नई दिल्ली। इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के 11 जून, 2020 के ट्वीट “गुजरात, हालांकि आर्थिक रूप से उन्नत है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से एक पिछड़ा प्रदेश है। वहीं दूसरी तरफ बंगाल आर्थिक रूप से पिछड़ा है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से संपन्न राज्य है”। फिलिप स्प्रैट के 1939 में लेखन के मुतबिक।
ब्रिटिश इतिहासकार फिलिप स्प्रैट को उद्धृत करते हुए यह बात रामचन्द्र गुहा ने तब लिखी थी, जब उनको 2018 में अहमदाबाद विश्वविद्यालय के मानद प्रोफेसर पद पर नियुक्त किये जाने को हिंदुत्ववादी शक्तियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। अहमदाबाद में आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने गुहा की नियुक्ति के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शन जारी रखा, जिसे देखते हुए रामचंद्र गुहा ने इस नियुक्ति को यह कहकर ठुकरा दिया था कि सत्तारूढ़ भाजपा ने उनके अहमदाबाद विश्वविद्यालय कार्यकाल को स्वीकार करने को असंभव बना दिया था। यह विवाद काफी चर्चित रहा था, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ही नहीं वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण भी गुजरात के बचाव में कूद पड़ी थीं।
लेकिन देश के जनमानस में गुजरात को लेकर लगातार दो तस्वीरें समानांतर चलती रहती हैं। आजादी के बाद से गुजरात को लंबे समय तक बापू के राज्य के तौर पर देश में जाना जाता रहा है। ‘वैष्णव जन तो तेने ही कहिये, जे पीर पराई जाणे रे’, वाला गुजरात 2002 के नरसंहार के बाद नाटकीय ढंग से बदल जाता है। हम बिल्कुल बदले ही गुजरात के साथ रूबरू होते हैं, और आने वाले वर्षों में इसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश देश को करनी पड़ती है।
2002 के बाद के गुजरात को दो नजरिये से देखने की शुरुआत होती है। एक तरफ गुजरात के प्रभुत्वशाली सामाजिक दायरे से मुस्लिम समुदाय का बहिर्गमन और उनके लिए शहरों में घेटोआइजेशन, और दूसरी तरफ अहमदाबाद, बड़ौदा और सूरत जैसे प्रमुख शहरों के नवीनीकरण, सौंदर्यीकरण और इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार की कहानी। लेकिन इसके साथ ही यह भी जानकारी छनकर आने लगती है कि गुजरात के पारंपरिक उद्योग-धंधों और विशेषकर केमिकल और सिरेमिक उद्योग की हालत खस्ता होती जा रही है। गुजरात राज्य का घाटा लगातार बढ़ रहा है। लेकिन गुजरात की वाइब्रेंट तस्वीर का नैरेटिव 2010 के बाद से ही देश में योजनाबद्ध ढंग से जिस प्रकार से आना शुरू हुआ, उसने आने वाले वर्षों में पूरे देश को ही अपने आगोश में कैसे ले लिया, इस बारे में आज हम लोग बेहतर ढंग से जानते हैं।
2014 के ‘गुजरात मॉडल’ से पूरे देश की आंखें चुंधिया गई थीं। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ गुजरात ब्रांड की मुहर, लोकसभा चुनाव में देश को प्रति वर्ष 2 करोड़ रोजगार, इन्फ्रास्ट्रक्चर, उद्योग धंधों, किसानों को दोगुनी आय जैसे मुद्दे आम जनता के सिर चढ़कर बोल रहे थे। आज ‘गुजरात मॉडल’ की कहानी देश में नहीं सुनाई जाती है। लेकिन ‘वाइब्रेंट इंडिया’ को अवश्य विदेशों और विशेषकर पश्चिमी देशों में बेचा जा रहा है, जिसके लिए देश के भीतर विदेशी निवेश को बेहतर बनाने के लिए रेड कॉर्पेट स्वागत, श्रम कानूनों सहित जल-जंगल-जमीन से जुड़े कानूनों में लगातार व्यापक पैमाने पर बदलाव कर नए कानून बनाये जा रहे हैं।
पश्चिमी देशों के लिए अनुकूल माहौल का ही फल है जो पीएम मोदी की अगवानी के लिए अमेरिका, फ़्रांस सहित ऑस्ट्रेलिया और जापान के शासनाध्यक्ष पलक-पांवड़े बिछाते हैं। विदेशी धरती पर पीएम मोदी के स्वागत को फिर देश में वापस आम जनता की फीड के लिए दोहन कर उन्हें बताया जाता है कि तुम्हें भले ही मोदी की कदर न हो, लेकिन गोरी चमड़ी वालों को उनकी महत्ता का अंदाजा है।
इस पूरी रामकहानी में शुरू से लेकर अंत तक सिर्फ एक बात को ध्यान में रखा जाता है कि कैसे एक व्यक्ति विशेष की छवि को अधिक से अधिक निखारा जाये। सारी कायनात को ही एक व्यक्ति के इर्दगिर्द रेशम के कीड़े की तरह दिन-रात बुनने की कोशिश को आप भारतीय मीडिया, भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों, विधानसभा के चुनावों, विदेशी दौरों, वंदे भारत ट्रेन को हरी झंडी देने सहित हजारों-हजार माध्यमों में देख सकते हैं।
लेकिन आज बात गुजरात उच्च न्यायालय को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत, सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी की है, और उसकी टिप्पणी भी यही सवाल कर रही है- “गुजरात हाईकोर्ट में आखिर हो क्या रहा है?” यह टिप्पणी 21 अगस्त के दिन न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं उज्जवल भुयान की बेंच की ओर से आई है, जिनके समक्ष गुजरात की एक रेप पीड़िता महिला के एबॉर्शन कराने के अधिकार का मामला आया। देश में गर्भपात के लिए कानून बना है, जो जाहिर है सारे देश के लिए एक समान है। लेकिन देश में समान नागरिक संहिता लागू किये जाने की वकालत करने में सबसे अव्वल राज्य गुजरात की उच्च न्यायालय में इसकी व्याख्या में कहानी बदल जाती है।
मामला कुछ इस प्रकार से है: पीड़ित महिला के साथ जनवरी 2023 में रेप की घटना हुई, जिसके चलते वह गर्भवती हो गई। एक रेप पीड़िता को किन मानसिक, सामाजिक यंत्रणाओं के बीच से गुजरना पड़ता है, इसके बारे में यहां बताने की जरूरत नहीं है। गर्भवती होने की खबर जानने के बाद ही महिला इस अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाना चाहती थी, लेकिन इस बीच समय गुजरता चला गया और इस सबमें 28 हफ्ते बीत गये। जाहिर सी बात है कि गर्भपात कराने में हुई देरी के बाद एबॉर्शन कराने के लिए कानून की मंजूरी जरूरी है। 24 सप्ताह बाद अदालत मेडिकल बोर्ड की सलाह पर ही गर्भपात कराने की मंजूरी प्रदान करता है।
7 अगस्त को पीड़िता ने गुजरात उच्च न्यायालय में अपनी याचिका दाखिल की, जिसपर 8 अगस्त को सुनवाई की गई। उसी दिन महिला के गर्भ में पल रहे भ्रूण की स्थिति का पता लगाने के लिए मेडिकल बोर्ड के गठन का निर्देश दिया गया, जिसने 10 अगस्त को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। 11 अगस्त के दिन कोर्ट ने इसका संज्ञान लिया और इसके लिए 23 अगस्त की तारीख तय कर दी। लेकिन इसी बीच 17 अगस्त को यह जानकारी प्राप्त हुई कि कोर्ट ने बिना कोई स्पष्टीकरण दिए ही महिला की याचिका खारिज कर दी है, लेकिन आदेश की कॉपी जारी नहीं की।
महिला ने 19 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सर्वोच्च न्यायालय ने मेडिकल परीक्षण कराने का निर्देश जारी किया। लेकिन उसी दिन 19 अगस्त को गुजरात उच्च न्यायालय ने भी मामले पर स्वतः संज्ञान लेते हुए एक आदेश जारी कर दिया। अपने आदेश में कोर्ट ने लिखा कि उन्होंने पीड़ित पक्ष की याचिका ख़ारिज करते हुए पूछा था कि क्या वह बच्चे को जन्म देकर सरकार को सुपुर्द करना चाहती है?
21 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ को इस बात की खबर लगी कि उनके निर्देश के बाद गुजरात की एकल बेंच ने स्वतः संज्ञान लेकर मामले की सुनवाई की है, तो यह मामला पूरी तरह से खुल गया। सवाल है कि एक याचिका जब सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है तो निचली अदालत उस मामले की सुनवाई या आदेश कैसे जारी कर सकती है?
दूसरा मामला यह बनता है कि जब आपने अपना आदेश पहले ही जारी कर दिया है तो स्वतः संज्ञान कैसे ले सकते हैं? तीसरा, 11 अगस्त के फैसले को 23 अगस्त की तारीख तक खींचने की क्या जरूरत है, जब गर्भपात कराने के लिए एक-एक पल बेशकीमती होता है, क्योंकि यह पीड़िता के जीवन-मरण के सवाल से जुड़ा है।
सोमवार को जब गुजरात राज्य का पक्ष रखते हुए वकील ने बेंच को इसकी जानकारी दी तो न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “क्या आप इसका समर्थन करते हैं? हमारे आर्डर की प्रत्यालोचना में उच्च न्यायालय के आदेश का हम समर्थन नहीं करते हैं। हमारे संज्ञान में इस बात को लाने के लिए आपका धन्यवाद, लेकिन क्या आप इसका समर्थन करते हैं? गुजरात हाईकोर्ट में क्या चल रहा है?”
जस्टिस भुयान ने भी अपनी टिप्पणी में पूछा, “जिस मामले का निपटारा कर दिया गया था, इसे उच्च न्यायालय ने दुबारा से पारित किया? कैसे?”
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, “देश में कोई भी अदालत अपने से ऊपरी अदालत के खिलाफ आदेश जारी नहीं कर सकती है, जैसा कि शनिवार को किया गया। दूसरे पक्ष को बगैर कोई नोटिस दिए हुए।” उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा, “उच्च न्यायालय को इस बारे में सफाई देने की कोई जरूरत नहीं थी।”
लेकिन गुजरात सरकार का पक्ष रखने आये सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का इस बारे में हस्तक्षेप देखकर हर कोई अचंभित है। उन्होंने दावा किया कि किसी “क्लैरिकल मिस्टेक” के चलते इस मामले पर उच्च न्यायालय का दूसरा आदेश आ गया होगा। उनकी दलील थी, “मी लार्ड कृपया इस मसले को अब यहीं पर विराम देना ठीक रहेगा। कोई गलतफहमी हो गई होगी।”
लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस बार मामला कानून की विरोधाभासी व्याख्या से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि सर्वोच्च अदालत और खंडपीठ की अवमानना से जुड़ा है, जिसे जानबूझकर स्वयं निचली अदालत द्वारा अंजाम दिया जा रहा है। हाल के वर्षों में गुजरात उच्च न्यायालय के आदेशों की प्रकृति और अंतिम राहत के तौर पर देश की निगाहें जिस प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय पर आकर टिक जाती हैं, वह अब एक परिपाटी सी बनती जा रही है।
लेकिन संभवतः यह अपने आप में पहला मामला है, जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा एक रेप पीड़िता को न्याय से वंचित करने के बाद जब महिला ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो उसी दिन उच्च न्यायालय ने दोबारा से मामले को खोलते हुए अपनी सफाई में अपने फैसले के ऊपर एक और निर्देश जारी कर दिया।
गुजरात हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट दो तरह के फैसले ले सकती थी, समर्थन या फैसले को पलट सकती थी। लेकिन उच्च न्यायालय या कोई भी अदालत एक बार फैसला लिख देने के बाद दोबारा उस पर विचार कैसे कर सकती है? 17 अगस्त को पीड़िता को जैसे ही खबर मिली कि उसकी याचिका को ख़ारिज कर दिया गया है, वह भागी-भागी सर्वोच्च न्यायालय पहुंची, फिर जब किसी ने पुनर्याचिका डाली ही नहीं तो उच्च न्यायालय को स्वतः संज्ञान कैसे आ गया?
लाइव-लॉ के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट इस मामले में उच्च न्यायालय के समूचे दृष्टिकोण से ही नाखुश है और उसने इसे “ढीला-ढाला” करार दिया है। सबसे जरूरी बात यह है कि पहले तो कोर्ट ने मामले की तात्कालिकता को देखते हुए भी 12 दिनों के लिए आगे बढ़ा दिया और 23 अगस्त की तारीख मुकर्रर की थी, लेकिन बाद में 17 अगस्त को केस की सुनवाई करते हुए याचिका को खारिज कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए कि महिला को इस सबके चलते “बेशकीमती वक्त” गंवाना पड़ा है, उच्च न्यायालय रजिस्ट्री को इसका जवाब देने के लिए कहा है।
देखना है, भविष्य में गुजरात की अदालतों से कानून की व्याख्या का, क्योंकि यह प्रचलन बड़ी तेजी से दूसरे राज्यों को भी प्रभावित करने का वायस बनता है। एक गलत नजीर की दलील देकर, देश में धन्नासेठों के लिए बड़े-बड़े वकील पूरे न्यायिक व्यवस्था को ही पंगु बनाने की क्षमता रखते हैं। यही वजह है कि कानून की व्याख्या में अपने विशिष्ट सामाजिक मूल्यों की रोशनी की छाप के बजाय शीर्ष अदालत को कैसे न्याय को अधिकाधिक समावेशी, लोकतंत्र समर्थक और वंचित वर्गों, तबकों एवं समुदायों का पक्षकार बनाया जाये, एवं समूचे न्याय तंत्र से जुड़े लोगों को ज्यादा जिम्मेदार, संवेदनशील एवं धर्मनिरपेक्ष बनाने की गंभीर चुनौती है।
(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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