Friday, April 19, 2024

बिहार स्पेशल: मॉर्टन चॉकलेट से HMT के ट्रैक्टर, जूट मिल से लेकर शुगर मिल; कैसे बर्बाद हुए उद्योग?

जाति और जाति की राजनीति करने वाला बिहार से बाहर निकलते ही एक बिहारी ना तो अमीर होता है और ना ही ब्राह्मण या दलित। आप बस एक गरीब बिहारी होते हैं, जिसका भारी पेट अपने राज्य में नहीं भर रहा है। वही राज्य जिसके इतिहास के गौरव गाथा को पूरे विश्व में पढ़ाया जाता है कि भारत में मौर्य वंश से ज्यादा खुशहाली कभी नहीं रही।

बिहार से करोड़ों लोग ट्रेन पकड़ के बाहर गए। वो फिर कभी वापस नहीं लौटे। आप बिहार सरकार के किसी भी विभाग के इंजीनियर का डाटा उठा लीजिए। कोई भी बिहार से बाहर का पास आउट इंजीनियर नहीं मिलेगा। क्यों सारे मध्यम/लघु और कुटीर उद्योग बंद हो गए? ऐसा क्यों है? कब तक बिहार प्रगति का आखिरी डब्बा बन के ह्यूमन पावर सप्लायर स्टेट बना रहेगा?

“हमारे गांव में पहले खेती होती थी। हम लोग जमींदार से जमीन लेकर बटिया दारी खेती करते थे। फिर लगभग 1980 के समय में हम लोगों से इस शर्त पर जमीन ले ली गई कि यहां चीनी मिल बनेगा और वहां हम लोगों को नौकरी मिलेगी। दो-तीन साल नौकरी भी किया, फिर चीनी मिल बंद हो गई। आज भी वहां के नेता इस चीनी मिल के लिए वोट मांगते हैं और हम लोग दिल्ली और पंजाब के भरोसे हैं। छठ तक के लिए घर आए हैं। फिर वापस मजदूरी करने जाएंगे। आज भी हमारे घर का पेपर मिल शुरू हो जाए तो हम लोग वापस बिहार आ सकेंगे।” देश की राजधानी दिल्ली से 1200 किलोमीटर और बिहार की राजधानी पटना से ढाई सौ किलोमीटर दूर सहरसा जिला स्थित बैजनाथपुर गांव के 65 वर्षीय बिन्दो तांती बताते हैं।

बनमखी चीनी मिली

बिहार में बंद हुए उद्योग की कहानी

स्वतंत्रता के समय बिहार देश की 40% चीनी का उत्पादन करता था। उत्तर बिहार में धातु आधारित उद्योग की संभावना नहीं थी इसीलिए कृषि आधारित उद्योग में लगभग सभी जिले में चीनी मिलें थीं। इसके साथ ही बिहार की राजधानी पटना से 80 किलोमीटर दूर मढ़ौरा में “मॉर्टन” चॉकलेट की कंपनी थी। रोहतास जिले का डालमिया नगर 90 से पहले शक्कर, कागज, वनस्पति तेल, सीमेंट, रसायन और एस्बेसटस उद्योग के लिए विख्यात था। फतुहा में विजय सुपर स्कूटर बनता था। लेकिन समय के साथ सब कुछ खत्म हो गया।

बिहार के प्रसिद्ध ब्लॉगर प्रोफेसर रंजन ऋतुराज बताते हैं कि, “1960 ईस्वी में बिहार और महाराष्ट्र की प्रति व्यक्ति आय में दोगुना का अंतर था। मतलब 215 रुपये/400रुपये। फिर 2020 ईस्वी आते-आते यह करीब 8 गुना ज्यादा बढ़ गया। समाजवाद स्थापित करते-करते हम उद्योग को ही भूल गए। जबकि उद्योग ही एक माध्यम है कि वह असली समाजवाद को स्थापित कर सकता है। बिहार के चीनी और पेपर मिलों के साथ लघु और कुटीर उद्योगों के खत्म हो जाने के पीछे कौन है। भारत का दूसरा इलेक्ट्रॉनिक सिटी हाजीपुर के बंद हो जाने के पीछे कौन है। जाति के नाम पर राजनीति करके सत्ता तो प्राप्त कर लिए और आगे भी सत्ताधारी रहेंगे लेकिन आपके पास क्षमता नहीं है बिहार को पुराना बिहार ही बना देने की।”

चीनी मिल के नाम पर जब मोदी ने मांगा वोट

2014 का लोकसभा चुनाव, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार के नवादा ज़िला मुख्यालय के आईटीआई ग्राउंड में चुनावी जनसभा को संबोधित करने आए थे। भाषण के दौरान उन्होंने भी कहा था कि आखिर वारिसलीगंज चीनी मिल से दशकों से धुंआ क्यों नहीं निकला है? आखिर कब तक बिहार के चीनी मिल की यही दुर्दशा रहेगी? नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने 8 साल बीत गये हैं। बिहार में बीजेपी की भी 5 साल सरकार रही है। इसके बावजूद अभी तक धुंआ नहीं निकल रहा है।

चीनी मिल के खत्म होने की कहानी

“1947 से पहले बिहार देश के कुल चीनी उत्पादन में 40 फीसदी का योगदान करता था। वहीं अभी सिर्फ बमुश्किल 4% करता है। सिर्फ 10 चीनी मिल चलती है वह भी निजी तरीके से। सरकार की उपेक्षा के चलते चीनी कारखानों को समय के साथ विकसित या आधुनिक नहीं बनाया जा सका। फिर 1952-54 आते-आते चीनी मिल प्राइवेट कंपनियों को दी जाने लगीं। चीनी के अत्यधिक उत्पादन से निजी कंपनियों के मालिकों को नुकसान होने लगा। जिस से बचने के लिए उसने चीनी का उत्पादन कम कर दिया। जिसका विरोध सरकार ने किया। फिर चीनी निगरानी समिति के मदद से 1977 से 1985 के बीच बिहार सरकार ने करीब 15 से अधिक चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लिया था। समय के साथ गन्ना की खेती कम और रबी फसल बढ़ने से गन्ना उत्पादन घाटे में जाने लगा। असर यह हुआ कि चीनी कंपनियां बंद होने लगीं। हालत आज भी जस का तस बनी हुई है।” पूसा कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शंकर झा बताते हैं।

बैजनाथपुर का पेपर कारखाना

“कोई उद्योगपति बिहार में फैक्ट्री लगाए, यह सोचना भी अब बिहारी छोड़ दिया हैं। बिहार मूल के ही किंग महेंद्र मशहूर दवा कंपनी एरिस्‍टो के मालिक थे। राज्यसभा की सीट यहां से लेते थे, लेकिन फैक्ट्री नहीं लगाते। वेदांता ग्रुप के मालिक अनिल अग्रवाल की कंपनी को लेकर महाराष्ट्र और गुजरात के बीच होड़ लग जाती है। सोच में ही विकास नहीं है। सोच में कुर्सी और जनता को गरीब बना के रखना है ताकि जनता कोई अन्य विकल्प नहीं तलाशे।” बिहार के नामचीन ब्लॉगर प्रोफेसर रंजन ऋतुराज बताते हैं।

फोटो 1,2 &3 विश्व प्रसिद्ध बनमखी चीनी मिल का है , जो अब सड़ चुका है या सड़ा दिया गया है

 फोटो 4&5 सहरसा जिला स्थित बैजनाथपुर गांव का पेपर मिल

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