निर्वाचन आयोग सरकार के चंगुल से मुक्त: देर आयद दुरुस्त आयद

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सर्वोच्च न्यायलय की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने आखिरकार निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिये निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की सरकारी व्यवस्था को बदलने का ऐतिहासिक फैसला ले ही लिया है। मौजूदा व्यवस्था की खामियों के कारण निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर तो सवाल उठते ही रहे, साथ ही इसकी विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में रही।

आज हालत यह है कि अगर आयोग सचमुच निष्पक्षता से फैसले लेता भी है तो भी उस पर उंगली उठ ही जाती है। क्योंकि सरकारी नियंत्रण और सत्ताधारी दलों की कारगुजारियों पर से नजर फेर देने की मजबूरी के कारण उसकी विश्वसनीयता का  निरन्तर ह्रास होता गया। आयोग आज केवल एक सरकारी विभाग की तरह ही काम करता है। जिसकी मालिक सरकार है और परोक्ष रूप से उसकी जिम्मेदारी सत्ताधारी के हितों की रक्षा करना है।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हम अपने लोकतांत्रिक सिद्धान्तों की दुहाई देते नहीं थकते। लेकिन हमारे लोकतंत्र पर घुन की तरह लगे राजनीतिक भ्रष्टाचार की ओर से हम आंखें फेर देते हैं। जब तक राजनीतिक भ्रष्ट आचरण पर रोक नहीं लगती तब तक भारत में फैले भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसी तरह जब तक चुनाव व्यवस्था और निर्वाचन आयोग में सुधार नहीं आता तब तक राजनीतिक भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं मिल सकती।

देखा जाय तो भ्रष्टाचार की गंगोत्री चुनाव से ही बहनी शुरू होती है। मसलन निर्वाचन आयोग ने लोकसभा चुनाव में बड़े राज्यों के प्रत्याशियों के लिये खर्च की सीमा 95 लाख रुपये और छोटे राज्यों के लिये 75 लाख रुपये तय कर रखी है। कौन नहीं जानता कि बिना धन बल के चुनाव जीतना नामुमकिन है। लोकसभा चुनाव में एमपी बनने के लिये करोड़ों रुपये खर्च करने होते हैं। पानी की तरह शराब बहानी होती है।

अब तो वोटरों को भी सीधे वोट के बदले नोट देने की शिकायतें आम हो गयी हैं। चुनाव में 95 लाख या 75 लाख रुपये के अलावा करोड़ों की धनराशि कहां से आती है और कहां चली जाती है। यह खुला रहस्य किसी से भी इसलिये नहीं छिपा रह सकता क्योंकि इस हमाम में डुबकी लगाये बिना चुनाव जीतना संभव नहीं है।

देखा जाय तो देश में भ्रष्टाचार और अनाचार की यही असली जड़ है। निर्वाचन आयोग विपक्ष के उम्मीदवारों पर नजर तो रखता है मगर सत्ताधारियों पर उसकी नजर नहीं पड़ती। जो लोग अनुचित तरीकों से सत्ता में आयेंगे उनसे सदाचार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

निर्वाचन आयोग की नकेल अपने हाथ में रखने की जिद नेक-नीयती की निशानी नहीं है। अगर सरकारें सचमुच स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव चाहती हैं तो फिर स्वतंत्र निर्वाचन आयोग से डर क्यों? सीबीआइ निदेशक के चयन के लिये नयी व्यवस्था इसलिए की गयी ताकि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर कर अपना काम कर सके। जब सीबीआइ की निष्पक्षता के लिये प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में प्रतिपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित एक जज की कमेटी की आवश्कता महसूस की गयी तो निर्वाचन आयोग के सदस्यों के लिये ऐसी ही कमेटी क्यों नहीं।

सीबीआइ ही नहीं मुख्य सतर्कता आयुक्त और केन्द्र तथा राज्यों के सूचना आयोगों के सदस्यों के लिये भी एक सक्षम और स्वतंत्र कमेटी के गठन की व्यवस्था है। इसी निष्पक्षता और स्वतंत्रता के लिये राज्यों के लोकायुक्तों और केन्द्र के लोकपाल के गठन के लिये भी एक स्वतंत्र कमेटी के गठन की व्यवस्था है। अगर सरकार द्वारा नियुक्त प्राधिकारी सचमुच स्वतंत्र और निष्पक्ष थे तो इन संस्थाओं के सदस्यों के चयन का एकाधिकार सरकार को क्यों नहीं सौंपा गया?

लोकतंत्र की मजबूती और उसके लिये चुनाव व्यवस्था की सुचिता के लिये काफी पहले से बहस चलती रही है और उन बहसों के फलस्वरूप चुनाव सुधार हेतु कमेटियों का गठन भी होता रहा है। समितियों की सिफारिशों पर कई महत्वपूर्ण निर्णय भी लिये जाते रहे हैं। जैसे मतदाताओं की न्यूनतम उम्र सीमा 18 वर्ष करना, फोटो पहचान पत्र की व्यवस्था, ईवीएम मशीनों का चलन, मतदान से पहले चुनावी सर्वेक्षणों पर रोक और नोटा की शुरुआत आदि कई नयी व्यवस्थाएं शुरू हुईं, मगर चुनाव आयोग को निष्पक्ष और सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की दिशा में प्रयास नहीं हुए।

चुनाव सुधार की दिशा में सबसे पहले 1990 में दिनेश गोस्वामी कमेटी का गठन हुआ। इस समिति ने सिफारिश की थी कि राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग के साथ पंजीकरण कराना चाहिए और अपने धन के स्रोतों का खुलासा करना चाहिए। इसने यह भी सिफारिश की कि चुनावों में धन और बाहुबल के इस्तेमाल पर रोक लगाई जानी चाहिए।

गोस्वामी समिति के बाद 1998 में इंद्रजीत गुप्त समिति ने सिफारिश की कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग के पास अधिक शक्तियां होनी चाहिए। इसने यह भी सिफारिश की कि राजनीतिक दलों को अपने वार्षिक लेखा परीक्षित खातों को चुनाव आयोग को प्रस्तुत करने की आवश्यकता होनी चाहिए।

इसके बाद 2001 में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने सिफारिश की कि लोकसभा (संसद के निचले सदन) और राज्य विधानसभाओं के चुनावों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली शुरू की जानी चाहिए।

इसके बाद 2015 में विधि आयोग ने चुनाव में धन और बल के इस्तेमाल को अपराधिक कृत्य मानने की सिफाारिश की। उसके बाद 2017 में एक विशेषज्ञ कमेटी ने इवीएम के साथ वीवीपैट की व्यवस्था की सिफारिश की। मगर अब तक निर्वाचन आयोग को सरकार के चंगुल से मुक्त करने की बात किसी ने नहीं की।

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत भारतीय चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को की गयी थी। भारत में संसद और राज्य विधान मंडलों के निर्वाचन और राष्ट्रपति तथा उप राष्ट्रपति के निर्वाचन आयोजित करने तथा निर्वाचन सूचियां तैयार करने के पर्यवेक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का कार्य निर्वाचन आयोग के सौंपा गया। आयोग में वर्तमान में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त होते हैं।

पहले पहल 1950 में जब आयोग गठित हुआ तब से और 15 अक्टूबर 1989 तक केवल मुख्य निर्वाचन आयुक्त सहित यह एक एकल-सदस्यीय निकाय था। 16 अक्टूबर 1989 से 1 जनवरी, 1990 तक यह आरवीएस शास्त्री (मु.नि.आ.) और निर्वाचन आयुक्त के रूप में एसएस धनोवा और वीएस सहगल सहित तीन-सदस्यीय निकाय बन गया। 2 जनवरी 1990 से 30 सितम्बर 1993 तक यह एक एकल-सदस्यीय निकाय बन गया और फिर 1 अक्टूबर 1993 से यह तीन-सदस्यीय निकाय बन गया।

मुख्य निर्वाचल आयुक्त समेत सभी सदस्यों की नियुक्ति केन्द्र सरकार अपनी इच्छा और सुविधानुसार करती है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद प्रधानमंत्री, लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की कमेटी आयोग के सदस्यों का चयन करेगी।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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