एनसीईआरटी की कक्षा बारह की इतिहास की किताब से गांधी की हत्या से जुड़ा वो हिस्सा हटा दिया गया है जिसमें उन्हें मारने वाले को ब्राह्मण और कट्टरपंथी हिंदू अखबार का संपादक बताया गया था। ऐसी कई अन्य बातें भी हैं जो छात्रों को बताना जरूरी नहीं समझा जा रहा है। इस बारे में अभी विवाद हो रहा है पर महात्मा गांधी को इतिहास से मिटाने की यह साजिश पिछले काफी समय से चल रही है।
आदित्य मुखर्जी, मृदुला मुखर्जी और सुचेता महाजन की किताब ‘आरएसएस, स्कूली पाठ्यपुस्तकें और महात्मा गांधी की हत्या’ शिक्षा के साम्प्रदायिकरण के खिलाफ वर्ष 2001 में दिल्ली हिस्टेरियन ग्रुप के तहत शुरू हुए एक अभियान का हिस्सा है। इसका हिंदी अनुवाद सौरभ बाजपेयी द्वारा किया गया है।
किताब के लेखकों का कहना है कि इस किताब को आए दस साल हो गए हैं पर किताब जिन मुद्दों पर लिखी गई उन मुद्दों की प्रासंगिकता घटने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। अब एनसीआरटी की किताबों को लेकर उठा यह विवाद किताब के लेखकों की बातों को सच साबित भी करता है।
विपिन चन्द्र की प्रस्तावना अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान में चल रहे सीडीज के खेल से शुरू होती है। वह कहते हैं कि किताब पढ़ आप साम्प्रदायिकता के प्रचंड संकट से रूबरू हो जाएंगे।
‘आरएसएस और स्कूली शिक्षा’ पर दिमाग खोलती किताब
किताब की शुरुआत में स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में संघ गठजोड़ की समझ बहुत साफ रही है कि साम्प्रदायिकता को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि साम्प्रदायिक विचारधारा को प्रभावी ढंग से फैलाया जाए। यही वजह है कि संघ ने सबसे ज्यादा गम्भीर प्रयास विचारधारा के क्षेत्र में ही किए हैं। दूसरे समुदाय के प्रति घृणा और अविश्वास को भरने के लिए आरएसएस ने इस काम के लिए हजारों सरस्वती शिशु मंदिरों, विद्याभारती के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों और अपनी शाखाओं को माध्यम के रूप में चुना है।
किताब में आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर प्रकाशन और विद्या भारती प्रकाशन से प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों के मूल्यांकन के लिए बनाई गई समिति की रिपोर्ट और उसकी सिफारिश का जिक्र है। दिल्ली के कुतुबमीनार और उसको बनवाने का श्रेय समुद्रगुप्त को देना जैसे अस्पष्ट तथ्यों को स्कूली शिक्षा में शामिल करना सिफारिश की अहमियत भी प्रमाणित करता है।
गांधी नाम को हटाने की असल वजह
किताब का दूसरा भाग ‘गांधी की हत्या की प्रेतछाया’ गांधी नाम को हटाने के डर की वजह और उनकी हत्या की साजिश से पर्दा न उठाने की वजह ढूंढते शुरू होता है।
गांधी नाम पर अक्सर उठने वाले कई सवालों के जवाब इस किताब में मिलते हैं।
‘गांधी जी की हत्या का कोई अफसोस नही’ जैसे शीर्षकों पर विस्तार से नजर डालने पर पाठकों को यह मालूम पड़ेगा कि आरएसएस ने गांधी जी की हत्या की निंदा करते हुए कभी एक वक्तव्य तक जारी नहीं किया।
भाजपा पर नजर रखते हुए लेखकों ने भाजपा सरकार द्वारा बहुत से मौकों पर सावरकर को फिर से जिंदा किए जाने का वर्णन इस किताब में लिखा है। जैसे साल 2003 में भाजपा सरकार ने संसद भवन में सावरकर की तस्वीर को ठीक महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने लगाया।
भारतीय राष्ट्रवाद को हिन्दू राष्ट्रवाद तक सीमित कर दिया गया
किताब के अंतिम भाग में यह समझाने की कोशिश की गई है कि हिंदुत्व के विचारकों के लेखन में हिंदुत्व की जो धारणा पेश की गई है उसके अनुसार भारत सिर्फ हिंदुओं का देश है, मुसलमान हमारे दुश्मन हैं, वे राष्ट्रद्रोही और गद्दार हैं।
इसको पढ़कर पाठकों को समझ आता है कि यही वह बात है जिसके दिमाग में भर जाने से महात्मा गांधी की हत्या की गई थी और अब बनाए नए पाठ्यक्रम का यह परिणाम भी हमारे सामने आ सकता है।
इतिहास के प्रोफेसर लेखकों ने किताब खत्म करने से पहले एक महत्वपूर्ण तथ्य पाठकों के सामने रखते हुए लिखा है कि साल 1937 में ही सावरकर ने हिन्दू महासभा में दो राष्ट्रों के बारे में बात की थी और मुस्लिम लीग में यह मांग 1938 में उठी, जिसकी प्रतिक्रिया में सावरकर द्वारा अपने बयान बदल दिए गए थे।
‘हिन्दू महासभा से जुड़े लोगों की अंग्रेजों से वफादारी और उसके बाद भी हिन्दू समेत तमाम भारतीयों से खारिज हो चुनावों में हार की हताशा ने गांधी हत्या की नींव तैयार करी।’ जैसी पंक्ति सीख देती है कि जनता हमेशा से अपना मत राष्ट्रहित में ही देना चाहती है।
इस किताब को पढ़ने के बाद सालों से एक ही विचारधारा से जुड़े लोग अपने समाज और राजनीतिक माहौल को समझते हुए स्वयं में एक आलोचनात्मक चिंतन कर सकते हैं, लोकतंत्र के लिए यह बहुत आवश्यक भी है।
(हिमांशु जोशी लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)