Saturday, April 27, 2024

मराठा आरक्षण की आंधी में भाजपा का डूबता जहाज

नई दिल्ली। मराठा आरक्षण का मुद्दा महाराष्ट्र सरकार के लिए गले की हड्डी बन चुका है। आज उप-मुख्यमंत्री अजित पवार ने मराठा कोटा के संदर्भ में मुंबई में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इससे पहले, कल रविवार को मुंबई से सटे ठाणे जिले में बंद का आह्वान किया गया था।

सर्वदलीय बैठक से पहले मराठा आरक्षण के मुद्दे पर उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का बयान काबिलेगौर है। उनका कहना है, “किसी भी समुदाय से संबंधित सवाल राजनीति से परे होना चाहिए, वो चाहे सरकार हो या विपक्ष। हर किसी को समुदाय की बेहतरी के लिए सोचना चाहिए और आम-सहमति पर पहुंचना चाहिए।”

फडणवीस ने कहा कि “आज की बैठक में व्यापक सहमति पर पहुंचने का प्रयास किया जायेगा। यह मराठा या किसी अन्य समुदाय के बारे में हो, उसमें भी विशेषकर मनोज जरांगे पाटिल की भूख हड़ताल के बाद तो जो भी मुद्दे और मांगें हैं, उसके बारे में राज्य सरकार की ओर से सभी समुदायों के लाभ के लिए फैसले लेने का प्रयास किया जायेगा।”

यह टिप्पणी आज उस समय आ रही है जब जालना के सारंगी गांव में प्रशासन के लाठीचार्ज की घटना को 10 दिन से अधिक का समय हो चुका है। पूरे राज्य भर में मराठा आरक्षण की मांग को लेकर जगह-जगह विरोध प्रदर्शन, बंद, चक्काजाम और जलसमाधि लेने की घटनाएं हो चुकी हैं।

जालना में मनोज जरांगे के धरना स्थल पर राज्य के सभी प्रमुख राजनीतिक हस्तियों द्वारा हाजिरी लगाई जा चुकी है, और कहीं न कहीं खुद को और अपने दल को मराठा हितों के साथ जोड़ने की भरसक कोशिशें की गई हैं। राज्य सरकार ने भी सार्वजनिक मंच पर आकर प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज की भर्त्सना की है, लेकिन कोई भी इसकी जिम्मेदारी लेने से बच रहा है।

लाठीचार्ज की घटना के बाद प्रदेश में उग्र विरोध, आगजनी, बर्बर लाठीचार्ज और गोलीबारी के लिए राज्य सरकार और विशेषकर उप-मुख्यमंत्री और सूबे के गृहमंत्री फडणवीस को आम लोग जिम्मेदार मान रहे हैं। विपक्षी दलों में शिवसेना-उद्धव ठाकरे गुट और एनसीपी सहित कांग्रेस ने भी देवेंद्र फडणवीस को इसका कसूरवार ठहराकर भाजपा को कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें की हैं।

लाठीचार्ज की घटना के बाद 3 दिनों तक उप-मुख्यमंत्री अजित पवार ने सारे सार्वजनिक कार्यक्रम रद्द कर एक तरह से अपना विरोध जताया था। 3 दिन बाद मुख्यमंत्री शिंदे और दोनों उप-मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में, अजित पवार ने दावा किया था कि लाठीचार्ज का आदेश उनमें से किसी ने नहीं दिया था, और जो भी इसका दावा कर रहे हैं, यदि इसका प्रमाण दे देते हैं तो वे सार्वजनिक जीवन से सन्यास ले लेंगे।

यहां पर जानना जरूरी है कि मौजदा सरकार में दो बड़े नेता, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजित पवार, दोनों ही मराठा नेता हैं और मराठा आरक्षण को शुरू से ही हवा देने में इन दोनों की महती भूमिका रही है। आज सत्ता में शीर्ष पर होने के बाद आरक्षण को लेकर शांतिपूर्वक धरने पर बर्बर लाठीचार्ज की घटना ने उनके राजनैतिक कैरियर पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि शिवसेना और एनसीपी में बड़ी तोड़-फोट को सफलतापूर्वक अंजाम देने वाली भाजपा का मूल मकसद ही इन युवा मराठा नेतृत्व को अपने साथ मिलाकर उस 32% मराठा समुदाय को अपने फोल्ड में लाने का था, जो उसे महाराष्ट्र की राजनीति में लंबे समय तक अजेय बना देता। लेकिन आज वही समुदाय सड़कों पर खड़ा है, और भाजपा-आरएसएस के ब्ल्यू-आई बॉय फडणवीस की बलि चाहता है।

फडणवीस जो इससे पूर्व भाजपा-शिवसेना गठबंधन में 5 वर्ष मुख्यमंत्री पद संभाल चुके हैं, ने अपने अहम को ताक पर रखकर केंद्रीय नेतृत्व के आदेश का पालन करते हुए, अपने से बेहद कम संख्या बल वाले एकनाथ शिंदे के नेतृत्व के तहत काम करने को स्वीकार किया था। लेकिन आये दिन शिंदे के लिए फडणवीस का खतरा बना हुआ था, और किंगमेकर के रूप में फडणवीस समय-समय पर इसे जाहिर भी करते रहे हैं।

शिवसेना शिंदे गुट का मामला अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है, जिसमें 16 विधायकों की विधायकी अधर में लटकी हुई है। केंद्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रुख की अनिश्चितता के मद्देनजर अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए जब एनसीपी के भीतर भी सेंधमारी करते हुए अजित पवार और विधायकों को तोड़ने में सफलता हासिल कर ली, उसके बाद तो देवेंद्र फडणवीस की भूमिका एक बार फिर से किंगमेकर की बन गई थी।

लेकिन मराठा आरक्षण की मांग को लेकर प्रदेश की एक तिहाई आबादी, जो सबसे सशक्त और राजनीतिक रूप से सबसे प्रभावशाली समुदाय है, की ओर से निर्णायक संघर्ष की चेतावनी ने सारा खेल ही उलटकर रख दिया है।  

देश में सत्ता की बागडोर की चाभी के लिए यदि 80 लोकसभा सीटों के साथ उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण राज्य है, तो उसके बाद दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र का स्थान है, जहां की 48 सीटें गणित को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती हैं। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि गुजरात और राजस्थान जैसे दो बड़े राज्यों से जितने सांसद चुनकर आते हैं, लगभग उतने सांसद अकेले महाराष्ट्र से राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं।

हिंदी प्रदेशों के अलावा गुजरात की सभी लोकसभा सीटों और पश्चिम बंगाल से 18 सांसदों के अलावा यह महाराष्ट्र ही था, जहां से 2019 में 48 में से एनडीए ने 41 सीटों पर जीत हासिल की थी, एक निर्दलीय भी गठबंधन के साथ था। भाजपा को 23 और शिवसेना ने 18 संसदीय सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2024 में चुनौती फिर से 42 सीटों पर जीत की नहीं थी, भाजपा के लिए अपनी 23 सीटों को बरकरार रखने की थी।

इसी के मद्देनजर, दो-दो बार दो विपक्षी दलों में सेंधमारी कर 32% मराठा समुदाय को अपने दायरे में लाने की रणनीति थी, जो पूरी तरह से चौपट हो चुकी है। ऐसे में 23 सीटों को अपने पाले में ला पाना एक बेहद दुष्कर कार्य हो गया है। कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार के साथ-साथ यदि महाराष्ट्र से भी लोकसभा में सीटों का नुकसान होता है तो भले ही एनडीए+अन्य विकल्प की तलाश कर भाजपा की केंद्र में वापसी संभव हो जाये, लेकिन इसमें मोदी+शाह के लिए गुंजाइश की संभावना लेशमात्र भी नहीं नजर आती।

उससे भी महत्वपूर्ण, भाजपा-आरएसएस के हिंदुत्ववादी अभियान का रथ बीच में ही अवरुद्ध हो सकता है, और ऐसे में न्यूज़ मीडिया और विपक्ष भी अपनी मुर्दनी तोड़ते हुए पिछले एक दशक के लंबित मुद्दों से सरकार के लिए कदम-कदम पर चलना दुश्वार कर सकते हैं।

राज्य में मराठा समाज की स्थिति

जैसा कि ऊपर लेख में स्पष्ट किया जा चुका है कि महाराष्ट्र की 13 करोड़ आबादी में से एक तिहाई लोग अकेले मराठा समुदाय से आते हैं, जिनका राज्य की राजनीति और कृषि में पूर्ण दबदबा रहा है। ऐसा माना जाता है कि 1962 के बाद से महाराष्ट्र में करीब 60% विधायक इसी समुदाय से आते हैं। देश की विधानसभा की 288 सीटों में से लगभग 200 सीटों पर मराठा समुदाय की सीधी या परोक्ष भूमिका होती है, इसलिए राज्य में सरकार निर्माण में यह निर्णायक भूमिका में रहते हैं।

इतना ही नहीं महाराष्ट्र की कृषि योग्य भूमि के करीब 75% हिस्से पर समुदाय का मालिकाना है। 90% चीनी मिलों पर इनका नियंत्रण बताया जाता है और 55% शैक्षणिक संस्थाओं पर भी इनका कंट्रोल है। महाराष्ट्र में अभी तक आसीन 19 मुख्यमंत्रियों में से 12 सीएम मराठा समुदाय से ही निर्वाचित हुए हैं।

इन तथ्यों के मद्देनजर कई विद्वान तर्क पेश करते हैं कि राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक रूप से इतने शक्तिशाली मराठों द्वारा अब सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन का राग अलापना बिल्कुल भी सही नहीं है, और उन्हें आरक्षण के दायरे में नहीं लाना चाहिए। गुजरात में पटेल आरक्षण, राजस्थान में गुर्जर आरक्षण और हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन हुए हैं, जो देश के सामाजिक ताने बाने को बिगाड़ने में ही काम आ रहे हैं।

लेकिन एक कड़वी हकीकत यह भी है कि राजनीतिक और सामाजिक तौर पर बेहद मजबूत हैसियत के बावजूद आज मराठा समुदाय का बहुसंख्यक हिस्सा खुद को बुरी तरह से पिछड़ता हुआ पा रहा है। 90 के दशक की शुरुआत के बाद से यह तेजी से बढ़ा है। ऐसा माना जाता है कि सिर्फ 10% मराठे ही आर्थिक रूप से संपन्न हैं, और उन्हीं तबकों का राजनीति, सहकारिता, शुगर लॉबी, सहकारी बैंकों और व्यवसाय एवं उद्योगों में तूती बोलती है, लेकिन शेष 90% मराठा आज भी मुख्य रूप से खेती पर आश्रित हैं।

खेती में नव-उदारीकरण के दौर की शुरुआत से पूंजी की घुसपैठ ने खेती की लागत में उत्तरोत्तर वृद्धि की है, लेकिन सूखे और भारी कर्ज के बोझ ने यहां के किसानों की जिंदगियों को जितनी बुरी तरह से प्रभावित किया है, उतना शायद ही किसी अन्य राज्य में ऐसा दूसरा उदाहरण हो।

राज्य में ऋण-ग्रस्तता के जुए में फंसकर हजारों किसानों ने आत्महत्या की हैं। ये वही मराठा किसान थे, जो कल तक अपनी जमीन और कैश-क्रॉप के चलते, अवसर होते हुए भी देश के आधुनिकतम औद्योगिक शहर मुंबई का रुख करने से परहेज करते थे, या सरकारी नौकरी की भी परवाह नहीं करते थे। आज अन्य समुदायों, जो कल तक सामाजिक-आर्थिक हैसियत में उनसे पीछे थे, की बेहद बेहतर माली स्थिति को देखते हुए उनके मन में भी भावी पीढ़ी की खुशहाली के लिए ओबीसी आरक्षण की मांग एक न्यायोचित लड़ाई लगती है।

इसके लिए उन्होंने एनसीपी और शिवसेना जैसे दलों से अपनी उम्मीद लगा रखी थी, लेकिन पहली बार मराठा आरक्षण की मांग पर कांग्रेस मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के नेतृत्त्व में 2013 में नारायण राणे की अध्यक्षता में मराठा समुदाय के आरक्षण की मांग पर रिपोर्ट तैयार करने को कहा था। इसके तहत ही पहली बार यह तय पाया गया कि मराठा समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पिछड़ी है और उनके लिए 16% आरक्षण की संस्तुति की गई।

राज्य सरकार द्वारा इसे पारित किये जाने को मुंबई उच्च न्यायालय में रोक लगा दी गई। लेकिन देवेंद्र फडणवीस सरकार ने दोबारा जब कुछ संशोधन के साथ इसे पुनः पारित किया तो 2018 में इसे मुंबई हाईकोर्ट ने मंजूरी दे दी थी। इसके बावजूद आरक्षण में 50% की सीलिंग का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में मराठा आरक्षण पर रोक लगाकर, पूरे आंदोलन को एक बार फिर से ठंडे बस्ते में डाल दिया था। 

इससे पहले 2016 में भी मराठा आंदोलन अपने चरम पर था, जब एक-एक कर अनेक जिलों में लाखों की संख्या में मराठी समुदाय के युवा, बुजुर्ग और महिलाओं ने बेआवाज रैलियां निकाली थीं, जिसका समापन मुंबई में करीब 5 लाख की संख्या में प्रदर्शन से हुआ था। उस दिन मुंबई लगभग थम सी गई थी, और तमाम शिक्षण संस्थान और कार्यालयों में ताले लगा दिए गये थे। मुंबई में आजादी पूर्व से कभी न रुकने वाली टिफिन सर्विस से जुड़े हजारों श्रमिकों ने भी आंदोलन के समर्थन में अपना काम बंद रखा था। जाहिर सी बात है, किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए मराठा आरक्षण के विरोध में बोलने का सवाल ही नहीं उठता।

मनोज जरांगे के रूप में नए अन्ना हजारे का अवतरण

महाराष्ट्र में आज कई लोगों के मुंह से सुनने में आ रहा है कि मनोज जरांगे, अन्ना हजारे के नए अवतार हैं। एक आम किसान की पृष्ठभूमि वाले मनोज जरांगे पिछले कई वर्षों से मराठा आरक्षण के समर्थन में घूम-घूमकर प्रचार और आंदोलन चला रहे थे। मराठा आरक्षण की चिंगारी शहरों की बजाए गांवों और छोटे कस्बों में बड़े पैमाने पर जल रही है।

मनोज जरांगे जैसे किसानों और युवाओं को भी अहसास है कि खेती बाड़ी अब घाटे का सौदा बन चुकी है, लेकिन शैक्षिक रूप से वे पिछड़ चुके हैं और मुंबई, ठाणे, पुणे और नासिक जैसे औद्योगिक शहरों में आईटी, ऑटो एवं अन्य बड़े उद्योगों में पहले ही प्रदेश और देश भर के अगुआ समुदायों का कब्जा हो चुका है। ले-देकर सरकारी नौकरी ही वह विकल्प है, जिसमें समुचित आरक्षण ही उनके लिए एक विकल्प है, जिसे वे संख्या-बल और राजनीतिक हैसियत से हासिल कर सकते हैं।

लेकिन 4 दिन के उपवास के बाद जिस तरह जालना जिले में राज्य पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई होती है, उससे मराठा समाज खुद को ठगा महसूस कर रहा है। जवाब में बड़े पैमाने पर हिंसक आंदोलन और सड़कों पर उतर जाने से अचानक मुंबई विधानसभा से एक-एक कर सफेदपोश लोगों की गाड़ियां, जालना की धूल भरी सड़कों की ख़ाक छानते हुए धरना स्थल पर पहुंचने लगी हैं।

शिंदे सरकार के मुंबई आमंत्रण को मनोज जरांगे पहले ही ठुकरा चुके हैं। अपने भदेस अंदाज में उनका कहना था कि मैं आपकी तरह सरकारी भाषा में बातचीत करने में वाक्पटु नहीं हूं। जिसे आना हो वो जालना आये, हमारी मांग स्पष्ट है कि मराठा आरक्षण को 4 दिन में लागू करो। इसके लिए आवश्यक लिखा-पढ़ी की योग्यता आप जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के पास है।

आंदोलन की तीव्रता का आलम यह है कि कुछ दिन पहले एक आक्रोशित मराठा युवक ने आंदोलन के समर्थन में अपनी कार को ही पेट्रोल जलाकर ख़ाक कर दिया था। कुछ लोगों ने गोदावरी नदी में जल-समाधि लेने का प्रयास किया। आज एक युवक ने अपने खून से ख़त लिखकर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नाम पत्र लिखा है।

दो दिन पहले सकल मराठा समाज के कुछ युवकों ने औरंगाबाद-जलगांव राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक पेड़ से उल्टा लटक कर प्रदर्शन किया। उन्होंने सरकार को चेतावनी जारी की है कि आज हम उल्टा लटक रहे हैं, यदि हमारी मांग तत्काल नहीं मानी गई तो कल हम सरकार को उल्टा लटका देंगे। जाहिर सी बात है, एक तिहाई वोट का दम भाजपा सरकार की रातों की नींद और दिन का चैन हराम किये हुए है।

निजाम के दौर में मराठों के लिए था आरक्षण का प्रावधान

मराठा आरक्षण के समर्थन में आन्दोलनकारियों के इस तर्क ने भी भाजपा-आरएसएस के लिए बेहद शर्मिंदगी की स्थिति पैदा कर दी है। आजादी पूर्व के इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि मराठवाड़ा क्षेत्र हैदराबाद निज़ाम के अधिकार क्षेत्र में था, जिसकी सीमा कर्नाटक और तेलंगाना से लगती है। मराठवाड़ा क्षेत्र में औरंगाबाद, बीड, हिंगोली, जालना, लातूर, नांदेड़, ओस्मनाबाद और परभनी जिले आते हैं, जिसका सबसे बड़ा शहर औरंगाबाद है।

इस क्षेत्र की आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक 1.87 करोड़ थी, जिसमें हिंदू 77%, मुस्लिम 15%, बौद्ध 7% सहित अन्य मतावलंबियों का बसेरा है। निज़ाम के शासनकाल में मराठवाड़ा क्षेत्र में बांधों के निर्माण के साथ-साथ भूमिगत जल प्रणाली के नवीनीकरण का काम किया गया था। निज़ाम के द्वारा गारंटीशुदा राज्य रेलवे के निर्माण के माध्यम से हैदराबाद से मुंबई को जोड़ने वाले ट्रेन मार्ग को औरंगाबाद के माध्यम से जोड़ा गया था।

आज मराठा आन्दोलनकारियों का तर्क है कि निज़ाम के शासनकाल के दौरान मराठों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी तो आज हमारे लिए आरक्षण की मनाही क्यों? एकनाथ शिंदे ने इसका सबूत पेश करने पर तत्काल प्रभाव से इसे लागू करने की बात तो कह दी है, लेकिन राज्य में पहले से लागू 52% आरक्षण में ओबीसी कोटे में मराठों को आरक्षण दिए जाने की आशंका से अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय के लोग सरकार के विरोध में आ गये हैं।

आरक्षण की संवैधानिक स्थिति और अन्य ओबीसी समुदाय की चिंताएं

6 सितंबर को एकनाथ शिंदे की ओर से घोषणा की गई थी कि एक पांच-सदस्यीय पैनल का गठन किया गया है, जिसकी अध्यक्षता अवकाश प्राप्त न्यायाधीश संदीप शिंदे के जिम्मे है, जो इसके लिए एसओपी को तय करेंगे। लेकिन मनोज जरांगे पाटिल अड़े हुए हैं कि सरकार तत्काल कुनबी जाति के तहत मराठा समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग घोषित करे। इसके लिए 10 सितंबर को जरांगे ने जल-त्याग करने की धमकी दी है। उधर अजित पवार ने रविवार को अफ़सोस जताते हुए कहा है कि हमने जरांगे पाटिल की भूख हड़ताल को खत्म किये जाने की हरचंद कोशिश की है, लेकिन उन्होंने इसे खत्म करने से मना कर दिया है।

कुनबी जाति के तहत मराठों को आरक्षण दिए जाने की शिंदे सरकार के प्रयासों से बुरी तरह से खफा ओबीसी जनमोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष ने कल हिंदुस्तान टाइम्स के साथ अपनी बात में स्पष्ट कहा है कि अब सरकार को अन्य पिछड़ा वर्ग के विरोध प्रदर्शन के लिए तैयार रहना होगा। उनका कहना था, “हम इस प्रकार के सरकार के किसी भी कदम का कड़ा विरोध करेंगे।”

उधर कुनबी सेना के अध्यक्ष विश्वनाथ पाटिल का कहना है कि उनके समुदाय को मराठों को आरक्षण दिए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उन्हें कुनबी प्रमाणपत्र नहीं दिया जाना चाहिए। अगर सरकार ने इस प्रकार का कोई फैसला लिया तो हम इसका कड़ा विरोध करेंगे। मौजूदा ओबीसी समुदाय में भाजपा की अच्छी खासी पैठ है, लेकिन मराठा समुदाय को ओबीसी का दर्जा दिए जाने पर अन्य पिछड़ा वर्ग के भीतर मौजूद जातियों के लिए स्थिति दयनीय हो सकती है। इतना ही नहीं उनके राजनैतिक प्रतिनिधित्व में भी बड़ी सेंध लग जायेगी, जिसे उस समुदाय के नेता किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं।

ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि पहले से मौजूद 52% की सीमा को 68% तक ले जाने के लिए संवैधानिक सीमा को बढ़ाने के लिए केंद्र की मोदी सरकार जल्द से जल्द क्या कदम उठा सकती है, जब 52%+10% आर्थिक वर्ग को आरक्षण पहले से मौजूद है? दूसरा, यदि शिंदे और अजित पवार गुट मराठा समुदाय के लिए सामान्य ओबीसी वर्ग के लिए 19% आरक्षण में जगह बनाने की जुगत भिड़ाने में कामयाब रहता है, तो क्या भाजपा अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने की स्थिति को कबूल कर लेगी?

महाराष्ट्र में ईडी-सीबीआई और धन-बल के आधार पर दो-दो बार राज्य की प्रमुख पार्टियों को तोड़ने का आरोप झेल कर अपने लिए राज्य सरकार की सहयोगी भूमिका और भविष्य में दिल्ली की गद्दी को महफूज रखने की भाजपा रणनीति आज एकनाथ शिंदे-अजित पवार को उपलब्धि के बजाय कहीं बोझ न समझने लगे, इसका खुलासा आंदोलन के अगले चरण तक देश के सामने आ जाने वाला है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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