Friday, April 26, 2024

पूर्व चुनाव आयुक्तों की कड़ी प्रतिक्रिया, कुरेशी ने कहा-पीएम भी नहीं बुला सकते मुख्य चुनाव आयुक्त को

नई दिल्ली। पीएमओ द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त को बैठक में बुलाने का मसला बड़ा बनता जा रहा है। इसको लेकर न केवल विपक्षी दलों बल्कि पूर्व चुनाव आयुक्तों ने भी कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा है कि “यह संवैधानिक भावना का उल्लंघन है, भले ही यह मुद्दा कितना भी महत्वपूर्ण या ज़रूरी हो”। कुरैशी ने कहा, ‘यह बर्दाश्त करने वाली बात नहीं है। क्या अगर न्यायिक सुधार को लेकर कोई चर्चा करनी होगी तो प्रधानमंत्री सीधे CJI को ही बैठक में बुला लेंगे? प्रधानमंत्री भी इस तरह से सीईसी को किसी बैठक में नहीं बुला सकते। यह उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।’

उन्होंने हिदायत देते हुए आगे कहा, “यह घटना एक अपराध है जो दोबारा नहीं होना चाहिए। संविधान में परिकल्पित संस्थानों के बीच बातचीत में एक हाथ की दूरी पवित्र है। इसे न केवल बनाए रखा जाना चाहिए बल्कि बनाए रखने के लिए “देखा” भी जाना चाहिए।”

उपरोक्त बातें अंग्रेजी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के लिये “Summoning CEC, EC to PMO is outrageous” शीर्षक से लिखे एक लेख में कही है।

अपने लेख की शुरुआत करते हुये पूर्व चुनाव आयुक्त ने कहा है, “शुक्रवार की सुबह, मुझे द इंडियन एक्सप्रेस में एक चौंकाने वाला शीर्षक मिला कि मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्तों को प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव के साथ बैठक में भाग लेने के लिए पीएमओ द्वारा बुलाया गया था”।

अपनी नियुक्ति के वाकये को याद करते हुए उन्होंने लिखा है, “मेरी स्मृति 27 जून, 2006 को वापस चली गई, जब मुझे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव पुलक चटर्जी का फोन आया, जिसमें मुझे बताया गया कि मुझे चुनाव आयोग के रूप में नियुक्ति के लिए विचार किया जा रहा है और मुझसे पूछा कि क्या मैं इसे स्वीकार करूंगा”।

सरकार में पोस्टिंग वैकल्पिक नहीं है; आप अभी नियुक्त हैं। फिर यह सवाल क्यों? चटर्जी ने कारण स्पष्ट किया कि मुझे आईएएस से इस्तीफा देना होगा।

एस वाई कुरेशी ने आगे कहा कि “आईएएस से मेरे इस्तीफे पर चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्ति सशर्त क्यों थी? इसमें कार्यपालिका/सरकार से दूरी बनाने का महत्वपूर्ण संवैधानिक सिद्धांत निहित है। महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे नियुक्त करने वाले प्रधानमंत्री के बीच एक दीवार खड़ी कर दी गई थी”।

भारत सरकार के सचिव के रूप में, मैं प्रधान मंत्री की दया पर था, लेकिन चुनाव आयोग के रूप में, मैं स्वतंत्र, तटस्थ और उनसे दूर था। उनसे मिलने या किसी अनुरोध के साथ मुझे बुलाने/बुलाने का कोई सवाल ही नहीं था, किसी निर्देश की तो बात ही छोड़िए।

वह मुझे नियुक्त कर सकते हैं, आदेश नहीं दे सकते

पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी सरकार की भूमिका औक चुनाव आयुक्त की भूमिका की परस्पर निर्भरता और स्वतंत्र अस्तित्व की ज़रूरत को स्पष्ट करते हुए अपने लेख में कहते हैं, “वह मुझे नियुक्त कर सकते थे, लेकिन मुझे आदेश नहीं दे सकते थे, या चीजों की संवैधानिक योजना के कारण मुझे हटा नहीं सकते थे। स्वतंत्र चुनाव आयोग राष्ट्र को संविधान की देन है। स्वतंत्र और निष्पक्ष और विश्वसनीय चुनाव चुनाव आयोग की अनिवार्य शर्त है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा बताते हुए बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है।

संविधान का उल्लंघन है यह

उन्होंने मौजूदा घटनाक्रम के बाबत आगे लिखा है कि “पीएमओ द्वारा न केवल सीईसी बल्कि पूर्ण पीठ को बुलाना या “आमंत्रित” करना संविधान का उल्लंघन है, भले ही यह मुद्दा कितना भी महत्वपूर्ण या ज़रूरी क्यों न हो। प्रधानमंत्री के पीएस की तो बात ही छोड़िए, यहां तक ​​कि खुद ताक़तवर प्रधानमंत्री भी इस अस्वीकार्य कृत्य में शामिल नहीं हो सकते। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रधान मंत्री के पीएस प्रधान न्यायाधीश को इस तरह का सम्मन जारी करते हैं, पूर्ण पीठ के साथ आते हैं और न्यायिक सुधारों पर उनके साथ बैठक में भाग लेते हैं? वह अदालत की अवमानना ​​के मामले में कवर के लिए दौड़ेंगे”।

मेरी राय में, इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग की तटस्थता और स्वतंत्रता में कोई अंतर नहीं है। दोनों स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकरण हैं जिन्हें जानबूझकर कार्यपालिका से अलग किया गया है। सीईसी और ईसी को बुलाने की बात नहीं है, पीएम के पीएस बैठक के सार्वजनिक ज्ञान के बिना और इसमें क्या हुआ, ईसीआई को भी नहीं बुला सकते हैं।

सभी तरह के राजनेता अपनी याचिकाओं या शिकायतों या सुझावों के साथ नियमित रूप से चुनाव आयोग के पास आते हैं, लेकिन पूरी पारदर्शिता के साथ। मैं अपने दो सहयोगियों की उपस्थिति पर ज़ोर देते हुए, उनमें से किसी से भी अकेले नहीं मिला। पारदर्शिता यहाँ महत्वपूर्ण शब्द है और पारदर्शिता की धारणा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।

क्या है प्रोटोकॉल वरीयता

आगे उन्होंने प्रोटोकॉल के बाबत लिखा है कि “सीईसी वरीयता के क्रम में बहुत अधिक है – नौवां, जबकि प्रधानमंत्री का पीएस 23 वां है। ऐसे उच्च संवैधानिक पदाधिकारी को किसी अधिकारी के साथ बैठक में भाग लेने के लिए कैसे बुलाया जा सकता है, चाहे वह कितना ही उच्च और शक्तिशाली क्यों न हो? क़ानून मंत्रालय, जो सभी क़ानूनी और संवैधानिक मामलों पर सरकार को सलाह देता है, को यह बताने से बेहतर पता होना चाहिए कि पीएमओ सीईसी/ईसी के भाग लेने की “उम्मीद” करता है”।

एक और वाकये को याद करते हुए एस वाई कुरेशी ने कहा है कि “एक दिन, मुझे तत्कालीन क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली का फोन आया। उन्होंने फोन पर कहा – “श्री कुरैशी, आप चुनावी सुधारों का मुद्दा उठाते रहे हैं। आप मेरे कार्यालय में एक कप चाय के लिए क्यों नहीं आते ताकि हम उन पर चर्चा करें?” मैं ठीक था, लेकिन केवल छह सेकंड के लिए। मेरा वहां जाना संविधान की भावना का उल्लंघन होता। अतः मैंने आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। इसके बजाय, मैंने माननीय मंत्री से अनुरोध किया: “महोदय, आपके इस तरह के प्रस्ताव के लिए धन्यवाद, लेकिन इसके बजाय आप खुद क्यों नहीं आते? मैं आपको अपने भाई आयुक्तों और वरिष्ठ अधिकारियों से मिलवाता हूँ।” मोइली बहुत दयालु थे, अगले दिन अपने चार शीर्ष अधिकारियों के साथ आये।

अपने लेख में पूर्व चुनाव आयुक्त कुरेशी लिखते हैं, “एक छोटी अर्ध-शिष्टाचार बैठक होने की उम्मीद थी जो तीन घंटे से अधिक समय तक चली। उन्होंने पूछा कि क्या हम चुनावी सुधारों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने के लिए सात क्षेत्रीय सम्मेलनों की मेजबानी में मंत्रालय में शामिल होना चाहेंगे। हम सहज ही राजी हो गए। जब सभी क्षेत्रीय बैठकें समाप्त हो गईं, तो अंतिम राष्ट्रीय बैठक की व्यवस्था पर चर्चा करने के लिए कानून मंत्री दूसरी बार चुनाव आयोग के पास आए।

जैसे ही सुधारों को अमल में लाया जा रहा था, मोइली को दूसरे मंत्रालय में स्थानांतरित कर दिया गया और उनकी जगह सलमान खुर्शीद को ले लिया गया। मैंने विरोध करने के लिए प्रधानमंत्री को फोन किया कि जब मोइली ने राष्ट्रीय सहमति बनाई थी, तो आपने उनका और हमारे छह महीने के सभी कामों को पूर्ववत करते हुए उनका तबादला कर दिया। उन्होंने कहा, “चिंता मत करो। सलमान इस काम को आगे बढ़ाएंगे। मैं उसे तुम्हारे पास भेजूंगा।” ध्यान दें कि प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा, “जाओ और उनसे मिलो”।

निश्चित रूप से, खुर्शीद एक सप्ताह के भीतर आयोग के पास आए और हमें सुधारों को आगे ले जाने के बारे में आश्वस्त किया। यह अलग बात है कि प्रस्ताव फेल हो गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्रीय कानून मंत्री, जो चुनाव आयोग के प्रशासनिक मंत्रालय का नेतृत्व करते हैं और हमारे बजट को मंजूरी देते हैं, संविधान की भावना को ध्यान में रखते हुए, चार महीने में तीन बार चुनाव आयोग का दौरा किया।

अपने लेख के आखिर में पूर्व चुनाव आयुक्त मौजूदा पूरे घटनाक्रम पर संदेह जताते हुए कहते हैं, “सीईसी और ईसी की डरावनी और घृणा की प्रारंभिक प्रतिक्रिया सबसे सुखद थी और मैं उन्हें सलाम करता हूं। लेकिन उन्हें “अनौपचारिक बातचीत” में शामिल होने के लिए क्यों राजी किया गया, यह बाद में मेरे लिए पहेली बन गया। चुनाव से ठीक पहले पीएस की पीएम से औपचारिक या अनौपचारिक, ऑनलाइन या पीएमओ या ईसीआई में बैठक अनावश्यक संदेह पैदा करती है। कौन जाने क्या चर्चा हुई। चुनाव की तारीखें? या कुछ और”?

कुछ अन्य पूर्व चुनाव आयुक्तों की प्रतिक्रियायें

पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी के अलावा कुछ अन्य पूर्व चुनाव आयुक्तों ने भी अपनी प्रतिक्रिया इंडियन एक्सप्रेस को दी है। और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पीके मिश्रा के साथ मुख्य चुनाव आयुक्त की बैठक को ग़लत बताया है।

पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्ण मूर्ति (फरवरी 2004 से जून 2005) ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा – “हम सब यही कहते हैं कि संवैधानिक गरिमा को ध्यान में रखते हुए सीईसी को सरकार के साथ ऐसी किसी बैठक में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। अगर चर्चा की ज़रूरत पड़े तो सरकार को अपनी बातें लिखित में चुनाव आयोग को भेजनी चाहिए और लिखित में चुनाव आयुक्त जवाब भी दे सकते हैं।”

वहीं एक अन्य पूर्व चुनाव आयुक्त ओ रावत ने कहा, ‘जब मैं उस पद पर था तो ऐसा कभी नहीं हुआ। किसी मंत्रालय ने इस तरह से बैठक में शामिल होने के लिए पत्र नहीं लिखा। किसी भी सरकारी अधिकारी की अध्यक्षता में ऐसी कोई बैठक नहीं हुई जिसमें सीईसी को भी शामिल होना पड़ा हो। तीनों आयुक्तों ने औपचारिक बैठक में शामिल न होकर संवैधानिक गरिमा का ध्यान रखा है। लेकिन अलग से बातचीत करना भी दिखाता है कि वे किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते थे। बहुत जल्द पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में अगर सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त को बैठक में बुला लेगी तो सवाल उठेंगे। अगर सरकार को सुधारों को लेकर भी बात करनी थी तो नियमों के तहत चर्चा करनी चाहिए थी”

पूर्व सीईसी एन गोपालस्वामी ने कहा कि – “मुझे नहीं लगता इसमें कोई दिक्कत है। अगर पीके मिश्रा की औपचारिक बैठक खत्म हो गई थी और बाद में तीनों आयुक्तों ने चर्चा की तो उन्हें अपनी बात रखने से कोई रोक नहीं सकता। जब औपचारिक बैठक खत्म हो गई तो कोई भी उस बैठक की अध्यक्षता नहीं कर रहा था। ये केवल आपस में एक बातचीत ही थी।”

गौरतलब है कि चुनाव आयोग को कानून मंत्रालय की तरफ से पत्र भेजा गया था और कहा गया था कि चुनावी सुधारों को लेकर कुछ आवश्यक चर्चा करनी है इसलिए बैठक में मुख्य चुनाव आयुक्त को भी शामिल होना है। चुनाव आयोग के अधिकारियों ने पत्र की भाषा पर भी ऐतराज़ जताया था और कहा था कि यह किसी ‘समन’ की तरह लगती है। वरिष्ठ अधिकारियों के मुताबिक़ सीईसी सुशील चंद्रा इस तरह बुलाए जाने से खुश नहीं थे। बावजूद इसके 16 नवंबर को एक ऑनलाइन मीटिंग हुई। जिसमें सुशील चंद्रा और दो अन्य सहयोगी पीके मिश्रा के साथ अनौपचारिक बातचीत में शामिल हुए।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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