेकिन 2022 आते-आते अकेले लड़कर वह मात्र 1 विधायक सीट में सिमट गई, वह जीत भी पार्टी की कम, प्रत्याशी की अधिक मानी जाती है।

खबर है कि बसपा भी “गांव चलो अभियान” चलाने जा रही है, जिसमें खास बात यह है कि “हाथी नहीं गणेश है” जैसे नारे छोड़कर अब वह एक बार फिर back to basics है और “वोट हमारा राज तुम्हारा” जैसे नारे के साथ अपने मूलाधार की ओर लौट रही है।

क्या opportune moment पर बसपा भी राजनीतिक संभावनाओं के विवेकपूर्ण आंकलन के आधार पर दबाव मुक्त होते हुए विपक्षी-एकता की गाड़ी में सवार हो जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी बाजी पूरी तरह पलट जाएगी।

आने वाले महीने तय करेंगे कि दक्षिण और पूरब से आने वाली हवायें अंततः उत्तर प्रदेश को भी अपने आगोश में ले लेंगी या पूरे देश की सकारात्मक संभावनाओं को व्यर्थ करते हुए UP अंततः मोदी की पुनर्वापसी की राह हमवार कर देगा?

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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