Friday, April 26, 2024

कोरोना को प्राकृतिक आपदा घोषित करिए मोदी जी!

पीएम मोदी ने और कोई अपना वादा पूरा किया हो या न किया हो लेकिन एक वादा उन्होंने जरूर पूरा किया है वह है श्मशानों के निर्माण का। एक चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा था कि जहां देखो कब्रिस्तान दिख जाता है लेकिन कहीं श्मशान नहीं दिखता। लिहाजा हम बड़े पैमाने पर श्मशान का निर्माण कराएंगे। अब जबकि कोरोना से राह चलते सड़कों पर मौतें हो रही हैं। घर से लेकर अस्पताल तक लाशों का ढेर लगा है। श्मशान घाटों पर शवों की लंबी कतार लग गयी है। तब प्रधानमंत्री का वह सपना और वादा दोनों पूरा होता दिख रहा है। रिपोर्ट तो यहां तक आयी है कि गुजरात के एक श्मशान में इतने शव जलाए गए कि लोहे की पूरी चिमनी ही गल गयी। अगर हालात यह हैं तो समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह है। किसी आम इंसान तो क्या आईएएस और मंत्रियों तक के परिजनों के लिए अस्पतालों में बेड नहीं मिल रहे हैं। सब कुछ फुल है।

अब कोई कह सकता है कि इसमें सरकार क्या करे? यह तो महामारी है अपने तरह की प्राकृतिक आपदा। लेकिन यह बात बिल्कुल बेमानी है। यह इसलिए महामारी नहीं कही जानी चाहिए क्योंकि इस हालात से एक साल पहले देश गुजर चुका है और उसने इसका अनुभव हासिल कर लिया था। ऐसे में एक मॉडल उसके सामने था जिसे फिर से खड़ा होकर काम शुरू कर देना चाहिए था। इसके साथ ही देश और दुनिया में जब सेकेंड वेव की बातें सामने आ रही थीं तो सरकार क्या कर रही थी? उसने इस पर क्या सोचा था? या फिर उसने सोच लिया था कि देश विश्वगुरू बन चुका है और अब दूसरी बार कोरोना यहां आने की हिम्मत भी नहीं कर सकेगा? इसलिए उस पर ध्यान नहीं दिया गया? और इसीलिए पहले दौर के संकटों से सबक लेते हुए अस्पताल बनवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की जगह उसके समर्थक अयोध्या मंदिर के लिए चंदा उगाही में लग गए। और देखते-देखते पूरा मध्य वर्ग से लेकर आम लोग उस अभियान के हिस्से बन गए। लेकिन सरकार अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकती। वैक्सीन आयी भी तो उसे अपनी जनता के लिए इस्तेमाल करने की जगह उसके एक्सपोर्ट पर जोर दिया गया और कहां-कहां किन देशों को भेज दिया गया उसकी कहानियां सुना कर भक्त अपनी पीठें थपथपा रहे थे। ऊपर से अपनी वैक्सीन को बेचने की गारंटी सुनिश्चित करने की नियति से बाहर प्रवेश के लिए प्रतीक्षारत विदेशी वैक्सीनों को देश में घुसने की अनुमति भी नहीं दी गयी। और जब विपक्ष और खास कर राहुल गांधी ने इसको मुद्दा बनाया और सरकार की कलई खुलने का डर सताने लगा है तो अब उसने इसकी मंजूरी दी है।

कहा जा रहा है कि कोरोना की दूसरी वेब पहले से भी ज्यादा खतरनाक है। वह जानलेवा होने के साथ ही बेहद घातक नतीजे दे रही है। और यही कारण है कि चौतरफा हाहाकार मचा हुआ है। तब ऐसी स्थिति में उससे निपटने के लिए सरकार की ओर से दुगुनी ताकत लगायी जानी चाहिए था। लेकिन हो बिल्कुल उल्टा रहा है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को चुनावी रैलियों से फुर्सत नहीं है। और पिछले सात सालों में सिस्टम ऐसा बना दिया गया है कि वह एक ही आदमी के इशारे पर चलता है। लिहाजा बाकी सारे लोग रहते हुए भी बेकार हैं। ऐसे में न तो गृहमंत्रालय की कोई भूमिका कहीं दिखती है और न ही स्वास्थ्य मंत्रालय कहीं दूर-दूर तक दिख रहा है। एम्स के हेड सिर्फ रोजाना के आंकड़े बता कर केंद्र सरकार की जिम्मेदारियों की इतिश्री कर देते हैं।

कोई पूछ सकता है पीएम मोदी से कि आखिर आपने पीएम केयर्स फंड बनाया था और वह सार्वजनिक नहीं निजी था लेकिन पैसे आपने सार्वजनिक इकट्ठा किए थे। उसका क्या हुआ? कहां गया उसका पैसा? और अब क्या हो रहा है उस फंड का? यह अजीब विडंबना है आपने कोरोना से निपटने के लिए राज्यों को जिम्मेदारी दे दी। लेकिन पैसे सारे खुद इकट्ठा कर लिए। यहां तक कि सीएसआर के पैसे के पीएम केयर्स में ही दिए जाने पर संबंधित उद्योग को छूट मिलने की शर्त डाल दी। ऐसे में जो कुछ राज्यों को पहले मिला भी करता था इस मद में उन्हें उसकी फूटी कौड़ी नसीब नहीं हुई। और ऊपर से राज्यों के जीएसटी बकाए के हिस्से को भी केंद्र दबाकर बैठा हुआ है और आपदा के इस मौके पर भी उसे रिलीज करने के बारे में नहीं सोच रहा है। ऐसे में केंद्र किस स्तर तक आपराधिक भूमिका में है इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

अब जबकि पानी सिर से ऊपर चढ़ गया है। चारों तरफ त्राहि माम-त्राहि माम मचा हुआ है। लोग अपने प्रियजनों को अपनी आंखों के सामने मरते देख रहे हैं और उनके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। तब ऐसी स्थिति में सरकार की क्या भूमिका बनती थी। क्या उसे इस बीमारी को राष्ट्रीय आपदा नहीं घोषित करना चाहिए। जैसा कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मांग भी की है। क्या उसे चुनाव आयोग से बंगाल के चुनाव के बाकी चार चरणों को दो में निपटाने की मांग नहीं करनी चाहिए थी।

क्या उसे यूपी के पंचायत चुनावों को रद्द नहीं कराना चाहिए। और मान लीजिए कुंभ शुरू हो गया, वैसे तो उसे इन हालात में आयोजित करने का कोई कारण ही नहीं था, तो क्या उसे बीच में ही नहीं रोक दिया चाहिए था और सभी को अपने-अपने घरों की ओर लौट जाने या फिर गंगा नदी के किसी भी स्थान पर नहाकर अपनी मनोकामना पूरी कर लेने का विकल्प दे देना चाहिए था। लेकिन जब खून में व्यापार हो और सत्ता एक मात्र लक्ष्य तब जनता और उसके हित गौण हो जाते हैं और अगर कुछ रह जाता है तो स्वहित। और सरकार वही कर रही है। उसे धर्म के कारोबार को बढ़ाना है इसलिए धर्म के धंधे को बंद करने या फिर उस पर किसी तरह की रोक का सवाल ही नहीं उठता। चुनाव से सत्ता हासिल होती है। और जीत हर कुकुर्म को जायज ठहराने का जरिया बन जाती है। इसलिए किसी भी कोरोना से निपटने से ज्यादा रैलियां और जूलस जरूरी हो जाता है। क्योंकि कोरोना में सफलता के बाद भी अगर चुनाव हार गए तो सब कुछ चला जाएगा। लेकिन कोरोना से निपटने में नाकाम होने के बाद भी चुनावी जीत उसे सफलता में बदल देगी। क्योंकि मोदी सरकार और उसके भक्त इसे जनता की मुहर के तौर पर पेश करेंगे।

अगर सरकार नाम की चीज देश और प्रदेश में कहीं चल रही है तो क्या उनकी पहली और सर्वप्रमुख जिम्मेदारी यह नहीं बनती है कि सभी मरीजों को जरूरी इलाज मुहैया कराया जाए और जरूरत पड़ने पर निजी क्षेत्र के सभी अस्पतालों का अधिग्रहण कर उन्हें अपने इस्तेमाल में ले लिया जाए। या निजी अस्पतालों को इस बात के कड़े निर्देश दिए जाएं कि उनके यहां होने वाले कोविड इलाजों में एक निश्चित रकम से ज्यादा राशि नहीं ली जाएगी और लिए जाने पर उसे अपराध समझा जाएगा। मानवता के इस संकट के मौके पर किसी भी तरह के मुनाफे पर जोर मानवता के खिलाफ अपराध से कम नहीं होगा। लेकिन ऐसे लोग इस बात को नहीं समझ सकते जिनके लिए मुनाफा ही मोक्ष है। ऐसे में उनके ऊपर कानून के कोड़े का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। बड़े स्तर पर वैक्सीनेशन के साथ ही जरूरी दवाओं के उत्पादन और जरूरत पड़ने पर विदेश से उनके आयात के विकल्प पर भी विचार किया जाना चाहिए।

दरअसल अभी भी सरकार का पूरा जोर प्रबंधकीय कौशल जिसमें लाकडाउन से लेकर कर्फ्यू और धारा 144 शामिल है। लेकिन उसके साथ ही वह कुंभ भी आयोजित करना चाहती है और चुनाव भी। ऐसे में कोई पूछ सकता है कि दोनों चीजें एक साथ कैसे चल सकती हैं। इसलिए इस दोहरेपन को छोड़ कर जरूरी प्रबंधन के साथ ही चिकित्सा क्षेत्र में आवश्यक अस्पताल, इलाज और दवाओं की जरूरतों को पूरा करने पर जोर दिया जाना चाहिए। या फिर इसके साथ ही जबकि लोगों को एक बार फिर काम छोड़कर घरों की ओर लौटना पड़ रहा है या फिर अपने घरों में ही रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है तो सहायता पैकेज वक्त की जरूरत बन जाती है।

लेकिन यह पिछले साल की तरह कतई नहीं होना चाहिए जिसमें आंकड़े तो बहुत ज्यादा थे लेकिन कहीं कोई ठोस मदद नहीं थी। नतीजतन सारी घोषणाएं वहीं से होने के बाद वहीं खत्म हो गयीं क्योंकि उसमें जमीन पर उतारने जैसा कुछ था भी नहीं। पीएम मोदी और उनकी सरकार को अपने आदर्श पूंजीवादी देश अमेरिका से भी कुछ सीख लेनी चाहिए। जिसमें ट्रम्प के काल में भी एक बिलियन डालर से ज्यादा पैकेज की घोषणा की गयी थी जिसमें लाखों-लाख रुपये मध्य वर्ग तक के लोगों की जेबों में पहुंचे थे। और अभी जबकि बाइडेन की सरकार आयी है तो उसने एक बार फिर उसी या फिर उससे ज्यादा रकम का सहायता पैकेज के तौर पर ऐलान किया है। लिहाजा सरकार को यह गारंटी करनी होगी कि अब न तो कोई व्यक्ति कोरोना से मरेगा और न ही भूख से और न ही मध्य वर्ग का कोई शख्स अपनी ईएमआई न जमा कर पाने के चलते बहुमंजिला टावर से कूदकर आत्महत्या करेगा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

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