भारत की टैक्स नीति के चलते अमीरों की संपदा तेजी से बढ़ती जा रही है, जबकि ग़रीबो की हालत उससे भी ज्यादा तेजी से खराब होती जा रही है, और वे निरंतर हाशिये से बाहर होते जा रहे हैं। पहले से ही ग़ैरबराबरी से ग्रस्त देश में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई और भी गहरी और चौड़ी होती जा रही है। यह ग़ैरबराबरी, पहले से ही बरक़रार जाति-जनजाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र, शहर-देहात जैसी असमानताओं के साथ मिल कर एक बड़ी आबादी के जीवन की परिस्थितियों को और भी नारकीय बनाती जा रही है। करोड़ों लोग न्यूनतम मजदूरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, आवास जैसे संघर्षों से रोज-ब-रोज की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
जनवरी 2023 में प्रकाशित ‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 40 प्रतिशत से ज्यादा संपदा पर केवल 1 प्रतिशत अमीरों का क़ब्जा है, जबकि दूसरी तरफ 50 प्रतिशत ग़रीबों के हिस्से में मात्र 3 प्रतिशत संपदा है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि जिस जीएसटी कलेक्शन का ढोल सरकार पीट रही है, 2020-21 के कुल जीएसटी का 64 प्रतिशत हिस्सा (14.83 लाख करोड़ रुपये) इन्हीं 50 प्रतिशत सबसे ग़रीब लोगों ने चुकाया है, जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों का इस जीएसटी में योगदान मात्र 3 प्रतिशत रहा। बीच के 40 प्रतिशत लोगों का जीएसटी में हिस्सा 33 प्रतिशत रहा।
दुनिया बदल चुकी है। आज व्यवसाय के नियम हमारे चुने हुए प्रतिनिधि नहीं लिखते हैं, बल्कि सुपर अमीर लोग खुद लिखते हैं। ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्सֹ’ द्वारा एक अध्ययन-पत्र प्रकाशित कराया गया है, जिसका शीर्षक है, ‘क्या अमीर लोग अपनी आमदनी को घटा कर बताते हैं?’ इसमें बताया गया है कि सबसे अमीर 0.1 प्रतिशत परिवार अपनी पूंजी से अर्जित कुल मुनाफे के मात्र पांचवें हिस्से को अपने आयकर रिटर्न में दिखाते हैं, और शेष 80 प्रतिशत की सूचना ही नहीं देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि जो घराने जितने अमीर हैं, उनके आयकर रिटर्न में उनकी कुल संपदा की तुलना में उतनी ही कम आय सूचित की जाती है।
आय कम दिखाने का एक तरीक़ा है लाभांश कम दिखाना। भारत की 100 सबसे बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा उनकी घोषित इक्विटी आय का मात्र 0.85 प्रतिशत औसत लाभांश है। चूंकि कुल मुनाफे के उतने ही अंश पर कर लगता है, जो लाभांश के रूप में दिया जाता है। लाभांश की ही गणना व्यक्तिगत आय के रूप में की जाती है। इस लाभांश को भी सीधे निजी खातों में न लेकर अक्सर लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप जैसी वित्तीय मध्यवर्ती कंपनियों के खातों में मंगाकर इस टैक्स की भी चोरी कर ली जाती है।
दूसरी तरफ, ‘लेबर ब्यूरो’ के आंकड़ों के अनुसार तथ्य यह है कि देश में वास्तविक मजदूरी आज भी उतनी ही है जितनी 2014-15 में थी। भारत के 10 प्रतिशत सबसे ग़रीब लोगों की औसत आय उनकी कुल घरेलू संपदा का 170 प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में, उनकी घरेलू संचित संपदा इतनी कम है कि उनके जीवन यापन में उनकी अर्जित आय के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। चूंकि इस आय का बड़ा हिस्सा उनके रोजमर्रा के जीवन-संघर्ष में ही खर्च हो जाता है, इसलिए वे कोई संपदा संचित करने की स्थिति में भी नहीं होते।
भारत में ग़रीबों को निचोड़ने की सबसे बड़ी मशीन है इसकी कराधान, यानि टैक्सेशन प्रणाली। दुनिया के विकसित देशों में वसूले जाने वाले टैक्स में प्रत्यक्ष करों का ज्यादा हिस्सा होता है, जिससे ज्यादा कमाने वालों से ज्यादा टैक्स वसूला जाता है। जबकि भारत में अप्रत्यक्ष करों पर ज्यादा जोर है। चूंकि ग़रीब आदमी की बचत कम होती है और आमदनी का बड़ा हिस्सा अपने जीवन यापन के लिए बाजार में रोजमर्रा की जरूरतों पर खर्च हो जाता है, इसलिए उसके द्वारा खर्च किये गये हर रुपये का एक हिस्सा उसे जीएसटी के रूप में चुकाना पड़ता है। वहीं अमीर आदमी की आय का नाममात्र हिस्सा उसके जीवन यापन पर खर्च होता है, इसलिए उसकी आय से जीएसटी भी नाममात्र ही वसूल होती है। अपनी आय के प्रतिशत के तौर पर नीचे के 50 प्रतिशत लोग ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों से 6 गुना अप्रत्यक्ष कर चुकाते हैं। इस तरह से इस कराधान प्रणाली की सबसे ज्यादा मार ग़रीबो पर पड़ती है। मुद्रास्फीति इस हमले को और भी असहनीय बना देती है।
वहीं सबसे अमीर 5 प्रतिशत लोगों की घोषित कर योग्य आय उनकी कुल संपदा के 4 प्रतिशत से भी कम है। 2015 में तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संपत्ति कर हटा कर उसकी जगह अति अमीर (सुपर रिच) लोगों पर सरचार्ज लगा दिया। इससे उनकी सारी संपदा कर के दायरे से बाहर हो गयी। और रही बात उनसे वसूले जाने वाले आयकर और सरचार्ज की, तो लाभांश कम दिखा कर वे उसे भी कम करने के रास्ते निकाल लेते हैं।
संपत्ति कर के खिलाफ यह दलील दी गयी थी कि इसके कारण अमीर लोग अपनी संपत्ति छिपाने और देश छोड़कर जाने को प्रेरित होते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अभी हाल ही में विदेश मंत्री जयशंकर ने बताया है कि 2023 के पहले 6 महीनों में ही 87,026 भारतीय देश की नागरिकता छोड़ चुके हैं। 2011 से अब तक 17.5 लाख लोग भारतीय नागरिकता का परित्याग कर चुके हैं। जाहिर है कि इसमें सर्वाधिक संख्या अमीरों की ही होती है। अपनी रोजी-रोटी के संघर्ष में उलझे हुए ग़रीब आदमी के लिए तो ऐसा सपना देखना भी संभव नहीं है।
देश में केवल 1.7 प्रतिशत लोग आयकर चुकाते हैं। इनमें से अधिकांश वेतनभोगी हैं, जिनका टैक्स वेतन के साथ ही कटता रहता है।
1990 के दशक के आर्थिक सुधारों ने दुनिया भर के धन्नासेठों की तरह भारतीय धन्नासेठों को भी भरपूर मौक़ा दिया है। देश की संपदा पर ऊपरी 10 प्रतिशत लोगों का हिस्सा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। न केवल नीचे के 50 प्रतिशत लोगों का हिस्सा बेहद कम हो गया है, बल्कि बीच के 40 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी भी तेजी से सिकुड़ रही है।
बड़ी-बड़ी कंपनियां जिस तरह से अपने रहस्यों को छिपाये रखने और अपने खातों को महारत के साथ समायोजित करने के लिए अपने सीईओ और वित्तीय अधिकारियों को बेहिसाब वेतन देती हैं, उसी तरह वे अपने टैक्स सलाहकारों और लेखा परीक्षकों को भी तिकड़मों के जरिये टैक्स में भारी बचत के लिए अच्छी फीस देती हैं।
‘क्रेडिट सुइस’ के अनुसार देश में ऐसे धनी लोगों की संख्या 3500 है, जिनकी संपत्ति के अनुपात में अगर उनसे सही आयकर मिले तो वे हर साल 500 करोड़ और ज्यादा टैक्स देंगे, लेकिन ‘केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड’ (सीबीडीटी) के आंकड़ों के अनुसार 2017-18 में केवल 179 लोगों ने इस स्तर का टैक्स चुकाया है।
संपत्ति कर से छूट, लाभांश कम दिखाकर आयकर में छूट, खातों में हेरफेर करके की गयी टैक्स चोरी, कॉरपोरेट कर में छूट के अलावा अमीरों की संपदा में बेतहाशा वृद्धि का एक अन्य जरिया है मुनाफे का निजीकरण और घाटे का सार्वजनीकरण। पिछले 5 सालों में 10 लाख करोड़ रुपये के लोन बैंकों के बट्टाखाते में डाले जा चुके हैं, जिसमें से मात्र 13 प्रतिशत वापस आये हैं। शेष को एनपीए घोषित कर दिया जाएगा। इसकी वसूली बैंकों में जमा आम जनता के धन और सार्वजनिक धन पर कम ब्याज देकर और बैंकों द्वारा वसूले जाने वाले टैक्स बढ़ाकर की जाती है। इस तरह से इसकी मार भी अंततः ग़रीबों पर ही पड़ती है। इसके अगले चरण के तौर पर सरकारें सार्वजनिक खर्चों में कटौती करने लगती हैं। इसका बोझ भी अंततः ग़रीबों को ही ढोना पड़ता है। दुनिया भर में स्वीकृत एनपीए के स्तर की तुलना में भारत में एनपीए 4 से 6 गुना ज्यादा है।
इस तरह से, वर्तमान में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने, 2027 तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने आदि के बड़े-बड़े दावों, गाजे-बाजे और शोर-शराबे के बीच हमें इस पर भी ध्यान रखने की जरूरत है, कि शर्मनाक ग़ैरबराबरी पैदा करने वाले इस विकलांग विकास की अंतिम मार किसके ऊपर पड़ रही है।
(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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