Tuesday, April 23, 2024

असम में अध्यापकों के लिए ड्रेस कोड: हिमंत बिस्वा सरमा क्यों लगातार परोस रहे हैं दक्षिपंथी एजेंडा?

असम सरकार के स्कूली शिक्षा विभाग की ओर से शनिवार को राज्य के सभी सरकारी स्कूलों के लिए निर्देश आ गया है कि अध्यापकों को ड्रेस कोड मानना होगा वरना उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। आश्चर्य की बात तो यह है कि कुछ ऐसे पोशाकों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है जो आम प्रचलन में हैं और काफी शालीन भी हैं; जिनको पहनने से किसी प्रकार का देह प्रदर्शन या अश्लीलता की अभिव्यक्ति नहीं होती। आदेश में कहा गया है कि पुरुष और महिला अध्यापक टी-शर्ट और जीन्स नहीं पहन सकते और महिलाएं लेगिंग्स नहीं पहन सकतीं। स्पष्ट नहीं किया गया, पर शायद महिलाओं के लिए प्लाज़ो या चूड़ीदार पैजामा भी प्रतिबन्धित होगा क्योंकि वह कैसुअल या चुस्त हैं।

यह कहा गया है कि कपड़े “साफ-सुथरे, शालीन और शिष्ट” होने चाहिये। और “कैसुअल या पार्टी वियर” स्कूल में न पहने जाएं। यही नहीं रंगों पर भी प्रतिबन्ध है, यानि कपड़ों के रंग “भड़कीले” नहीं होने चाहिये। ड्रेस कोड के तहत महिलाओं को केवल शालीन सल्वार-कुर्ते, मेट्ला-चादोर और साड़ी पहनने की अनुमति होगी और पुरुषों को फाॅर्मल शर्ट और फुलपैंट।

सरकार ने अपने फैसले को जायज़ साबित करने के लिए दलील दी है कि “कुछ लोगों की आदत बन गई है कि वे अपनी मर्जी के पोशाक पहनकार स्कूल आ जाते हैं, जो आम जनमानस को स्वीकार्य नहीं है। चूंकि एक शिक्षक से सभी प्रकार की शालीनता का एक उदाहरण बनने की अपेक्षा की जाती है, विशेष रूप से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय, एक ड्रेस कोड का पालन करना आवश्यक हो गया है जो कार्यस्थल पर मर्यादा, शालीनता, व्यावसायिकता और उद्देश्य की गंभीरता को दर्शाता हो।”

दरअसल असम में कदम-कदम पर हिमंत जी तय कर रहे हैं कि ‘आम जनमानस’ को क्या स्वीकार्य होगा, क्या नहीं। इस वजह से अध्यापकों के एक बड़े हिस्से में गुस्सा है। पर वे विरोध में सड़कों पर नहीं उतर रहे हैं।

विकास के नाम पर शून्य

हर व्यक्ति को मालूम है कि राज्य में क्योंकि विकास का नामोनिशान नहीं है, तो लोगों के ध्यान भटकाने और बेकार की बहसों में उलझाने से ही आगामी संसदीय और विधानसभा चुनावों में एन्टी-इंकम्बेन्सी का मुकाबला किया जा सकेगा, वरना सरमा का बेड़ा गर्क हो सकता है। राज्य में गरीबी, निम्न आय और बेरोज़गारी के साथ-साथ महिलाओं की कार्यशक्ति में हिस्सेदारी का दर भी कम है- केवल 14.2 प्रतिशत। यह भी देखा गया है कि यद्यपि महिलाओं की साक्षरता अब 77 प्रतिशत से अधिक है, पर 15-49 वर्ष की महिलाओं में केवल 1/3 महिलाएं कक्षा 10 पास की हैं। इन प्रश्नों पर असम के मुख्यमंत्री बात नहीं करते।

असम की प्रख्यात महिला नेता और ऑइदेर जोनाकी बाट पत्रिका की पूर्व संपादक जुनु बोरा कहती हैं, “ड्रेस कोड तो हमारा मुद्दा ही नहीं है। सरकार को पहनने और खाने के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। सरकार ने तो कानून-व्यवस्था को चौपट कर रखा है, उसका क्या? गृह मंत्रालय मुख्यमंत्री के पास है पर पिछले दिनों एक नाबालिक 12 वर्षीय बच्ची का तिनसुकिया के मारगेरिटा में बलात्कार कर उसकी हत्या की गई।”

बोरा आग कहती हैं, “पुलिस एसआई जोनमनी राभा उर्फ ‘लेडी सिंघम’ की नृशंस हत्या में पुलिस के उच्च अधिकारी और सोना स्मगलरों के गिरोह शामिल थे, पर मामला दबा दिया गया। असम के समाज में अपराधीकरण बढ़ रहा है। हिमंत बिस्वा सरमा की सरकार इसे रोकने में पूरी तरह नाकाम ही नहीं है बल्कि उसे प्रश्रय दे रही है। आंदोलनों को बाधित करने के लिए धारा 144 बारहों माह लागू रहती है। फिर भी विपक्षी राजनीतिक दल विरोध में उतर रहे हैं।”

हिमंत गैर-मुद्दों को मुद्दा बनाने में माहिर बन चुके हैं, पर इसके पीछे छिपी है ध्रुवीकरण की राजनीति। और टार्गेट पर हैं मुस्लिम व आदिवासी।

बाल विवाह को बनाया मुद्दा

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा विवादास्पद मुद्दों को उछालकर हर बार जनता का ध्यान असली सवालों से भटकाना चाहते हैं। इससे पहले भी ऐसे सवाल आए हैं जो राज्य के मुस्लिमों या आदिवासियों को लक्ष्य करते हैं। जनवरी में मुख्यमंत्री ने बाल विवाह का मामला उठा दिया था। उन्होंने कहा कि 2026 तक बाल विवाह के खिलाफ एक जबरदस्त अभियान जारी रहेगा। सभी ऐसे परिवार जिनके यहां कम उम्र के बच्चों की शादी करायी गई होगी, उनको गिरफ्तार कर कारावास की सज़ा दी जाएगी। यही नहीं उन्होंने तो महिलाओं के विवाह की सही उम्र 22-30 बतायी है।

यह स्पष्ट था कि हिमंत किन को टार्गेट कर रहे थे- मुस्लिमों और अदिवासियों को। बाल विवाह कराने के जुर्म में इस वर्ष फरवरी माह में कम से कम 3,000 लोगों की गिरफ्तारी हुई जिनमें से 100 के करीब तो औरतें थीं। परिवारों को तोड़ दिया गया। घरों के चुल्हे बुझ गए, किसानों की फसल सूख गई, बच्चों की पढ़ाई छूट गई और घर के बूढ़ों का इलाज बंद हो गया। पाॅक्सो ऐक्ट में 6,000 से अधिक लोगों को अभियुक्त बनाया गया, जहां पति, ससुर और सास के साथ-साथ विवाह कराने वाले मौलाना या पुजारी भी थे। बाकी को बाल विवाह निरोधक कानून 2006 के तहत गिरफ्तार किया गया।

क्या हिमंत बिस्वा सरमा को यह मालूम नहीं कि बाल विवाह के पीछे अधिकतर आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक कारण होते हैं, जिन्हें ज़ोर-जबरदस्ती के माध्यम से खत्म नहीं किया जा सकता है? गरीबी व अशिक्षा भी बाल विवाह के प्रमुख कारण हैं। वैसे तो असम के बाहर भी कई समुदायों में बाल विवाह होते रहे हैं- मसलन राजस्थान में, जहां भंवरी बाई ने पहली बार समाज में इस सवाल पर बातचीत शुरू की थी। अगर देश भर में हिमंत की राजनीति चलती तो आबादी का एक बड़ा हिस्सा जेल के सींखचों में कैद होता।

पर सैकड़ों परिवारों के मुखिया जब जेल भेजे दिये गए, तो समाज में भारी उथल-पुथल मच गई। घर में रहने वाली पारिवारिक महिलाएं प्रताड़ित हुईं क्योंकि घर का इकलौता कमाने वाला जेल चला गया। बुज़ुगों की जेल में तबियत बिगड़ गई। यह साफ जाहिर है कि यह लंबा अभियान एक किस्म की ‘एथनिक क्लिनज़िग’ है, जहां मुस्लिमों और अदिवासी समुदाय को सबसे अधिक झेलना पड़ेगा। आदिवासी समुदाय में भी कम उम्र में विवाह उनकी संस्कृति व जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा बन गया है। बिना उनसे बातचीत किये और उनकी सामाजिक स्थिति को उन्नत किये बाल विवाह रोकने का अभियान उन्हें अलगाव में ही डाल सकता है।

बहुपत्नी प्रथा पर हमला, फिर मुसलमान टार्गेट बने

असम के मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार के दो टर्म पूरे होने पर एक समारोह में कहा कि “बाल विवाह का पता लगाते-लगाते हमारे लोगों को पता चला कि कई लोगों (मुस्लिम) के एक से अधिक विवाह हुए हैं। हमारे देश में एक पुरुष का एक ही विवाह हो सकता है। हम इन उत्पीड़ित महिलाओं को राहत दिलाएंगे। इसके लिए हम एक एक्सपर्ट समिति बनाएंगे जो तय करेगी कि राज्य की कार्यपालिका बहुविवाह पर रोक लगाने के लिए अधिकृत है या नहीं।” हालांकि उन्होंने वादा किया कि समिति में जो कानूनविद और विद्वान होंगे वे पहले मुस्लिम पर्सनल लाॅ, शरिया ऐक्ट 1937 और संविधान की धारा 25 का अध्ययन करेंगे और उसके बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा, यह घोषणा मुस्लिम परिवारों के लिए काफी परेशानी की बात बन गई है।

एक बार निजी कानून में छेड़छाड़ होने लगी तो “जेंडर जस्ट” कानून की जगह हिंदू कानून इन अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों पर थोप दिये जाएंगे। भले ही हिमंत कह रहे हैं कि निर्णय आम सहमति पर आधारित होगा। उन्होंने यह कवायद शुरू कर पहले से ही समाज व परिवार में विभाजन के बीज बो दिये हैं। आज की तारीख़ में बिरले मुस्लिम परिवार होंगे जहां चार पत्नियां होंगी। पर मुसलमानों को बदनाम करने के मकसद से और बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या का भय हिंदुओं में पैदा करने के लिए यह प्रचार काफी है।

गो-मांस पर राजनीति

इसी तरह 2021 में हिमंत बिस्वा सरमा ने गो रक्षा कानून 1950 में संशोधन करवाए थे और उसे काफी खतरनाक बना दिया। स्वतंत्र विधायक अखिल गोगोई ने विधान सभा में संशोधन को पूरी तरह से “संविधान-विरोधी और साम्प्रदायिक” बताया था। संशोधित कानून ने गोमांस को राज्य में किसी ऐसे जिले में ले जाना जिसकी सरहद दूसरे देश से जुड़ी हो (बंगलादेश), किसी अन्य राज्य में ले जाना (बिना पंजीकरण व परमिट), खरीदना व बेचना जुर्म करार दिया। जिस पर 3-8 साल कारावास और 3-5 लाख रुपये जुर्माना का प्रावधान तक है। नए कानून के तहत पुलिस को बेलगाम कर दिया गया, वो किसी भी घर में जबरन घुसकर तलाशी ले सकती है और सम्पत्ति जब्त कर सकती है तथा किसी को भी शक के आधार पर गिरफ्तार कर सकती है।

राज्य भर में गिरफ्तारियों का सिलसिला भी शुरू हो गया है और अपने को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी व्यक्ति पर डाल दी गई। सैकड़ों केस दर्ज हुए और सैकड़ों गिरफ्तारियां भी हुईं। हर कोई जानता है कि असम और उत्तर पूर्वी राज्यों में सबसे गरीब आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के लोग हैं। इसलिए उनके लिए सस्ते प्रोटीन का एकमात्र स्रोत गो-मांस है। उन्होंने कहा कि यह सदियों से उनकी खाद्य संस्कृति रही है। और वे दुधारू गाय का वध नहीं करते। फिर भी उन्हें उत्पीड़न का शिकार बनाया गया और उनके भोजन को उनके मुंह से छीना जा रहा है। असम के तमाम संगठनों और दलों ने इसका पुरजोर विरोध किया, पर हिमंत तो अपने को भाजपा के सबसे कट्टर हिंदूवादी मुख्यमंत्री साबित करने पर आमादा हैं।

जिन लोगों ने हिमंत के पुराने रिकॉर्ड को देखा है, वे जानते हैं कि हिमंत जब कांग्रेस में थे, उनकी विचारधारा उदारवादी थी और 2016 चुनाव से पहले वे उग्र दक्षिणपंथ का मिजाज़ अख्तियार कर असम में भाजपा की चुनावी गणित को प्रभावित करने लगे। वे 1971 की जगह 1951 को एनआरसी के लिए बेस ईयर की वकालत करने लगे। भाजपा के अपर असम में बेहतर प्रदर्शन ने हिमंत के बचे-खुचे उदार चेहरे को पूरी तरह बदल दिया।

मदरसों में जुमे की छुट्टी खत्म करने से लेकर मदरसों को आम स्कूलों में बदलने और लगातार एक खास धार्मिक समुदाय के विरुद्ध मुहिम चलाकर हिमंत ने असम में ध्रुवीकरण तेज़ किया। बंगाली हिंदुओं और बंगाली मुसलमानों के बीच दरार पैदा कर दी। आज हिमंत बिस्व सरमा एक दक्षिणपंथी, कट्टर हिंदुत्वादी, मुस्लिम-आदिवासी-महिला विरोधी नेता के रूप में स्थापित हैं। क्या असम को गुजरात माॅडल के तर्ज़ पर गढ़ा जाएगा?

(कुमुदिनी पति, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं और वर्तमान में सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles