संविधान पर बिबेक देबरॉय की राय अब हो गयी निजी!

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय के स्वतंत्रता दिवस के दिन अंग्रेजी के अख़बार मिंट में छपे लेख पर देश की बेहद तीखी प्रतिक्रिया का ही यह कमाल है कि दो दिन बाद ही 17 अगस्त को प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद (EAC-PM) ने अपने ट्वीट के माध्यम से बिबेक देबरॉय के इस लेख से खुद को अलग करते हुए उनका निजी विचार बताया है। साथ ही इसे पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद और भारत सरकार का दृष्टिकोण मानने से इंकार कर दिया है।

लेकिन सवाल उठता है कि इस आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष तो स्वयं बिबेक देबरॉय हैं, जिसमें पूर्ण सदस्यता प्राप्त लोगों में संजीव सान्याल के अलावा प्रोफेसर शमिका रवि ही हैं। परिषद में अन्य सदस्य राकेश मोहन, डॉ साजिद चिनॉय, डॉ नीलकांत मिश्र, नीलेश शाह, प्रोफेसर टी टी राम मोहन और डॉ पूना गुप्ता पार्ट टाइम सदस्य हैं। आर्थिक सलाहकार परिषद का अध्यक्ष होने और उक्त लेख में लेखक परिचय के तौर पर ईएसी-पीएम चेयरमैन का उल्लेख स्पष्ट करता है कि यह परिषद का स्वीकृत विचार है। लेकिन खंडन भी स्वयं देबरॉय की ओर से किया गया हो, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। उनके अलावा अन्य लोगों के पास इसका अधिकार भी होगा, इसमें भारी संदेह है।

प्रधानमंत्री कार्यालय के लिए थिंक टैंक और योजना आयोग के खात्मे के बाद 2015 से ही नीति आयोग के स्थायी सदस्य के बतौर बिबेक देबरॉय सरकार और मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘ब्लू आइड बॉय’ रहे हैं। उनका काम ही मोदी सरकार की सोच को आकार देने का रहा है, जिसके लिए वे समय-समय पर साधिकार अपने विचार सार्वजनिक मंचों पर रखते आये हैं। हाल ही में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के संदर्भ में उनके लेख में साफ़-साफ़ शब्दों में उपभोक्ता वस्तुओं की सूची में आमूलचूल बदलाव किये जाने को आधार बनाया गया था।

बिबेक के शब्दों में 1960 से 2023 के बीच में उपभोक्ताओं की जेब और खर्च में युगांतकारी बदलाव आ चुका है। 260 खाद्य वस्तुओं के वेटेज को पूरी तरह से आउटडेटेड मानते हुए वे इसमें पूर्ण बदलाव की वकालत करते हैं। देबरॉय सब्जी और खाद्य पदार्थों में अनाज की तुलना 80 के दशक के कैसेट और टेप रिकॉर्डर से करते हैं, जिसका 2023 में कोई मोल नहीं है। इसकी बजाए वे आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य बीमा एवं डिजिटल सेवाओं पर ज्यादा वेटेज दिए जाने की सलाह देते हैं। आसान शब्दों में कहें तो बिबेक देबरॉय के फार्मूले के हिसाब से आज जो भयानक मुद्रा स्फीति देश झेल रहा है, वह नए वेटेज सिस्टम से 7.44% की तुलना में आधा भी नहीं नजर आती।

कुछ इसी प्रकार की विवेचना बिबेक देबरॉय ने 10 अगस्त को देश के बीमारू राज्यों को गरीबी उन्मूलन में अग्रणी करार दिया था। यूएनडीपी के अनुसार 2005-06 से 2019-21 के बीच भारत में गरीबी 55.1% से घटकर 16.4% रह गई थी। यह चमत्कार बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमडीपीआई) को आधार बनाकर संभव हो सकी है, जिसमें यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश और ओडिसा को इसका बड़ा श्रेय दिया गया है। नीति आयोग की रिपोर्ट ने एमडीपीआई के आधार पर 2015-16 से 2019-21 के बीच में 24.85% गरीबी को घटाकर 14.96% तक लाकर एनडीए सरकार की एक बड़ी उपलब्धि साबित कर दिया था।

जबकि सारे देश को पता है कि कोविड-19 के साथ ही देश में गरीबी इस भयानक गति से बढ़ी कि मोदी सरकार को 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज वितरित करना पड़ा। यह योजना कोविड-19 के खत्म होने के बाद भी इसलिए जारी है, क्योंकि करोड़ों लोगों के पास अब आय का कोई दूसरा साधन ही नहीं बचा है। अगर केंद्र सरकार आज इस स्कीम को बंद कर दे, तो कुपोषण और भुखमरी की स्थिति बेहद विकराल रूप ले सकती है। भारत में एमडीपीआई के लिए जन-धन खाता, गैस सिलिंडर, स्वच्छता, शिक्षा और पीने के पानी जैसे मुद्दों को आधार बनाया गया है, जो कागजों पर तो अवश्य मौजूद हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई से मोदी सरकार वाकिफ है।

कहना न होगा, बिबेक देबरॉय मोदी सरकार के आंख, नाक और कान हैं, और उनकी ओर से लिखा गया कोई भी लेख ख्याली पुलाव तो बिल्कुल नहीं होता। अपने 15 अगस्त के लेख में उन्होंने देश के संविधान की मूल आत्मा से छेड़छाड़ की बात नहीं, समूचे संविधान को ही आमूलचूल बदल देने की जरूरत पर बल दिया है। अपने लेख की शुरुआत देबरॉय 1947 के बाद देश के हासिल को गुस्से से नहीं बल्कि आश्चर्य के साथ करते हैं, और इसकी परिणति वे सेंगोल की भुला दी गई विरासत को पुनः स्थापित करने और आपराधिक न्याय पर आधारित तीन हालिया विधेयक में आशा भरी निगाहों से देखते हैं।

कोविड-19 से उबरने और अन्य देशों की तुलना में मजबूत आर्थिक मैक्रो-फंडामेंटल के साथ 6.5-7% विकास दर के साथ अमृत काल के टेम्पलेट और प्रक्षेपवक्र के साथ आजादी के 100 साल की ओर बढ़ने और एक विकसित देश की आशावादिता उन्हें अब पुराने पड़ चुके संविधान में आमूलचूल का बल प्रदान करती है। 

वे बताते हैं कि हमारे पास विरासत में मिले 1950 के संविधान में कई संशोधन किये जा चुके हैं, जो हमेशा बेहतरी के लिए नहीं हुए। 1973 से अदालतों ने हमें बताया कि इसकी ‘बुनियादी संरचना’ को नहीं बदला जा सकता है, भले ही संसद के माध्यम से लोकतंत्र कुछ भी चाहता हो। फिर वे एक सुझाव देते हैं कि 1973 का निर्णय मौजूदा संविधान में संशोधन पर लागू होता है, लेकिन नया संविधान बना दिया जाये तो उस पर लागू नहीं होता। इसके लिए वे यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो लॉ स्कूल द्वारा लिखित संविधानों के क्रॉस-कंट्री अध्ययन का उदाहरण पेश करते हुए कहते हैं कि इसमें इन सबका औसत जीवनकाल केवल 17 वर्ष पाया गया। जबकि आज 2023 चल रहा है, 1950 से 73 साल बीत चुके हैं।

फिर वे एक धमाका करते हुए लिखते हैं कि हमारा वर्तमान संविधान काफी हद तक 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है। इसका अर्थ हुआ कि असल में यह एक औपनिवेशिक विरासत भी है। वे 2002 के वाजपेई काल को उधृत करते हुए तर्क पेश करते हैं कि संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित एक आयोग की एक रिपोर्ट आई तो थी, लेकिन यह आधे-अधूरे मन से किया गया प्रयास था। यहां पर थोड़ा इधर और थोड़ा उधर बदलाव से काम नहीं चलने वाला है। हमें संविधान सभा की बहसों की तरह सबसे पहले सिद्धांतों से इसकी शुरुआत करनी होगी। फिर वे पाठकों के लिए प्रश्न खड़ा करते हैं कि 2047 के लिए भारत को कैसे संविधान की आवश्यकता है?

वे यहीं पर नहीं रुकते, बल्कि पूछते हैं कि हमें कितने राज्यों की आवश्यकता है? गवर्नेंस की उनकी परिभाषा रोनाल्ड रीगन की नव-उदारवादी व्याख्या का अनुसरण करने की मांग करती है। न्यायपालिका की भूमिका से वे लंबे समय से असंतुष्ट रहे हैं, जो समय-समय पर उनके लेखों से स्पष्ट है। अदालत में बैकलॉग, सर्वोच्च न्यायालय का उच्च न्यायालयों पर नियंत्रण सहित न्यायिक नियुक्तियों के बारे में वे सवालिया निशान खड़ा कर रहे हैं? यही नहीं राज्यपाल की भूमिका में भी बदलाव की बात करते हैं। चुनाव सुधार और राज्यसभा की भूमिका के बारे में बिबेक देबरॉय का लेख प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर सैंगोल के राजदंड की ओर इशारा करते प्रतीत होते हैं।

अपने लेख का अंत करते हुए वे इशारा करते हैं कि हमारी सारी बहस संविधान से शुरू होकर उसी पर अक्सर ख़त्म हो जाती है। इसलिए निर्णायक बदलाव के लिए वे संविधान में आमूलचूल बदलाव के लिए आह्वान करते हैं कि हमें सबसे पहले सिद्धांतों से शुरू करना चाहिए, और पूछना चाहिए कि प्रस्तावना में अब समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का क्या अर्थ रह गया है। अंत में बिबेक देबरॉय फैसला सुनाते हुए कहते हैं, हम लोगों को खुद को एक नया संविधान देना होगा।

यह लेख अपनी शुरुआत में संदेह से शुरू होता है, और मौजूदा व्यवस्था और संविधान पर सैकड़ों प्रश्न खड़े करते हुए सैंगोल दंड और तीव्र आर्थिक विकास के बल पर विकसित भारत का निर्माण संभव बनाने के लिए लोकतांत्रिक तानाशाही की वकालत करता है, जिसके लिए सबसे बड़ी बाधा उन्हें भारत का संविधान नजर आता है। पिछले दो दिनों से कांग्रेस सहित राजद, जेडीयू, तृणमूल कांग्रेस और अब बसपा की तीखी आलोचना देश के मूड को बताती है।

संभवतः देश का मूड भांपने के लिए पहले सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने राज्यसभा में संविधान के बुनियादी ढांचे को बदले जाने की संभावना पर अपने विचार प्रकट किये, और अब 15 अगस्त के दिन बिबेक देबरॉय के जरिये इसका परीक्षण किया गया। लेकिन इस लेख पर जिस प्रकार से व्यापक रोष की लहर पूरे देश में दौड़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि आरएसएस-भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व ने 2024 के बाद की झांकी दिखाकर अपने लक्ष्य को ही दुष्कर बना डाला है।   

उक्त लेख को बिबेक देबरॉय ने अपने ट्विटर हैंडल से जारी किया है। इस पर आई दो टिप्पणी भारतीय लोकतंत्र के मूड को पूरी तरह से स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। सुप्रीम कोर्ट की वकील शोमोना खन्ना ने विवेक देबरॉय के ट्वीट पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा है, “एक राज्य प्रायोजित अर्थशास्त्री के लिए ऐसा सोचना अहंकार की पराकाष्ठा है कि वह संविधान सभा के 389 सदस्यों, डॉ अंबेडकर की अध्यक्षता वाले बौद्धिक दिग्गजों और 77 वर्षों के संवैधानिक न्यायशास्त्र के ज्ञान को खत्म कर सकता है। अहंकार की पराकाष्ठा।”

दिलीप मंडल ने कहा “प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन बिबेक डेबरॉय को भारतीय संविधान से बहुत दिक़्क़त है। ऐसी हालत में उसे कहां चले जाना चाहिए? इसके साथ उन्होंने विकल्प में पाकिस्तान, कैलाशा, उत्तरी कोरिया और बेलारूस का विकल्प दिया है। अधिकांश ने पाकिस्तान के विकल्प को विवेक देबरॉय के लिए सर्वोत्तम माना है।

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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